02-08-2015, 11:30 AM | #17 |
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Re: चाणक्यगीरी
एक बार भिखारिन विद्यावती के भेष में मौर्य महल में रह रही महारानी विद्योत्तमा अपनी आदत के मुताबिक बिना किसी से बताए मालव देश गई तो बहुत दिनों के बाद वापस आई। बहुत दिनों के बाद वापस आने के कारण मौर्य महल में कविता सुनने के लिए भीड़ लग गई। कविता सुनाने से पहले विद्यावती ने मुस्कुराते हुए कहा- 'मैं आज की अपनी कविता अपनी प्यारी और दुलारी परी के नाम समर्पित करती हूँ क्योंकि आज उसका जन्मदिन है!'
विद्यावती की घोषणा सुनकर मौर्य महल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा और बाहर दनादन गोले दागकर खुशियाँ मनाई जाने लगी। विद्यावती की घोषणा सुनकर चाणक्य और मालविका के भेष में मौर्य महल में उपस्थित विद्योत्तमा की सहेली और सेनापति अजूबी ने तालियाँ नहीं बजाईं, क्योंकि दोनों को पता था कि विद्यावती के भेष में विद्योत्तमा झूठ बोल रही है। चाणक्य को लगा कि विद्यावती अपनी फर्जी पहिचान पुख्ता करने के लिए अपनी पुत्री के फर्जी जन्मदिन का नाटक खेल रही है। विद्यावती ने कविता सुनाना आरम्भ किया- "मेरे आँगन में.. इक परी थी.. भोली-भाली सी.. अलबेली सी.. प्यारी सी.. दुलारी सी.. जब देखो वो.. खिलखिलाती.. चहचहाती.. उसके रहने से.. मैं इठलाती.. खूब इतराती.. खुद बन जाती.. इक छोटी सी.. इक नन्ही सी.. गुड़िया नटखट सी.. कामदेव आ गए.. नाराज़ हो गए.. बोले- दे दो हमें.. हमारा तीर वापस.. तुम.. तुम.. तुम.. तुम.. तुम.. अरे, रुक तो ज़रा.. ज़रा प्यार कर लूँ.. थोड़ा दुलार कर लूँ.. दीदार कर लूँ.. बधाई हो.. बधाई हो.. जन्मदिन की.. तुमको बधाई हो.. बधाई हो.. बधाई हो.. बधाई हो.. बधाई हो.." कविता समाप्त होते ही मौर्य महल एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजने लगा। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच ज़ोर-शोर से संगीत बजने लगा और कलाकार नृत्य करने लगे। मौर्य महामंत्री राजसूर्य अब तक विद्यावती के बहुत बड़े चमचे बन चुके थे। कविता समाप्त होते ही अपना सिंहासन छोड़कर लकड़बग्घे की तरह कूदे और अपना राजकीय मुकुट उतारकर विद्यावती के चरणों पर रखकर बोले- 'मौर्य देश की ओर से आपकी परी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।' किन्तु कविता सुनकर चाणक्य के कान खड़े हो गए और दिल बैठने लगा। चाणक्य को पता था कि विद्यावती की कविताएँ गूढ़ होती हैं। बधाई देने के स्थान पर चाणक्य ने इशारा किया और नाच-गाना बन्द हो गया। सभी आश्चर्यपूर्वक चाणक्य को देखने लगे। ऐसा पहली बार हुआ था जब चाणक्य ने नाच-गाना रुकवाया था, नहीं तो कभी-कभी चाणक्य स्वयं अन्य कलाकारों के साथ नृत्य करने लगते और अपने साथ महामंत्री राजसूर्य और मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को भी बुला लेते। चाणक्य ने विद्यावती से कहा- 'क्षमा करिए, विद्यावती जी। चाणक्य उन पंक्तियों का अर्थ जानना चाहता है जहाँ पर आपने कहा है- कामदेव आ गए, नाराज़ हो गए। बोले- दे दो हमें, हमारा तीर वापस तुम।' विद्यावती ने मुस्कुराते हुए कहा- 'इसका अर्थ बहुत सरल है, चाणक्य जी। सुनिए- कामदेव रुष्ट भए, माँगें वापस अपना तीर। थोड़ा और दुलार लूँ, रे रुक जा काम वीर।।' चाणक्य ने चिढ़कर कहा- 'पहले जो बात कविता में कही गई थी, उसी बात को अब आपने दोहे में कह दिया। इसमें नई बात क्या है?' विद्यावती ने मुस्कुराते हुए कहा- 'जब नई बात होगी तभी तो नई बात निकलेगी, चाणक्य जी।' चाणक्य को अच्छी तरह से पता था कि विद्यावती साफ-साफ कुछ भी बताने वाली नहीं। अपनी पहिचान छिपाने के लिए इसी प्रकार गोल-मोल बातें करती रहेगी। अतः चाणक्य ने पूछा- 'क्षमा करेँ, मेरे आँगन में इक परी है होना चाहिए था। कविता भूतकाल में क्यों है?' विद्यावती ने मुस्कुराते हुए कहा- 'क्योंकि कविता की परी भूतकाल की है।' चाणक्य का दिल किया कि ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। विद्यावती की शैतानी पर उसे बहुत क्रोध आ रहा था- छी.. अपनी पहिचान छिपाने के लिए इतना बड़ा झूठ बोलकर इतना बड़ा नाटक करने की क्या ज़रूरत है? अपनी जीवित पुत्री को मृत घोषित कर दिया! छी.. छी.. छी.. लानत है! नहीं-नहीं.. मालविका के भेष में अजूबी ने भी बधाई नहीं दी है। 'भूतकाल की परी' का अर्थ स्पष्ट है- परी अब नहीं है। कामदेव के नाराज़ होकर अपना तीर वापस माँगने का अर्थ स्पष्ट है- कामदेव का तीर चलने पर ही प्रेम की निशानी के रूप में परी प्रकट हुई। अब कामदेव अपना तीर वापस माँग रहे हैं, अर्थात् दी गई प्रेम की निशानी को वापस माँग रहे हैं और विद्यावती दुलारने के लिए कामदेव से थोड़ा समय माँग रही है। श्रोताओं को भ्रमित करने के लिए कविता में यमराज का सीधा उल्लेख न करके अत्यन्त साहित्यिक रूप में कामदेव का उल्लेख करके यमराज का प्रभाव उत्पन्न किया गया है और इतनी उच्चकोटि का साहित्यिक कार्य करने की क्षमता सिर्फ़ विद्योत्तमा में ही है, किसी और में नहीं! कहीं ऐसा तो नहीं- विद्यावती सच बोल रही हो और सचमुच... इसके आगे सोचने से चाणक्य का दिल भयभीत हो गया। नहीं-नहीं.. ऐसा नहीं हो सकता! कभी नहीं हो सकता!! इसीलिए तो परी को फ़र्जी जन्म दिन की बधाई दी जा रही है। कुछ अनहोनी होती तो मालवदेश से इस बारे में अधिकृत सूचना ज़रूर जारी होती। यह सिर्फ़ विद्यावती का एक नाटक है.. गन्दा नाटक!!! नहीं-नहीं.. ऐसा तो नहीं- विद्यावती सच बोल रही हो। सोच-सोचकर चाणक्य का दिल बैठने लगा। किसी अनहोनी की आशंका से चाणक्य को पसीना छूटने लगा। उसी समय आठों दिशाओं से ज्ञान बटोरने में विश्वास रखने वाले महामंत्री राजसूर्य ने चाणक्य से कहा- 'जन्म-दिन पर बड़ी ही सुन्दर कविता लिखी गई है। कविता के भूतकाल या वर्तमानकाल में होने से क्या फ़र्क पड़ता है? आज तो खुशी का दिन है। आज तो पूरे मौर्य देश में जश्न मनाया जाना चाहिए।' कहते हुए महामंत्री राजसूर्य ने इशारा किया और संगीत के साथ कलाकारों ने नृत्य करना आरम्भ कर दिया। बाहर खड़े मौर्य सेनापति प्रचण्ड तोप के गोले दागकर सलामी देने लगे। चाणक्य ने आगबबूला होकर खड़े होते हुए कहा- 'बन्द करो ये नाच-गाना। मौर्य देश में कोई जश्न नहीं मनाया जाएगा।' नाच-गाना तुरन्त बन्द हो गया। चाणक्य ने एक बार विद्यावती की ओर देखा। विद्यावती पूर्ववत् मुस्कुरा रही थी। चाणक्य गुस्से में पैर पटकते हुए बाहर चले गए।
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