25-06-2012, 08:47 AM | #51 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
आपको हमेशा अपने गुणो और शक्ति की पहचान रहनी चाहिए। इसके बाद आपको यह फैसला करना चाहिए कि आपका विशेषज्ञ ज्ञान कहां उपयोगी हो सकता है। हो सकता है, आप कंप्यूटर्स या अन्य प्रौद्योगिकी में बहुत निपुण हों या आप बहुत रचनात्मक हों और बहुत सी ऐसी उपयोगी चीजें जानते हों, जिन्हें दूसरे नहीं जानते। उदाहरण के लिए एक कंपनी में एक कर्मचारी प्रिंट बिजनेस को अंदर से बाहर तक पूरी तरह जानता है। प्रिंटिंग के काम की जरूरत पड़ने पर बॉस हमेशा उसी के पास जाते थे। इससे उसकी एक खास जगह बन गई और उसे इसका फायदा भी मिला अर्थात ढेरों ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें आप निपुण हो सकते हैं और उस क्षेत्र में आगे जा सकते हैं। यह फाइनेंस का क्षेत्र भी हो सकता है। आप चाहे जिस क्षेत्र में विशेषज्ञ बनने का फैसला करें; बस, यह सुनिश्चित कर लें कि वह क्षेत्र प्रासंगिक हो, स्थानीय हो और इतना रोचक हो कि उसमें काम करते वक्त आप उसमें रम जाएं। इस तरह आपकी सेवाओं की जरूरत पड़ने पर दूसरे लोग आपके पास आएंगे। अगर आप कोई ऐसी चीज जानते हैं, जिसे वे नहीं जानते, तो तय मानिए आप सिर्फ एक कर्मचारी नहीं रह जाएंगे। आप परामर्शदाता बन जाएंगे। इसे एक और उदाहरण से समझा जा सकता है। एक बार एक आदमी ने अपने शहर के रात्रिकालीन जीवन को जानने का बीड़ा उठाया। उसने रात में चलने वाले रेस्तरां, नाइट-क्लब, थिएटर और इसी तरह की सभी चीजों की जानकारी जुटाई। उससे जुड़े लोगों को यह पहले तो थोड़ा अप्रासंगिक लगा, लेकिन जब उसकी कंपनी के बाहर के ग्राहक आकर रात में रुकने लगे, तो उसने अपनी विशेषज्ञता के चलते उन पर अपना सिक्का जमा लिया। उन्हें शाम को घुमाने ले जाने लगा, खाते-पीते वक्त उनके साथ रहने लगा और एक बार जब वह इस स्तर पर बॉस लोगों के साथ उठने-बैठने लगा, तो उसे भी उनकी जमात में शामिल होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। उसे पदोन्नति ही नहीं मिली, बल्कि कम्पनी में उसकी एक ख़ास जगह बन गई।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
28-06-2012, 01:01 PM | #52 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सत्य का साथ इस हद तक दें
सेंट स्टीफंस कॉलेज के प्रिंसिपल का पद खाली था। इस पद के लिए चयनकर्ताओं के सामने दो उम्मीदवार के नाम थे। पहले दीनबंधु एंड्रयूज और दूसरे प्रोफेसर सुशील कुमार रूद्र । निश्चित तारीख को दोनों उम्मीदवार साक्षात्कार के लिए उपस्थित हुए। प्रोफेसर रुद्र काफी प्रतिभावान थे और उनकी प्रतिभा से दीनबंधु पहले से ही काफी प्रभावित थे। चयन समिति के प्रमुख लाहौर के लेफ्राय थे। उन्होंने दीनबंधु एंड्रयूज को पास बुलाकर कहा - मिस्टर एंड्रयूज, आप यह तो जानते ही हैं कि चयन आप दोनों में से ही किसी एक का होना है। आप इस प्रतियोगिता में अपने को विजयी समझकर कार्यभार संभालने के लिए पूरी तरह तैयार रहिए, क्योंकि कोई भी भारतीय इस कॉलेज में अनुशासन नहीं रख सकेगा और अन्य प्राध्यापक भी उसे वह सम्मान नहीं दे सकेंगे, जो इस कॉलेज के एक प्रिंसिपल को मिलना चाहिए। इसलिए मेरी राय तो यही है कि प्रिंसिपल पद के लिए किसी अंग्रेज की नियुक्ति ही ठीक रहेगी। इस पक्षपातपूर्ण निर्णय को सुनकर दीनबंधु पहले तो काफी चौंक गए, लेकिन वे चुप न रह सके। वे लेफ्राय की इस रंगभेद की नीति के कारण बुरी तरह से तिलमिला उठे। उन्होंने बेहद नाराजगी भरे शब्दों में लेफ्राय से कहा - सर, यह आप नहीं, आप पर सवार रंगभेद की नीति बोल रही है। क्या आप प्रोफेसर रुद्र की योग्यताओं से परिचित नहीं हैं ? वे भारतीय हैं, तो क्या हुआ, योग्यताओं के तो वे धनी हैं। सब दृष्टि से उनका ही प्रिंसिपल रहना उचित है। उनकी योग्यता ही ऐसी है कि कॉलेज के सभी लोग उनका भरपूर सम्मान करेंगे। यदि आप ऐसा नहीं मानते हैं, तो मैं अभी अपने पद से त्यागपत्र देता हूं और प्रिंसिपल पद की उम्मीदवारी से अपना नाम वापस लेता हूं। जब आप को एक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने के लिए समिति में रखा गया है, तो चयन में अपना न्याय दीजिए। शायद आप नहीं जानते कि रंगभेद की दृष्टि से पक्षपातपूर्ण निर्णय देने पर अच्छे परिणामों की आशा नहीं की जा सकती। अंत में प्रिंसिपल के लिए प्रोफेसर रुद्र को चुन लिया गया।
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28-06-2012, 01:05 PM | #53 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सिक्के के दोनों पहलू देखें
आम तौर पर देखते हैं कि लोग इकतरफा ही सोचते हैं। हमें हमेशा सिक्के के दोनों पहलुओं को देखने की आदत डालनी चाहिए। उदाहरण के लिए आम तौर पर कार्यालयों में बहुत से कर्मचारियों का नजरिया प्रबंधन के प्रति नकारात्मक होता है। उन्हें कर्मचारियों का पक्ष लेना और प्रबंधन को भला बुरा कहना ही हमेशा अच्छा लगता है, लेकिन आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। हमेशा अपना सही नजरिया विकसित करें और इस तरह की मानसिकता वाले नहीं बने कि हमें बस, विरोध के लिए ही विरोध करना है। आपको हर स्थिति के दोनों पहलुओं का अध्ययन करना चाहिए। आपको अपनी के साथ-साथ दूसरों की स्थिति को समझना भी सीखना होगा। हो सकता है कार्यालय में आपके सहकर्मी प्रबंधन की नीति के बारे में शिकवे-शिकायत करें, लेकिन आप निष्पक्षता से पहले हालात का विश्लेषण करें। समझदारी भरा कदम तो यह होता है कि हमेशा सहमति में सिर हिलाएं, खुद कभी शिकायत न करें। सही नजरिए का मतलब है, सबसे अच्छी कोशिश करना। केवल एक दिन के लिए नहीं, बल्कि हर दिन अच्छी कोशिश करें। सही नजरिए के दम पर आप मीलों आगे जा सकते हैं। हमेशा सिर उठाकर जिएं, कभी शिकायत न करें, हमेशा सकारात्मक तथा उत्साही रहें और लगातार फायदों की तलाश करते रहें। सही नजरिया है, मानदंड विकसित करना और उन पर अडिग रहना। इसका मतलब है अपना लाभ सुनिश्चित करना और यह जानना कि किस मुद्दे पर आगे आने की जरूरत है। सही नजरिया इस बारे में जागरूक रहने से संबंधित है कि आपके पास बहुत ज्यादा शक्ति है और आप इस शक्ति का इस्तेमाल दयालुता, संयम, विनम्रता और विचारशीलता के साथ करेंगे। आप किसी को नीचा नहीं दिखाएंगे। आप बेरहम या शोषक नहीं बनेंगे। आप नैतिकता के उच्च धरातल पर रहेंगे और अपनी छवि बेदाग रखेंगे। सही नजरिए का मतलब यह है कि आप अच्छा बनने के साथ तीव्र गति वाले बनें ।
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28-06-2012, 11:22 PM | #54 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
टीम भावना बनाती है महान
आपकी या आपसे जुड़ी टीम क्या है और यह कैसे काम करती है? सफल नेतृत्व करने के लिए हमें इन सवालों के जवाब मालूम होने चाहिए। टीम सिर्फ लोगों का समूह ही नहीं होती है। यह तो एक ऐसा संगठन है, जिसकी अपनी खुद की शक्तियां, गुण और परंपराएं होती हैं। इन्हें जाने बगैर आप लड़खड़ा जाएंगे, लेकिन इन्हें जानकर आप अपनी टीम के साथ महानता के शिखर पर पहुंच सकते हैं। हर टीम में तरह-तरह के लोग होते हैं, जो अलग-अलग दिशाओं में और अलग-अलग शक्ति से धक्का देते हैं। कुछ ज्यादा तेजी से कंधा मारकर आगे निकलने के चक्कर में रहते हैं। कुछ पीछे से दूसरों को धक्का मारकर ही खुश हो लेते हैं। बाकी लोग सोचने के अलावा कुछ भी करते नजर नहीं आते हैं, लेकिन आपको विचारों के लिए उनकी जरूरत होती है। अगर आपने अब तक टीम की शक्तियों पर गौर नहीं किया हो, तो आप मेरिडिथ बेल्बिन की 'मैनेजमेंट टीम्स - व्हाई दे सक्सीड ऑर फेल' पढ़ लें। यह उन मैनेजरों के लिए हैं, जो अपने प्रमुख कर्मचारियों से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करवाकर परिणाम हासिल करना चाहते हैं। बेल्बिन का कहना है कि टीम में नौ भूमिकाएं होती हैं - और हम सभी इनमें से एक या ज्यादा भूमिकाएं निभाते हैं। हां, अपनी भूमिका को पहचानना मजेदार है, लेकिन ज्यादा उपयोगी यह है कि आप अपनी टीम की भूमिका पहचानें और फिर उस आधार पर काम भी करें। टीम एक ऐसा समूह है, जहां सभी सदस्य किसी सामूहिक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करते हैं। कोई भी टीम अच्छी तरह काम नहीं कर सकती, अगर उसका हर सदस्य अपने व्यक्तिगत लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर रहा हो, चाहे वह ऑफिस की छुट्टी का इंतजार हो, व्यक्तिगत तरक्की हो, बॉस की चापलूसी करना हो या ऑफिस में सिर्फ दिल बहलाना हो। जब आप ‘मैं’ और ‘मैंने’ से ज्यादा बार ‘हम’ और ‘हमने’ सुनेंगे, तो आप जान जाएंगे कि आपके पास टीम है।
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28-06-2012, 11:30 PM | #55 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अपने कामों का बखान
एक बार एक डाकू गुरु नानकदेवजी के पास आया और चरणों में माथा टेकते हुए बोला - मैं डाकू हूं और रोज-रोज की चोरी और डाका डालने वाली अपनी जिंदगी से तंग आ गया हूं। मैं सुधरना चाहता हूं। आप मेरा मार्गदर्शन कीजिए, मुझे अंधकार से उजाले की ओर ले चलिए। मैं अपनी जिंदगी को कैसे सुधारूं? नानकदेवजी ने कहा - तुम आज से चोरी करना और झूठ बोलना छोड़ दो। सब अपने आप ही ठीक हो जाएगा। डाकू नानकदेवजी को प्रणाम करके चला गया। कुछ दिनों बाद वह फिर आया और कहने लगा - मैंने झूठ बोलने और चोरी से मुक्त होने का बेहद प्रयत्न किया, किंतु मुझसे ऐसा नहीं हो सका। मैं चाहकर भी अपने आप को बदल नहीं सका। आप मुझे उपाय अवश्य बताइए। गुरु नानक सोचने लगे कि इस डाकू को सुधरने का क्या उपाय बताया जाए। उन्होंने अंत में कहा - तुम्हारे मन में जो आए करो, लेकिन दिन भर झूठ बोलने, चोरी करने और डाका डालने के बाद शाम को लोगों के सामने किए हुए अपने कामों का बखान कर दो। डाकू को यह उपाय काफी सरल जान पड़ा। इस बार डाकू पलटकर नानकदेवजी के पास नहीं आया, क्योंकि जब वह दिन भर चोरी आदि करता और शाम को जिसके घर से चोरी की है, उसकी चौखट पर यह सोचकर पहुंचता कि नानकदेवजी ने जो कहा था कि तुम अपने दिनभर के कर्म का बखान करके आना, लेकिन वह अपने बुरे कामों के बारे में बताते में बहुत संकोच करता और आत्मग्लानि से पानी-पानी हो जाता। वह बहुत हिम्मत करता कि मैं सारे काम बता दूं, लेकिन वह नहीं बता पाता। हताश - निराश मुंह लटकाए वह डाकू एक दिन अचानक नानकदेवजी के सामने आया। अब तक न आने का कारण बताते हुए उसने कहा - मैंने तो उस उपाय को बहुत सरल समझा था, लेकिन वह तो बहुत कठिन निकला। लोगों के सामने अपनी बुराइयां कहने में लज्जा आती है। अत: मैंने बुरे काम करना ही छोड़ दिया। नानकदेवजी ने उसे कहा - अब तुम अपराधी नहीं रहे। अब तुम एक अच्छे और बेहतर इंसान हो। याद रखना, अपना जो कार्य अन्यों को बताने में लज्जा का अनुभव हो, वही पाप है। तुम जब तक यह स्मरण रखोगे, बुराई की तरफ कभी नहीं जाओगे। ज़ाहिर है, वह फिर कभी बुराई की ओर नहीं गया।
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30-06-2012, 03:23 PM | #56 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
मन के जीते जीत है
जीवन में परिस्थितियां बदलती रहती है। सफलता-विफलता, हानि-लाभ, जय-पराजय के अवसर मौसम के समान हैं। कभी कुछ स्थिर नहीं रहता। जिस तरह इंद्रधनुष के बनने के लिए बारिश और धूप दोनों की जरूरत होती है, उसी तरह एक पूर्ण व्यक्ति बनने के लिए हमें भी जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों से होकर गुजरना पड़ता है। जीवन में सुख भी है, दु:ख भी है। अच्छाई भी है, बुराई भी है। जहां अच्छा वक्त हमें खुशी देता है, वहीं बुरा वक्त हमें मजबूत बनाता है। हम अपनी जिन्दगी की सभी घटनाओं पर नियंत्रण नहीं रख सकते, पर उनसे निपटने के लिए सकारात्मक सोच के साथ सही तरीका तो अपना ही सकते हैं। कई लोग अपनी पहली नाकामी से इतना परेशान हो जाते हैं कि लक्ष्य ही छोड़ देते हैं। कभी-कभी तो अवसाद में चले जाते हैं। अब्राहम लिंकन भी अपने जीवन में कई बार नाकाम हुए और अवसाद में भी गए, किन्तु साहस और सहनशीलता के गुण ने उन्हें सफलता दिलाई। अनेक चुनाव हारने के बाद 52 वर्ष की उम्र में अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए। हर रात के बाद सुबह होती है। जिन्दगी हंसाती भी है, रुलाती भी है। जो हर हाल में आगे बढ़ने की चाह रखते हैं, जिन्दगी उन्हीं के आगे सर झुकाती है। हम जो भी कार्य करना चाहते हैं, उसकी शुरुआत करें, आने वाली बाधाओं के बारे में सोच कर बैठ न जाएं। कई लोग सफल तो होना चाहते हैं, किन्तु थोड़ी सी कठिनाई अथवा विफलता से परेशान हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि हम तो ये नहीं कर सकते या मुझसे ये नहीं हो सकता। ऐसा कौन सा काम है, जो इंसान नहीं कर सकता। हम ये क्यों नहीं सोचते कि हम ये काम कर सकते हैं और आज नहीं तो कल अपना लक्ष्य जरूर हासिल कर लेंगे।यदि हम बीच में रुक गए, तो हमेशा मन में अफसोस रहेगा कि काश, हमने कोशिश की होती। अधूरे छूटे कार्य हमें हमेशा कमजोर होने का अहसास दिलाते हैं। जो लोग ईमानदारी से सोचते हैं, वे बाधाओं से उबरने के तरीके तलाशते हैं। वे भले ही विफल हो जाएं, पर सफल होने की चाह उनको नए तरीकों से आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहती है।
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30-06-2012, 03:28 PM | #57 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
मिट्टी जैसी मुश्किलें
एक गांव में दो दोस्त रहते थे। एक का नाम राम था और दूसरे का श्याम। दोनों ही काफी गरीब थे। सुबह का खाना खा लेते थे, तो शाम के खाने का ठिकाना नहीं रहता था। रहने को पक्का घर भी नहीं था। सर्दी, गर्मी और बरसात में उन्हें परेशानी ही परेशानी झेलनी पड़ती थी। उस गांव में ऐसा कोई काम भी नहीं था कि वे दोनों कुछ कमा कर अपना गुजारा कर पाते। बेहद परेशान होकर दोनों ने गांव से सटे शहर में जाकर वहां कोई काम धंधा करने की सोची। दोनों ही शहर पहुंच गए। कुछ दिनों तक दोनों काम की तलाश में भटकते रहे। राम को एक अच्छा काम मिल गया, लेकिन श्याम मेहनती नहीं था, अतः छोटा-मोटा काम करने लगा। राम और श्याम शहर से कमाकर पैसे लेकर घर लौट रहे थे। अपनी मेहनत से राम ने तो खूब पैसे कमाए थे, जबकि अपनी आदत के कारण श्याम कम ही कमा पाया था। श्याम के मन में खोट आ गया। वह सोचने लगा कि किसी तरह राम का पैसा हड़पने को मिल जाए, तो खूब ऐश से जिंदगी गुजरेगी। रास्ते में एक छोटा कुआं आया, तो श्याम ने राम को उसमें धक्का देकर गिरा दिया। राम मेहनती था, सो गढ्डे से बाहर आने का प्रयत्न करने लगा। श्याम ने सोचा कि अगर यह ऊपर आ गया, तो मुश्किल हो जाएगी। वह पूरे गांव वालों को मेरी करतूत के बारे में बता देगा। इसलिए श्याम साथ लिए फावड़े से मिट्टी खोद-खोदकर कुएं में डालने लगा, लेकिन जब राम के ऊपर मिट्टी पड़ती, तो वह अपने पैरों से मिट्टी को नीचे दबा देता और उसके ऊपर चढ़ जाता। मिट्टी डालते-डालते श्याम इतना थक गया था कि उसके पसीने छूटने लगे, लेकिन तब तक वह कुएं में काफी मिट्टी डाल चुका था और राम उस मिट्टी पर चढ़ कर ऊपर आ गया। अत: जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं, जब बहुत सारी मुश्किलें एक साथ हमारे जीवन में मिट्टी की तरह आ पड़ती हैं। जो व्यक्ति इन मुश्किलों पर विजय प्राप्त कर आगे बढ़ता जाता है, उसी की जीत होती है और वही जीवन में बुलंदियों को छूता है।
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02-07-2012, 11:58 PM | #58 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
यथार्थवादी होकर करें काम
यथार्थवादी होने का मतलब यह है कि आप जानते हैं कि आपके और आपके साथ काम करने वाले लोगों की क्षमता क्या है और अधिकारी उनसे क्या उम्मीद करते हैं। आप अपनी काबिलीयत से अधिकारियों और अपने साथियों का ऐसा मेल करा दें, जिससे दोनों पक्ष खुश रहें। आप अपने साथियों पर इतना दबाव नहीं डाल सकते कि वे हार मान बैठें और न ही आप अपने अधिकारी को यह सोचने दे सकते हैं कि आप ढीले हैं। अगर आपके अधिकारी अयथार्थवादी लक्ष्यों को तय करने पर जोर देते हैं, तो आपको उन्हें यह साफ-साफ बता देना चाहिए कि ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा करते समय बहस या टालमटोल न करें, बल्कि उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत करवाएं। इसके बारे में अपना पक्ष जरूर रख दें। उनसे पूछें कि उन्हें कैसे लगता है कि लक्ष्य हासिल हो सकते हैं। उन्हें बता दें कि ये लक्ष्य यथार्थवादी नहीं है। अच्छी तैयारी करें और तर्क देकर अपनी बात साबित करें कि आपको ऐसा क्यों लगता है। इसके बाद उनसे दोबारा पूछें कि उनके हिसाब से इन लक्ष्यों को हासिल कैसे किया जा सकता है। उनसे उन लक्ष्यों को हासिल करने के उपाय भी पूछ सकते हैं। इसके बाद अपना खुद का यथार्थवादी लक्ष्य उनके सामने रखें, जो आंकड़ों और तथ्यों के तारतम्य में हो। अधिकारी को अपनी समस्या बता दें और समाधान देने का आग्रह करें। देर-सवेर उन्हें या तो ज्यादा यथार्थवादी लक्ष्य निर्धारित करना होगा या फिर असंभव लक्ष्य को ही हासिल करने का आदेश देना होगा। दोनों ही तरह से आपने अपनी समस्या सुलझा ली है। अगर वे आपके लिए यथार्थवादी लक्ष्य निर्धारित कर देते हैं, तो आपको बस, उन्हें पूरा करना है । आप जानते हैं कि आप ऐसा कर सकते हैं। अगर वे आपको अयथार्थवादी लक्ष्य हासिल करने का आदेश देते हैं, तब भी वे बाद में आपको दोष नहीं दे सकते। जब आप असंभव लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएंगे, तो आप उन्हें यह बता सकते हैं कि लक्ष्य तय करते समय ही आपने विरोध किया था। पूरा मामला दोबारा उनके सामने रख दें।
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03-07-2012, 12:02 AM | #59 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अंतर्यात्रा मार्ग के पड़ाव
किसी जमाने में एक इंजीनियर था। हालांकि वह अपने काम में काफी माहिर था, लेकिन उसने कभी धन अथवा प्रसिद्धि आदि की चाह नहीं की। वह चाहता, तो अपने काम के दम पर जीवन में बड़ी से बड़ी पदवी पर आसीन हो सकता था, पर वह हमेशा उन गुरुओं की खोज में लगा रहा, जो उसे वीणा, शतरंज, पुस्तक, चित्र, और तलवार की पूर्ण शिक्षा दें। काफी समय तक तलाश के बाद उसने अपने मन मुताबिक गुरू तलाश लिया। वीणा की शिक्षा के दौरान उसने संगीत प्राप्त किया, जो आत्मा को अभिव्यक्ति देता है। शतरंज के जरिए उसने रणनीति की व्यूह-रचना करने और दूसरों की प्रतिक्रिया का अनुमान लगाना सीखा। पुस्तकों से उसे अकादमिक शिक्षाएं मिलीं। चित्रकला ने उसमें सौंदर्य और कलात्मक अभिरुचि उत्पन्न की। तलवार चलाना सीखने से उसमें आक्रमण और रक्षा करने की प्रवीणता आई। धीरे-धीरे वह अपने उस मकसद में कामयाब हुआ और उसने अपनी चहेती शिक्षा में प्रावीण्य भी हासिल कर लिया। सब कुछ सीखने के बाद एक दिन एक बच्चा उसके पास आया। उस बच्चे ने इंजीनियर से पूछा, यदि आप हाल ही सीखे अपने पांच कौशल भूल जाओ, तो क्या होगा? यह सुनकर पहले तो इंजीनियर बहुत भयभीत हो गया। उसे कुछ जवाब ही नहीं सूझ रहा था। कुछ देर बाद जब वह संभला, तो उसने विचार-मनन किया। वह जान गया था कि वीणा उसके बजाए बिना अपने आप नहीं बज सकती है। खिलाड़ियों के बिना शतरंज की बिसात ही अधूरी होती है और वह बिछी ही रह जाती है। यदि कोई पढ़ने वाला ही न हो तो पुस्तक की कोई उपयोगिता नहीं है। वे ऐसे ही पड़ीं रहती हैं। चित्र बनाने वाली तूलिकाएं स्वत: पटल पर नहीं चलतीं। उन्हें भी चलाना पड़ता है और योद्धा के नहीं होने पर तलवार म्यान में ही पड़ी रह जाती है। इंजीनियर को यह बोध हो गया कि इन कौशलों को अर्जित करने में ही जीवन में उसका उत्कर्ष नहीं है। ये सब तो अंतर्यात्रा पर ले जाने वाले मार्ग के पड़ाव हैं।
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03-07-2012, 03:24 AM | #60 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
कर्म की शक्ति सबसे बड़ा उपहार
केवल बौद्धिक क्षमताओं के कारण ही सृष्टि में मानव को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। प्रकृति के इस विशिष्ट उपहार के सदुपयोग द्वारा ही मानव मन में उठने वाली बेचैनी, चिंता, भय, दुविधा, कशमकश, संशय, आलस्य, प्रमाद, क्रोध, भ्रान्ति और वासनाओं को नष्ट करने में समर्थ बन जाता है और शुद्ध एवं स्थिर-चित्त होकर उपलब्ध परिस्थितियों का लाभ उठाकर उन्नत भविष्य का निर्माण करता है । उसे यह आत्मानुभूति हो जाती है कि वर्तमान में अकुशलता से कार्य करने पर उसे भविष्य में कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लगने वाली, अत: वह हर कदम पर सावधानी बरतता है कि कहीं विषम परिस्थितियां उसके मानसिक-संतुलन पर हावी न हो जाएं । ऐसा ज्ञानी मनुष्य किसी दिव्य और श्रेष्ठ लक्ष्य पर दृष्टि रखकर अपनी बुद्धि से अपने मन पर नियंत्रण रखकर सब प्रकार के कर्तव्य-कर्म करते हुए भी सदैव आनंदित रहकर अपना समय व्यतीत किया करता है, क्योंकि शुद्ध अन्त:करण वाले उस व्यक्ति के लिए फिर दु:ख मनाने का कोई निमित्त रह ही नहीं जाता। वस्तुत: मनुष्य की कर्म करने की शक्ति ही उसे कुदरत द्वारा दिया गया उसका सबसे बड़ा पुरस्कार और उपहार है, क्योंकि श्रेष्ठ कर्म करने के संतोष और आनंद में वह अपने आप को भूल जाता है, लेकिन सत्य तो यह है कि हममें से अधिकांश लोग विफलता के भय से किसी महान कार्य को अपने हाथ में लेना ही स्वीकार नहीं करते और यदि एक मुट्ठी भर लोग ऐसा साहस करते भी हैं, तो थोड़ा सा विघ्न आने पर इतने निरुत्साहित हो जाते हैं कि अपने कार्य को अधूरा ही छोड़ दिया करते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है हम में मन:स्थिरता का अभाव, क्योंकि हम काम शुरू करते नहीं कि भविष्य में संभावित हानि की कल्पना से स्वयं को भयभीत बना लेते हैं। दरअसल हम यह भूल जाते हैं कि कर्मफल स्वयं कर्म से अलग वस्तु नहीं है। भविष्य का निर्माण वर्तमान में हुआ करता है और हर कर्म की पूर्णता उसके फल में निहित होती है। अत: अपने मन में उठने वाले विक्षेपों पर अपनी बुद्धि से अंकुश लगाकर क्यों न अपना उद्धार स्वयं ही कर लें।
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