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#1 |
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![]() इन्सानों की भाषा जब जब पाषणों ने बोली है, आदिकाल से मानव की यश गाथा सारी खोली है. और पाषाणों की भाषा जब जब इन्सानों ने बोली है, अपने ही भोजन में जग ने विष की बूटी घोली है. नीलकंठ तो विष पी कर भय लोकों का दूर करें. विषपायी तो हम भी हैं विष वमन किन्तु भरपूर करें. शंकाओं से अस्थिर मानव उपनिषदों से पूछ रहा, मनु के बेटे कर्म विवेकी हो कर भी क्यों क्रूर करें. शिव ही की धरती पर क्यों ये अशिव का गर्जन गूँज रहा? किन हाथों में प्रलयंकर का ये तांडव बेबस जूझ रहा? भस्मासुर से असुरों से क्यों धरती भरती ही जाती? वर्तमान का मानव पूछे जो अब तक अनबूझ रहा. Last edited by rajnish manga; 29-12-2013 at 11:01 AM. Reason: space between stanzas was not proper. |
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#2 |
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काबिल-ए-तारीफ रचना…
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#3 |
Special Member
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बहुत गूढ़ बात कही है
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
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#4 |
Administrator
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बहुत बढ़िया रजनीश जी
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#5 |
Diligent Member
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नीलकंठ तो विष पी कर भय लोकों का दूर करें.
विषपायी तो हम भी हैं विष वमन किन्तु भरपूर करें. Nice line thank manga ji keep it up |
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#6 |
Member
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बहुत सुन्दर रचना है रजनीश जी /
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#7 |
Super Moderator
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रचना की प्रशंसा करने के लिये युवराज जी, ढेबर जी, अभिषेक जी, सोमबीर जी और अनिल कृति जी का हार्दिक धन्यवाद. सेंट अलैक जी व अरविन्द जी तथा अन्य पाठकों का भी आभार प्रकट करता हूँ.
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नीलकंठ शिव, मुक्तक रचना, रजनीश मंगा, विषपायी, neelkanth, poetry of rajnish manga, vishpayi to ham bhi hain |
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