09-06-2011, 09:35 PM | #1 |
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बाबा साहब डॉ. अंबेडकर का स्त्री विमर्श
- डॉ. शरद सिंह
नवरात्रि में देवी दुर्गा कीशक्ति के रूप में आराधना में जगराते किए जाते हैं और व्रत-उपवास रखा जाता है। यह सबस्त्रियां ही नहीं पुरुष भी बढ़-चढ़ कर करते हैं। भारतीय पुरुष भी देवीके शक्तिस्वरूप को स्वीकार करते हैं किंतु स्त्री का प्रश्न आते ही विचारोंमें दोहरापन आ जाता है। इस दोहरेपन के कारण को जाँचने के लिए हमें बार-बारउस काल तक की यात्रा करनी पड़ती है जिसमें 'मनुस्मृति' और उस तरह के दूसरेशास्त्रों की रचना की गई जिनमें स्त्रियों को दलित बनाए रखने के 'टिप्स' थे, फिरभी पुरुषों में सभी कट्टर मनुवादी नहीं हुए। समय-समय पर अनेक पुरुष जिन्हेंहम 'महापुरुष' की भी संज्ञा देते हैं, मनुस्मृति की बुराइयों को पहचान करस्त्रियों को उनके मौलिक अधिकार दिलाने के लिए आगे आए और न केवल सिद्धांतसे अपितु व्यक्तिगत जीवन के द्वारा भी मनुस्मृति के सहअस्तित्व-विरोधीबातों का विरोध किया। इनमें एक महत्वपूर्ण नाम है बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर का। बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर आमतौरपर यही मान लिया जाता है कि बाबा साहब अंबेडकर समाज के दलित वर्ग केउद्धार के संबंध में क्रियाशील रहे अतः उन्होंने दलित वर्ग की स्त्रियों केविषय में ही चिंतन किया होगा। किंतु अंबेडकर राष्ट्र को एक नया स्वरूपदेना चाहते थे। एक ऐसा स्वरूप जिसमें किसी भी व्यक्ति को दलित जीवन न जीनापड़े। अंबेडकर की दृष्टि में वे सभी भारतीय स्त्रियां दलित श्रेणी में थींजो मनुवादी सामाजिक नियमों के कारण अपने अधिकारों से वंचित थीं। 19जुलाई 1942 को नागपुर में संपन्न हुई 'दलित वर्ग परिषद्' की सभा में डॉ. अंबेडकरने कहा था-‘नारी जगत्* की प्रगति जिस अनुपात में हुई होगी, उसी मानदंड सेमैं उस समाज की प्रगति को आंकता हूं।’ इसी सभा में डॉ. अंबेडकर ने ग़रीबीरेखासे नीचे जीवनयापन करने वाली स्त्रियों से आग्रह किया था कि- ‘आप सभी सफाई सेरहना सीखो, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाहकी जल्दी मत करो और अधिक संतानें पैदा नहीं करो। पत्नी को चाहिए कि वह अपने पतिके कार्य में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए। लेकिन यदिपति गुलाम के रूप में बर्ताव करे तो उसका खुल कर विरोध करो, उसकी बुरीआदतों का खुल कर विरोध करना चाहिए और समानता का आग्रह करना चाहिए।’ डॉ.अंबेडकर के इन विचारों को कितना आत्मसात किया गया, इसके आंकड़े घरेलू हिंसाके दर्ज आंकड़े ही बयान कर देते हैं। जो दर्ज़ नहीं होते हैं ऐसे भी हज़ारोंमामले हैं। सच तो यह है कि स्त्रियों के प्रति डॉ. अंबेडकर के विचारों कोहमने भली-भांति समझा ही नहीं। हमने उन्हें दलितों का मसीहा तो माना किंतुउनके मानवतावादी विचारों के उन पहलुओं को लगभग अनदेखा कर दिया जो भारतीयसमाज का ढांचा बदलने की क्षमता रखते हैं। नासिक-सत्याग्रह में डॉ. भीमराव अंबेडकर (सन् 1930-1935) डॉ.अंबेडकर ने हमेशा हर वर्ग की स्त्री की भलाई के बारे में सोचा। स्त्री काअस्तित्व उनके लिए जाति, धर्म के बंधन से परे था, क्योंकि वे जानते थे किप्रत्येक वर्ग की स्त्री की दशा एक समान है। इसीलिए उनका विचार था किभारतीय समाज में समस्त स्त्रियों की उन्नति, शिक्षा और संगठन के बिना, समाजका सांस्कृतिक तथा आर्थिक उत्थान अधूरा है। इसी ध्येय को क्रियान्वित करनेके लिए उन्होंने सन्* 1955 में 'हिंदू कोड बिल' तैयार किया। यही 'हिंदू कोड बिल' प्रत्येक तबके की स्त्रियों के अधिकारों का कानूनी दृष्टि से मूलभूत आधार बना। वस्तुतःयह स्त्रियों की दलित स्थिति को बदलने का घोषणापत्र था। इसके जरिएस्त्रियों को समान अधिकार और संरक्षण दिए जाने की पैरवी की। उन्होंने इसबात पर बल दिया कि स्त्रियों को संपत्ति, विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार, गोदलेने, बालिग स्त्री की अनुमति के बिना उसका विवाह न किए जाने का अधिकारदिया जाए। भारतीय संस्कृति में वैवाहिक संबंध परंपरागत मान्यताओं पर आधारितहोते हैं। इस परंपरागत आधार का अचानक टूटना सहजता से ग्राह्य नहीं हो सकताहै। डॉ.अंबेडकर का विचार था कि यदि स्त्री पढ़-लिख जाए तो वह पिछड़ेपन से स्वतः उबरजाएगी। आज स्त्रियों का बड़ा प्रतिशत साक्षर है, फिर भी वह अपनी दुर्दशा सेउबर नहीं पाई है। यह ठीक है कि आज गांव की पंचायतों से ले कर देश केसर्वोच्च पद तक स्त्री मौजूद है लेकिन इसे देश की सभी स्त्रियों की प्रगतिमान लेना ठीक उसी प्रकार होगा जैसे किसी प्यूरीफायर के छने पानी को देख करगंगा नदी के पानी को पूरी तरह स्वच्छ मान लिया जाए।
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