04-06-2016, 02:49 AM | #1 |
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5 जून विश्व पर्यावरण दिवस
Last edited by rajnish manga; 15-06-2016 at 05:04 PM. |
15-06-2016, 05:01 PM | #2 |
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Re: 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस
विश्व पर्यावरण दिवस (World Environment Day)
साभार: कृष्ण गोपाल 'व्यास’ .सारी दुनिया में 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस दिन लोग स्टाकहोम, हेलसेंकी, लन्दन, विएना, क्योटो जैसे सम्मेलनों और मॉन्ट्रियल प्रोटोकाल, रियो घोषणा पत्र, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम इत्यादि को याद करते हैं। गोष्ठियों में सम्पन्न प्रयासों का लेखाजोखा पेश किया जाता है। अधूरे कामों पर चिन्ता व्यक्त की जाती है। समाज का आह्वान किया जाता है। लोग कहते हैं कि इतिहास अपने को दोहराता है। कुछ लोगों का मानना है कि इतिहास से सबक लेना चाहिए। इन दोनों वक्तव्यों को ध्यान में रख पर्यावरण दिवस पर धरती के इतिहास के पुराने पन्नों को पर्यावरण की नजर देखना-परखना या पलटना ठीक लगता है। इतिहास के पहले पाठ का सम्बन्ध डायनासोर के विलुप्त होने से है। वैज्ञानिक बताते हैं कि लगभग साढ़े छह करोड़ साल पहले धरती पर डायनासोरों की बहुतायत थी। वे ही धरती पर सबसे अधिक शक्तिशाली प्राणी थे। फिर अचानक वे अचानक विलुप्त हो गए। अब केवल उनके अवशेष ही मिलते हैं। उनके विलुप्त होने का सबसे अधिक मान्य कारण बताता है कि उनकी सामुहिक मौत आसमान से आई। लगभग साढ़े छह करोड़ साल पहले धरती से एक विशाल धूमकेतु या छुद्र ग्रह टकराया। उसके धरती से टकराने के कारण वायुमण्डल की हवा में इतनी अधिक धूल और मिट्टी घुल गई कि धरती पर अन्धकार छा गया। सूरज की रोशनी के अभाव में वृक्ष अपना भोजन नहीं बना सके और अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। भूख के कारण उन पर आश्रित शाकाहार डायनासोर और अन्य जीवजन्तु भी मारे गए। संक्षेप में, सूर्य की रोशनी का अभाव तथा वातावरण में धूल और मिट्टी की अधिकता ने धरती पर महाविनाश की इबारत लिख दी। यह पर्यावरण प्रदूषण का लगभग साढ़े छह करोड़ साल पुराना किस्सा है। आधुनिक युग में वायु प्रदूषण, जल का प्रदूषण, मिट्टी का प्रदूषण, तापीय प्रदूषण, विकरणीय प्रदूषण, औद्योगिक प्रदूषण, समुद्रीय प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण, नगरीय प्रदूषण, प्रदूषित नदियाँ और जलवायु बदलाव तथा ग्लोबल वार्मिंग के खतरे लगातार दस्तक दे रहे हैं। ऐसी हालत में इतिहास की चेतावनी ही पर्यावरण दिवस का सन्देश लगती है। पिछले कुछ सालों में पर्यावरणीय चेतना बढ़ी है। विकल्पों पर गम्भीर चिन्तन हुआ है तथा कहा जाने लगा है कि पर्यावरण को बिना हानि पहुँचाए या न्यूनतम हानि पहुँचाए टिकाऊ विकास सम्भव है। यही बात प्राकृतिक संसाधनों के सन्दर्भ में कही जाने लगी है। कुछ लोग उदाहरण देकर बताते हैं कि लगभग 5000 साल तक खेती करने, युद्ध सामग्री निर्माण, धातु शोधन, नगर बसाने तथा जंगलों को काट कर बेवर खेती करने के बावजूद अर्थात विकास और प्राकृतिक संसाधनों के बीच तालमेल बिठाकर उपयोग करने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास नहीं हुआ था। तो कुछ लोगों का कहना है कि परिस्थितियाँ तथा आवश्यकताओं के बदलने के कारण भारतीय उदाहरण बहुत अधिक प्रासंगिक नहीं है। फासिल ऊर्जा के विकल्प के तौर स्वच्छ ऊर्जा जैसे अनेक उदाहरण अच्छे भविष्य की उम्मीद जगाते हैं। सम्भवतः इसी कारण विश्वव्यापी चिन्ता इतिहास से सबक लेती प्रतीत होती है। पर्यावरण को हानि पहुँचाने में औद्योगीकरण तथा जीवनशैली को जिम्मेदार माना जाता है। यह पूरी तरह सच नहीं है। हकीक़त में समाज तथा व्यवस्था की अनदेखी और पर्यावरण के प्रति असम्मान की भावना ने ही संसाधनों तथा पर्यावरण को सर्वाधिक हानि पहुँचाई है। उसके पीछे पर्यावरण लागत तथा सामाजिक पक्ष की चेतना के अभाव की भी भूमिका है। इन पक्षों को ध्यान में रख किया विकास ही अन्ततोगत्वा विश्व पर्यावरण दिवस का अमृत होगा। डायनासोर यदि आकस्मिक आसमानी आफत के शिकार हुए थे तो हम अपने ही द्वारा पैदा की आफ़त की अनदेखी के शिकार हो सकते है। विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर यह अपेक्षा करना सही होगा कि रेत में सिर छुपाने के स्थान पर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये स्वच्छ तकनीकों को आगे लाया जाना चाहिए, गलत तकनीकों को नकारा जाना चाहिए या सुधार कर सुरक्षित बनाया जाना चाहिए। उम्मीद है, कम-से-कम भारत में ज़मीनी हकीक़त का अर्थशास्त्र उसकी नींव रखेगा। शायद यही इतिहास का भारतीय सबक होगा।
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15-06-2016, 05:02 PM | #3 |
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Re: 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस
आने वाला विश्व पर्यावरण दिवस का त्यौहार
साभार: रमन त्यागी गंगा नदी मैली और संकरी हो रही है। देश कि अन्य छोटी व मझली नदियों को तो बीझन लग गई है। धरती के सीने में अमृत समान जल को अधिक से अधिक बाहर खींचने की होड़ मची है। पेड़ों पर कुल्हाड़ा चल रहा है जिससे जंगल सिमट रहे हैं। पानी बचाने के स्रोत उनकी औलाद ने ही मिटा दिए हैं जिन्होंने उन्हें सींचा था। खान-पान जहरीला हो गया है। शुभ-लाभ में से शुभ गायब करके लाभ कमाने वाले उद्योग बंधु साफ पीने और सिंचाई के पानी में जहर मिलाने से हिचकर ही नहीं रहे हैं।एक बार फिर विश्व पर्यावरण दिवस का उत्सव मनाने की तैयारी चल रही है। सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाएं व मीडिया अपने-अपने तरीके से विश्व पर्यावरण के त्यौहार को मनाने की चिंता में डूबे हैं। समाज का एक वह वर्ग जो अपने आपको समाजसेवी व जागरूक कहलाना पसंद करता है भी पर्यावरण के चिंतन में गमगीन है। यह वर्ग उस बरसाती मेंढक की तरह कुछ विशेष दिनों में ही प्रकट होते हैं जोकि बरसात में ही बाहर आता है और कतई पीला जर्द रंग का होता है। राज्य सरकारें और केंद्र सरकार यहां तक कि विश्व के सभी देशों की सरकारें पर्यावरण उत्सव को सेलीब्रेट करने के विभिन्न माध्यमों से पैसा लुटाएंगी। अधिकतर स्वयंसेवी संगठन विशेषतौर पर इन विशेष दिनों का इंतजार करते हैं और जुगाड़ लगाते फिरते हैं कि पर्यावरण की चिंता करने के लिए कहीं से पैसा पल्ले पड़ जाए। अगर कहीं से पैसा झटक लिया तो उस दिन बहुत सारे दिखवटी टोटके करेंगे व बहुत बड़े पर्यावरणविद् कहलाने से गुरेज नहीं करेंगे और अगर सरकार, दानदाता संस्थाओं व पर्यावरण के लुटेरे उद्योगपतियों ने पैसा नहीं दिया तो ताना मारेंगे कि उन्हें पर्यावरण की चिंता ही कहां है? खबरनवीसों की अपनी अलग दुनिया है, हालांकि सभी क्षेत्रों की गिरावट का कुछ असर यहां भी दिखता है, लेकिन फिर भी एक सकारात्मक संदेश समाज तक पहुंचाने में ये कामयाब हो ही जाते हैं। अपनी बात को आंकड़ों में न उलझाकर सीधे-सपाट अगर कहूं तो गंगा नदी मैली और संकरी हो रही है। देश कि अन्य छोटी व मझली नदियों को तो बीझन लग गई है। धरती के सीने में अमृत समान जल को अधिक से अधिक बाहर खींचने की होड़ मची है। पेड़ों पर कुल्हाड़ा चल रहा है जिससे जंगल सिमट रहे हैं। पानी बचाने के स्रोत उनकी औलाद ने ही मिटा दिए हैं जिन्होंने उन्हें सींचा था। खान-पान जहरीला हो गया है। शुभ-लाभ में से शुभ गायब करके लाभ कमाने वाले उद्योग बंधु साफ पीने और सिंचाई के पानी में जहर मिलाने से हिचकर ही नहीं रहे हैं। यहां तक कि अन्नदाता किसान कैसा मदमस्त हुआ है कि जहरीला अन्न स्वयं भी खा रहा है और दूसरों को भी परोस रहा है। उपरोक्त बातें अपने अनुभव से सीखते हुए मन की पीड़ा बरकरार है कि आखिर क्या ऐसे ही प्रत्येक वर्ष पर्यावरण बचाने का दिखावा चलता रहेगा? आखिर हम कैसे दुखियारे हो गए हैं कि एक-दूसरे से ही पृथ्वी बचाने का रोना रोत रहते हैं? कुछ ऐसा ठोस करने पर कौन और कब ध्यान देगा? क्या हमारी सरकारें गंभीर चिंतन कर पाएंगी? क्या स्वयंसेवी संगठन अपनी ही सेवा करते रहेंगे? क्या फैशन का टोकरा सिर पर धरे चन्द पर्यावरणविद् प्रत्येक वर्ष ऐसे ही अखबारों की सुर्खियां बनते रहेंगे? आखिर समाधान कैसे होगा? आखिर सरकारें क्यों नहीं पूरे देश के तालाब खाली करा देती हैं? क्यों नहीं शहरों में वर्षाजल संरक्षण न करने वाले को कानून और देश का अपराधी घोषित कर दिया जाता है? आखिर क्यों नहीं प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक वर्ष मात्र एक पेड़ लगाना कानूनन बाध्य कर देती है? क्यों नहीं गंगा जैसी संस्कृति को समाप्त करने पर उतारू भेड़ियों पर लगाम कसी जाती है? इन तथाकथित स्वयंसेवी संगठनों पर भी लगाम कसने का समय है कि आखिर ये समाज के नाम का पैसा हजम क्यों कर जाते हैं? पर्यावरण की ही इतनी अधिक समस्याएं हैं कि अगर हम आगामी एक हजार वर्ष तक भी इसी तरह से दिखावटी विश्व पर्यावरण दिवस मनाते रहे तो भी समाधान संभव नहीं है। वक्त कुछ करने का है न कि सोचने का।
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23-06-2016, 01:52 AM | #4 |
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Re: 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस
Bahut bahut dhanywd bhai is aalekh ko edit karne ke liye
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