02-07-2011, 07:00 PM | #1 |
अति विशिष्ट कवि
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महबूबा ऐसी दिखती....!
मय -भरी आँख में ,पीने के संदेशे तैरें ;
चाँद से मुख पे जहाँ ,जुल्फ के बैठे पहरे . सिलवटें माथे की,गज़लों की पंक्तिया लगतीं ; रस -भरे होंठ,जैसे मिसरी की डलियां लगतीं. दांत मोती-जड़े से ,खिलखिलाते लगते हैं; कान की जगह पर ,दो सीप जड़े लगते हैं. चाल जिसकी चुरा के ,हिरन वन में इठलाते ; बदन की ख़ुश्बू से जिसकी ,गुलाब शर्माते . कमर बल खाए तो ,लहरों-सी अदा करती है ; जो अगर हँस दे तो ,सरगम - सी बजा करती है . निगाहे ताज महल भी,उसी पे अटकी है ; जिस्म ऐसा है , 'खजुराहो ' से जैसे भटकी है . जानना चाहती हो , कौन सी ' वीनस ' है वो ; मैं क्यों बताऊँ तुम्हें , आईने में देख लो खुद. रचनाकार ~~ डॉ. राकेश श्रीवास्तव लखनऊ,इंडिया. Last edited by Dr. Rakesh Srivastava; 03-07-2011 at 12:12 PM. |
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