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Old 28-11-2014, 10:37 PM   #1
rajnish manga
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Default कहानी: फ़ायदे की सलाह

फ़ायदे की सलाह
लेखक: रजनीश मंगा

वे महाविद्यालय के माने हुये लेक्चरर थे. अपने विषय के पंडित तो वे थे ही, वाक्पटु भी कम नहीं थे. संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को उनकी व्यवहारिक बुद्धि का लोहा मानना पड़ता था. अतः उनसे सलाह-मशविरा लेने वालों की कोई कमीं न थी. इसी कारण कभी कभी उन्हें एकाध पीरियड भी छोड़ देना पड़ता. इस प्रकार के सलाह-मशविरे को वे एक्स्ट्रा करीकुलर एक्टिविटी कहा करते थे.

उनके एक प्रशंसक श्रीमान ‘क’ के सम्मुख एक ऐसी समस्या आ खड़ी हुई जिसे वे सुलझा नहीं पा रहे थे. सो लेक्चरर महोदय के दर्शनों के लिये आ पहुँचे. अपने प्रशंसक (जिसे पुराने लोग चमचा भी कहते हैं) का मनोबल बढ़ाने के लिये उन्होंने कई दृष्टांत दे डाले. उसे समझाते हुये बोले –

“दूसरों का दिमाग पढ़ना सीखो बंधु ! कौन क्या सोच रहा है? क्या करेगा? कैसे करेगा? कब करेगा? यह जानने का अभ्यास करो. सफलता मिलेगी और जरुर मिलेगी.”
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Old 28-11-2014, 10:42 PM   #2
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Default Re: कहानी: फ़ायदे की सलाह

फ़ायदे की सलाह/ लेखक: रजनीश मंगा
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“यह भी योग की कोई विधि है क्या, सर?” प्रशंसक ने डिटेल मांगी.

“सुनो, हमारे बड़े लड़के ने हमारी मर्जी के खिलाफ शादी कर ली थी. शादी के तीन साल बाद ही तलाक के लिये कचहरी के चक्कर लगाने लगा. छोटे लड़के की शादी हमने खुद की. पति-पत्नी दोनों सुखी हैं. समधियों और होने वाली बहु के दिमाग की पूरी थाह ले कर ही मैंने रिश्ते की मंजूरी दी थी.”

“धन्य है .... धन्य है ... सर”

“आगे सुनो, भीड़ भाड़ वाली बसों में मेरा पहला काम यह होता है कि कौन साहब अगले स्टॉप पर उतरने वाले हैं. उनमे से किसी की सीट के पास जा कर खड़ा हो जाता हूँ. जैसे ही वह उठता है, हम सीट पर होते हैं.”

“यह मार्ग तो कुछ कठिन है, सर, कोयो दूसरा मार्ग बतायें.”

“हाँ, है क्यों नहीं? इसमें पहली विधि की भाँति साधना की आवश्यकता नहीं पड़ती. वह है जेब, पैसा यानी माल अर्थात् दौलत. यह काफी कारगर उपाय है.”

“आपकी सफलता का क्या राज़ है, गुरुदेव?” चमचे ने पूछा.
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Old 28-11-2014, 10:44 PM   #3
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Default Re: कहानी: फ़ायदे की सलाह

फ़ायदे की सलाह/ लेखक: रजनीश मंगा
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“ईश्वर का लाख लाख शुक्र है जिसने हमें दोनों मार्गों पर चलने की क्षमता प्रदान की है. दिमाग पढ़ने की भी और जेब की भी.”

“इन दोनों शिक्षाओं को धारण कर के वह प्रशंसक चला गया.

कुछ समय उपरांत किसी भीड़ भाड़ वाली बस से उतर कर लेक्चरर साहब ने महसूस किया कि उनकी जेब बहुत हल्की लग रही है. हाथ से टटोला तो जी धक् से रह गया. जेब कट चुकी थी. अब उसमे धेला तक न था. पाँच सौ रूपए तो खैर क्या निकलते, कागज़ का एक पुर्जा अवश्य निकला. लिखा था –

“आपकी कृपा से जेब पढ़ना सीख रहा हूँ. धन्यवाद.”

जब लेक्चरर साहब ने स्थिति का विश्लेषण किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उस प्रशंसक के मन में लेक्चरर साहब द्वारा दी गयी दोनों सलाहें गड्ड-मड्ड हो गयी थीं या कहें कि उनकी अदला-बदली हो गयी. बेचारा दिमाग पढ़ने की जगह जेब पढ़ने (काटने) लगा.

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