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#11 |
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![]() साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय |
ज्यों मेहंदी के पात में, लाली रखी न जाए || संत पुरुष की आरती, संतो की ही देय | लखा जो चाहे अलख को, उन्ही में लाख ले देय || ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार | हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार || हरी संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप | निश्वास सुख निधि रहा, आन के प्रकटा आप || कबीर मन पंछी भय, वहे ते बाहर जाए | जो जैसी संगत करे, सो तैसा फल पाए || कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार | साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार || आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर | इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर || ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय | सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय || रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥ |
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#12 |
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![]() साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥ धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए, माली सींचे सौ घडे, ऋतू आये फल होए मांगन मरण सामान है, मत मांगो कोई भीख, मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि. मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये, ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये |
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#13 |
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जीवनोपयोगी और आज भी प्रयोज्य दोहों की जीवंत प्रस्तुति के लिए आप सभी प्रस्तोताओं का हार्दिक अभिनन्दन है /
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
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#14 |
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#15 |
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#16 |
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![]() जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥ माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥ आया था किस काम को, तु सोया चादर तान । सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥ क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह । साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥ गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच । हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥ |
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#17 |
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![]() दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥ दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर । अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥ दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन । रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥ ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय । औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥ हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट । बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥ कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार । साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥ जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥ मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय । मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥ सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप । यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥ अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ । मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥ |
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#18 |
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![]() बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥ अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट । चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥ कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय । ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥ पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप । पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥ बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥ |
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#19 |
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![]() हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥ राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस । रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥ जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच । वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥ तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार । सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥ सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन । प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥ |
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#20 |
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समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥ हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय । जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥ कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥ वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल । बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥ कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥ |
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