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#8 |
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![]() मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़शाँ है हयात तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग अनगिनत सदियों के तारीक बहिमाना तलिस्म रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाये हुये जा-ब-जा बिकते हुये कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म ख़ाक में लिथड़े हुये ख़ून में नहलाये हुये जिस्म निकले हुये अमराज़ के तन्नूरों से पीप बहती हुई गलते हुये नासूरों से लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मग़र क्या कीजे और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..." click me
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