14-06-2015, 02:28 PM | #1 |
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कहूँ क्या
सुनु क्या सुनाऊं क्या
कहूँ क्या बताऊँ क्या देख दुनिया के इस मेले को रंजिशे मन की बताऊँ क्या कही है सिसकती सांसे तो कहीं हैं हंसी के मंजर कहीं अट्टहास करती है जिंदगी कही सांसों को तरस रही जिंदगी कहीं है तरसते दो वक़्त की रोटी को लोग तो कहीं धनवर्षा का आह्लाद है कही लोग डूबे हैं जाम की मस्ती में तो कहीं कोई गम की आगोश में निराश है कहीं तपिस है रिश्तों के प्रेम की तो कहीं रिश्ते टूटने को तेयार है बनती बिगडती उम्मीदें हैं हैं बनते बिगड़ते एहसास यहाँ असमंजस में हूँ दुनिया के इस मेले की विषमता से सब वक़्त के आगे बेजार यहाँ |
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