03-09-2012, 09:01 AM | #1 |
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प्यार बनाम परम्परा
अपने माँ - बाप , घराने की फ़िक्र है हमको . जो मैं उनकी न हुई , तेरी क्या हो पाऊँगी ; तुमको एहसास कराने की फ़िक्र है हमको . हमारी ख़्वाहिशों को फ़र्ज़ जो समझे अब तक ; उनका हक़ बनता है , उनकी भी फ़िक्र हो हमको . न तिलमिलाये रवायत न असल प्यार घुटे ; लोच दोनों में ही लाने की फ़िक्र है हमको . कुल मिलाकर रवायतें हैं बेहतरी के लिये ; इनसे तावीज़ बँधाने की फ़िक्र है हमको . अदब में उनके लम्बा वक़्त गुज़ारें तन्हा ; उनको महसूस तो हो , उनकी फ़िक्र है हमको . दौर की माँग ग़र सलीके से हम पेश करें ; उनके दिल बोलेंगे - " बच्चों की फ़िक्र है हमको ." रचयिता ~~ डॉ .राकेश श्रीवास्तव विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ . |
03-09-2012, 11:57 AM | #2 | |
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Re: प्यार बनाम परम्परा
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एकदम नवीन प्रतीक और बिम्बों के इस इस्तेमाल के लिए आप बधाई के पात्र हैं !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
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03-09-2012, 10:15 PM | #3 | |
Member
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Re: प्यार बनाम परम्परा
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11-09-2012, 03:20 PM | #4 |
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Re: प्यार बनाम परम्परा
सर्व श्री डार्क सेंट अल्लैक जी एवं हिटलर जी ; आप दोनों का ही प्रतिक्रिया व्यक्त करने हेतु विशेष आभार व्यक्त करता हूँ . उन अज्ञात पाठकों का भी शुक्रिया , जिन्होंने मुझे पढ़ा .
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