01-12-2014, 10:46 PM | #31 |
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Re: उपन्यास: जीना मरना साथ साथ
‘‘सुनलहीं न हो, साला के कहलिए हल की छोड़ इ शुदर मुदर के साथ, कुछ नै मिले बाला, पर नै मानलै और बोडीगार्ड रखलै, चल गेलै भित्तर...। सांढ़ा ने यह कहानी छेड़ी तो कई शुरू हो गए। कामरेड के हत्या के मामले में एक दर्जन से अधिक लोग बंदी थी।
‘‘हां हो, साला के खतम करे ले कहां कहां से समान नै जुटावे पड़लै, सन्तालिस के आगे रिवॉल्वर की टिकतै। बगैचा में घेर के पहले त बोडीगडबा के कहबे कैलिए की तों भाग जो, पर साला पक्का सिपाही हलै कहलै हमरो मार दा पर भागबो नै।’’ बीपो सिंह ने बड़े ही शान से कहा। ‘‘साला रार सुदर के भड़काबो हलै, गेलै। चंदा कर के ऐतना रूपया जमा कर देलिए हें कि केस सलटा जइतै।’’ वीरगाथ की तरह बखान चलती रही और मेरा मन इस सब में अकुलाता रहा। सामान्तवाद की इस गाथा में मेरा मन नहीं रम रहा था पर अनमनसक हो कर सुनना भी मजबूरी थी। मेरा मन बाहर की घटनाओं को जानने के लिए मचलने लगा। फिर मुझसे भी मेरी कहानी लोगो ंने जाननी चाही। ‘‘कैसे फंसइलहीं हो, त भागलीं काहे, छोड़ देथीं हल त जेल के हवा नै ने खाइले पड़तो हल।’’कई तरह के सवाल। पर जबाब कौन देता, किसके पास जबाब था। मैं चुप चाप सुनता रहा। >>>
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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