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Old 27-12-2014, 11:16 PM   #1
rajnish manga
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Default व्यक्तित्व के शत्रु

व्यक्तित्व के शत्रु

यदि हम गौर से देखेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि क्रोध, घमण्ड, अविश्वसनीयता, और प्रलोभन हमारे व्यक्तित्व को असरदार बनने नहीं देते. और इन चारों के अधीस्त जो भी दूषण आते है वे भी सभी मिलकर हमें नैतिकता के प्रति आस्थावान नहीं रहने देते.

ये सभी दोष, कम या ज्यादा सभी में होते है किंतु इनकी बहुत ही मामूली सी उपस्थिति भी विकारों को प्रोत्साहित करने में समर्थ होती है. इसलिए इनको एक्ट में न आने देना, इन्हे निरंतर निष्क्रिय करते रहना या नियंत्रण स्थापित करना ही व्यक्तित्व के लिए लाभदायक है. यदि हमें अपनी नैतिक प्रतिबद्धता का विकास करना है तो हमें इन कषायों पर विजय हासिल करनी ही पडेगी. इन शत्रुओं से शांति समझौता करना (थोडा बहुत चलाना) निदान नहीं है. इन्हें बलहीन करना ही उपाय है. इनका दमन करना ही एकमात्र समाधान है.
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Old 27-12-2014, 11:20 PM   #2
rajnish manga
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Default Re: व्यक्तित्व के शत्रु

व्यक्तित्व के शत्रु
क्रोध
आभार: हंसराज सुज्ञ

'मोह' वश उत्पन्न, मन के आवेशमय परिणाम को 'क्रोध' कहते है. क्रोध मानव मनका अनुबंध युक्त स्वभाविक भाव है. मनोज्ञ प्रतिकूलता ही क्रोध का कारण बनतीहै. अतृप्त इच्छाएँ क्रोध के लिए अनुकूल वातावरण का सर्जन करती है.क्रोधवश मनुष्य किसी की भी बात सहन नहीं करता. प्रतिशोध के बाद ही शांतहोने का अभिनय करता है किंतु दुखद यह कि यह चक्र किसी सुख पर समाप्त नहींहोता.

क्रोध कृत्य अकृत्य के विवेक को हर लेता है और तत्काल उसका प्रतिपक्षीअविवेक आकर मनुष्य को अकार्य में प्रवृत कर देता है. कोई कितना भी विवेकशीलऔर सदैव स्वयं को संतुलित व्यक्त करने वाला हो, क्रोध के जरा से आगमन केसाथ ही विवेक साथ छोड देता है और व्यक्ति असंतुलित हो जाता हैं। क्रोधसर्वप्रथम अपने स्वामी को जलाता है और बाद में दूसरे को. यह केवल भ्रम हैकि क्रोध बहादुरी प्रकट करने में समर्थ है, अन्याय के विरूद्ध दृढ रहने केलिए लेश मात्र भी क्रोध की आवश्यकता नहीं है. क्रोध के मूल में मात्रदूसरों के अहित का भाव है, और यह भाव अपने ही हृदय को प्रतिशोध से संचित करबोझा भरे रखने के समान है. उत्कृष्ट चरित्र की चाह रखने वालों के लिएक्रोध पूर्णतः त्याज्य है.


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Old 27-12-2014, 11:23 PM   #3
rajnish manga
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Default Re: व्यक्तित्व के शत्रु

व्यक्तित्व के शत्रु
आईए देखते है
महापुरूषों के कथनो में 'क्रोध' का यथार्थ.........

क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणाम” (माघ कवि) – मनुष्य का प्रथम शत्रु क्रोध है.



वैरानुषंगजनकः क्रोध” (प्रशम रति) - क्रोध वैर परम्परा उत्पन्न करने वाला है.

क्रोधः शमसुखर्गला” (योग शास्त्र) –क्रोध सुख शांति में बाधक है.

अपकारिणि चेत कोपः कोपे कोपः कथं न ते” (पाराशर संहिता) - हमारा अपकार करनेवाले पर क्रोध उत्पन्न होता है फिर हमारा अपकार करने वाले इस क्रोध पर क्रोध क्यों नहीं आता?


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Old 28-12-2014, 12:59 AM   #4
soni pushpa
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Default Re: व्यक्तित्व के शत्रु

क्रोध से होने वाले नुकसान की अच्छी व्याख्या की है आपने . महर्षियों द्वारा दिए गए उदहारण काफी रोचक हैं .. धन्यवाद रजनीश जी .
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Old 31-12-2014, 01:14 PM   #5
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Default Re: व्यक्तित्व के शत्रु

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Originally Posted by soni pushpa View Post
क्रोध से होने वाले नुकसान की अच्छी व्याख्या की है आपने . महर्षियों द्वारा दिए गए उदहारण काफी रोचक हैं .. धन्यवाद रजनीश जी .
सूत्र भ्रमण करने तथा विषयवस्तु को पसंद करने के लिए मैं आपका आभारी हूँ. महापुरुषों ने कहा है कि क्रोध का शमन करना न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि उसके ज़रिये समाज के लिए भी लाभकारी है.
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Old 31-12-2014, 01:18 PM   #6
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Default Re: व्यक्तित्व के शत्रु

महापुरुषों की दृष्टि में क्रोध

क्रोध और असहिष्णुता सही समझ के दुश्मन हैं.” - महात्मा गाँधी

क्रोध एक तरह का पागलपन है.” - होरेस

क्रोध मूर्खों के ह्रदय में ही बसता है.” - अल्बर्ट आइन्स्टाइन

क्रोध वह तेज़ाब है जो किसी भीचीज जिसपर वह डाला जाये ,से ज्यादा उस पात्र को अधिक हानिपहुंचा सकता है जिसमे वह रखा है.” - मार्क ट्वेन

क्रोध को पाले रखना गर्म कोयले को किसी और पर फेंकने की नीयत से पकडे रहने के सामान है; इसमें आप ही जलते हैं.” - महात्मा बुद्ध


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Old 31-12-2014, 01:25 PM   #7
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Default Re: व्यक्तित्व के शत्रु

महापुरुषों की दृष्टि में क्रोध

मूर्ख मनुष्य क्रोध को जोर-शोर से प्रकट करता है, किंतु बुद्धिमान शांति से उसे वश में करता है।” - बाइबिल

जब क्रोध आए तो उसके परिणाम पर विचार करो।” - कन्फ्यूशियस

जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं करता और क्षमा करता है वह अपनी और क्रोध करनेवाले की महासंकट से रक्षा करता है।” - वेदव्यास

क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात नहीं कहता, वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।” - प्रेमचंद

जिस तरह उबलते हुए पानी में हम अपना, प्रतिबिम्ब नहीं देख सकते उसीतरह क्रोध की अवस्था में यह नहीं समझ पाते कि हमारी भलाई किस बात में है।” - महात्मा बुद्ध


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Default Re: व्यक्तित्व के शत्रु

महापुरुषों की दृष्टि में क्रोध

क्रोध को आश्रय देना, प्रतिशोध लेने की इच्छा रखना अनेक कष्टों का आधार है.जो व्यक्ति इस बुराई को पालते रहते है वे जीवन के सुख और आनंद से वंचित रहजाते है. वे दूसरों के साथ मेल-जोल, प्रेम-प्रतिष्ठा एवं आत्म-संतोष सेकोसों दूर रह जाते है. परिणाम स्वरूप वे अनिष्ट संघर्षों और तनावों के आरोहअवरोह में ही जीवन का आनंद मानने लगते है. उसी को कर्म और उसी कोपुरूषार्थ मानने के भ्रम में जीवन बिता देते है.

क्रोध को शांति व क्षमा से ही जीता जा सकता है. क्षमा मात्र प्रतिपक्षी केलिए ही नहीं है, स्वयं के हृदय को तनावों और दुर्भावों से क्षमा करके मुक्त करना है. बातों को तूल देने से बचाने के लिए उन बातों को भुला देना खुद परक्षमा है. आवेश की पद्चाप सुनाई देते ही, क्रोध प्रेरक विचार को क्षमा करदेना, शांति का उपाय है. सम्भावित समस्याओं और कलह के विस्तार को रोकने काउद्यम भी क्षमा है. किसी के दुर्वचन कहने पर क्रोध न करना क्षमा कहलाता है।हमारे भीतर अगर करुणा और क्षमा का झरना निरंतर बहता रहे तो क्रोध कीचिंगारी उठते ही शीतलता से शांत हो जाएगी. क्षमाशील भाव को दृढ बनाए बिनाअक्रोध की अवस्था पाना दुष्कर है.


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Default Re: व्यक्तित्व के शत्रु

व्यक्तित्व के शत्रु
मोह व अहंकार
आभार: हंसराज सुज्ञ

मोह वश रिद्धि, सिद्धि, समृद्धि, सुख और जाति आदि पर अहम् बुद्धि रूप मन के परिणाम को "मान" कहते है. मद, अहंकार, घमण्ड, गारव, दर्प, ईगो और ममत्व(मैं) आदि मानके ही स्वरूप है. कुल, जाति, बल, रूप, तप, ज्ञान, विद्या, कौशल, लाभ, और ऐश्वर्य पर व्यक्ति 'मान' (मद) करता है.

मान वश मनुष्य स्वयं को बड़ा व दूसरे को तुच्छ समझता है. अहंकार के कारण व्यक्ति दूसरों के गुणों को सहन नहीं करता और उनकी अवहेलना करता है. घमण्डसे ही मैंपर घनघोर आसक्ति पैदा होती है. यही दर्प, ईर्ष्या का उत्पादक है. गारव के गुरुतर बोझ से भारी मन, अपने मान की रक्षा के लिए गिर जाता है. प्रशंसा, अभिमान के लिए ताजा चारा है. जहां कहीं भी व्यक्ति का अहंकार सहलाया जाता है गिरकर उसी व्यक्ति की गुलामी को विवश हो जाता है. अभिमानस्वाभिमान को भी टिकने नहीं देता. अहंकार वृति से यश पाने की चाह, मृगतृष्णा ही साबित होती है. दूसरे की लाईन छोटी करने का मत्सर भाव इसी सेपैदा होता है.



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व्यक्तित्व के शत्रु / मोह व अहंकार

आईए देखते है महापुरूषों के कथनों में मान (अहंकार) का स्वरूप....

"अहंकारो हि लोकानाम् नाशाय न वृद्ध्ये." (तत्वामृत) – अहंकार से केवल लोगों का विनाश होता है, विकास नहीं होता.


"अभिमांकृतं कर्म नैतत् फल्वदुक्यते." (महाभारत पर्व-12) – अहंकार युक्त किया गया कार्य कभी शुभ फलद्रुप नहीं हो सकता.


"मा करू धन जन यौवन गर्वम्". (शंकराचार्य) – धन-सम्पत्ति, स्वजन और यौवन का गर्व मत करो. क्योंकि यह सब पुण्य प्रताप से ही प्राप्त होता है और पुण्य समाप्त होते ही खत्म हो जाता है.


"लुप्यते मानतः पुंसां विवेकामललोचनाम्." (शुभचंद्राचार्य) – अहंकार से मनुष्य के विवेक रूप निर्मल नेत्र नष्ट हो जाते है.


"
चरित्र एक वृक्ष है और मान एक छाया। हम हमेशा छाया की सोचते हैं; लेकिन असलियत तो वृक्ष ही है।" -अब्राहम लिंकन


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