10-05-2013, 07:48 PM | #1 |
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ऐ सरब...उल्ला, तेरे अंजाम पे रोना आया...
मुझे सुनकर अटपटा लगा। मेरे हिसाब से सरबजीत और सनाउल्ला दोनों की स्थिति एक जैसी है। दोनों दुश्मन देशों की जेलों में थे और दोनों पर आतंकवादी कार्रवाई में लिप्त होने का आरोप था। दोनों मुल्कों की अदालतों ने उनको दोषी ठहराया था। संयोग कि दोनों के नाम भी एक ही अक्षर से शुरू होते हैं। फिर क्यों सरबजीत और सनाउल्ला के मामले में हमारा रवैया बदल जाता है, हमारी भावनाएं बदल जाती हैं, हमारा व्याकरण बदल जाता है? ऊपर की तस्वीर देखिए। इसे देखकर आपके मन में क्या वही भाव आता है जो सरबजीत की ऐसी ही तस्वीर देखकर आता? सरबजीत पर जिन पाकिस्तानी कैदियों ने हमला किया, उनका चेहरा देखते ही हमारे मन में गुस्से का उबाल फूट पड़ता है लेकिन सनाउल्ला पर जिस हत्यारे पूर्व फौजी ने हमला किया, उसके लिए हमारे मन में घृणा नहीं उपजती। बल्कि मुझे तो लगता है, कई देशभक्त 'उन्हें' सच्चा और बहादुर भारतीय मानकर पूज भी रहे होंगे कि 'उन्होंने' सरबजीत की मौत का बदला ले लिया। मुझे याद है, जब गुजरात में दंगे हुए थे, तो हमारे ऑफिस में एक साथी एक-एक मुसलमान की मौत के बाद हर्षित हो उठता था लेकिन जब तक मारे गए मुसलमानों की संख्या ट्रेन में मारे गए हिंदुओं की संख्या से एक ज्यादा नहीं हुई, तब तक उसकी खुशी पूरी नहीं हुई थी। जैसे ही नंबर पार हुआ, वह बोल उठा - हां, अब बदला पूरा हुआ। जब से सरबजीत पर पाकिस्तानी जेल में हमला हुआ, हमारा मीडिया उन्हीं की खबरें चला रहा था। उनकी बहन दलबीर हर टीवी चैनल पर थीं। दलबीर की बातें ऐसी थीं कि सुनकर किसी का भी दिल भर आए। अंतिम संस्कार के दृश्य में उनकी बेटियों और पत्नी का रुदन कइयों को रुला गया होगा। लेकिन सोचिए, सनाउल्ला का भी तो पाकिस्तान में कोई परिवार था। उनके रिश्तेदार भी उनकी मौत पर गमज़दा होंगे। लेकिन हमारा जो दिल सरबजीत के अंजाम पर रोता है, उसे सनाउल्ला के अंजाम पर रोना क्यों नहीं आता, उनके परिवार के लिए क्यों नहीं दुखी होता? क्या उनके आंसुओं का मूल्य सरबजीत के परिजनों के आंसुओं से कम है? आंसुओं की नदियां, यहां भी, वहां भी। उदासी की शामें, यहां भी, वहां भी। नफरत की आग, प्रतिहिंसा की लपटें, नतीजा है मातम, यहां भी, वहां भी। नीरेंद्र नागर
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