02-04-2015, 07:06 PM | #11 |
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Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
क्या ख़बर थी के कभी बे-सर-ओ-सामाँ होंगे
फ़स्ल-ए-गुल आते ही इस तरह से वीराँ होंगे दर-ब-दर फिरते रहे ख़ाक उड़ाते गुज़री वहशत-ए-दिल तेरे क्या और भी एहसाँ होंगे राख होने लगीं जल जल के तमन्नाएँ मगर हसरतें कहती हैं कुछ और भी अरमाँ होंगे ये तो आग़ाज-ए-मसाइब है न घबरा ऐ दिल हम अभी और अभी और परेशां होंगे मेरी दुनिया में तेरे हुस्न की रानाई है तेरे सीने में मेरे इश्*क़ के तूफ़ाँ होंगे काफ़री इश्*क़ का शेवा है मगर तेरे लिए इस नए दौर में हम फिर से मुसलमाँ होंगे लाख दुश्*वार हो मिलना मगर ऐ जान-ए-जहाँ तुझ से मिलने के इसी दौर में इमकाँ होंगे तू इन्हीं शेरों पे झूमेगी ब-अंदाज़-ए-दीगर हम तेरी बज़्म में इक रोज़ ग़ज़ल-ख़्वाँ होंगें
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