18-11-2011, 02:25 AM | #11 |
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Re: 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर
विरत नित्यानित विवेचक, भोग हैं निरपेक्ष में, आश्चर्य ! है यद्यपि मुमुक्षु, भय तथापि मोक्ष में. [8] ज्ञानी जन तो भोग पीडा, भाव में समभाव हैं, हर्ष क्रोध का आत्मा, पर कोई भी न प्रभाव है. [9] देह में वैदेह ऋत अर्थों में, है ज्ञानी वही, हों भाव सम निंदा प्रशंसा में कोई अन्तर नहीं. [10] अज्ञान जिसका शेष, ऐसा धीर इस संसार को, मात्र माया मान, तत्पर मृत्यु के सत्कार को. [11] इच्छा रहित मन मोक्ष में भी, महि महिम महिमा महे, उस आत्म ज्ञानी से तृप्त जन की, साम्यता किससे अहे. [12] धीर ज्ञानी जानता है, जगत छल है प्रपंच है, ग्रहण त्याग से मन परात्पर, न रमे कहीं रंच है. [13] वासना के कषाय कल्मष, जिसने अंतस से तजे, निर्द्वंद दैविक सुख या दुःख, पर शान्ति अंतस में सजे. [14] |
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