23-09-2013, 01:26 AM | #1 |
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केंचुल
जन्म से ही चढ़ने लगी केंचुल
एक के ऊपर एक चमकदार और पारदर्शी प्रफुल्लित हो नाच उठता, मैं गर्व से इठलाता हुआ सीना चौड़ा किये खुश होता अपने हर नए आवरण के साथ सत्य से दूर होता गया जैसे जैसे मेरे ऊपर चढ़ती गयीं केंचुल की परतें मेरे चारों ओर लोग ताली बजाते हैं तालियाँ तेज़ हो जाती हैं मेरे हर नयी केंचुल के साथ भीड़ का हिस्सा बना, मैं खड़ा देखता जाता हूँ अपने रंग को बदलता हुआ उस भीड़ की तरह जो खड़ी ताली बजा रही है मेरे ऊपर चढ़ती हर एक नयी केंचुल को देखकर जो केंचुल कभी पारदर्शी थी वो अब मटमैली हो चुकी है इतनी परतों के बाद बाधित कर देती है, मेरी दृष्टि और मैं असमर्थ पाता हूँ कुछ भी स्पष्ट देख सकने में केंचुल के पार एक नहीं कई केंचुल हैं एक के ऊपर एक उतारा है कुछ केंचुलों को मैंने लेकिन अब भी अनभिज्ञ हूँ अपने सत्य से व्यग्र हो उठता है मन तड़पता है निकल आने को बाहर इन केंचुलों के कारागार से इस घुटन से दूर चाहता है उड़ना उन्मुक्त आकाश में केंचुलों की परिधि से परे जानने को सत्य, जो छुपा है उतार रहा हूँ एक के बाद एक अपनी केंचुल को उस दीवार के पत्थरों से रगड़ रगड़ के जो ताली बजाते लोगों ने खड़ी की है लेकिन शायद वो खुश नहीं हैं लहूलुहान हो जाता हूँ मैं कुछ अपनी रगड़ से और कुछ उनके पत्थरों से जो अब तक ताली बजा रहे थे आसानी से छूटती नहीं है ये केंचुल जिसने जमा ली हैं जड़ें मेरे भीतर तक अधमरा लेटा रहता हूँ घाव भरने के इंतज़ार में फिर तैयार होता हूँ, मैं एक और केंचुल की परत, उतारने के लिए |
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