07-02-2013, 03:42 PM | #11 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
सुभाष गयाली, झारखंड
(चित्र में सुभाष गयाली एकदम बाएं।) पर्यावरण और लोगों के हित के लिए आरटीआई के तहत जानकारी लेकर लोगों तक पहुंचाने का काम करने वाले सुभाष गयाली का मानना है कि भले ही हमारा पेट भरा है, लेकिन दिल में दर्द भी है, इसलिए हम संघर्ष कर रहे हैं।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
07-02-2013, 03:43 PM | #12 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
पर्यावरण को बचाने का जुनून
हर इंसान की जिंदगी संघर्ष से भरी होती है। कोई उसको जीत लेता है, तो कोई हार जाता है, लेकिन जीवन में वही सच्चा हिम्मत वाला व्यक्ति है जो आखरी दम तक लड़ता है। ऐसे ही झारखंड में रहने वाले एक व्यक्ति हैं सुभाष गयाली, जो पर्यावरण और लोगों के हित के लिए आरटीआई की मदद से सूचना प्राप्त करते हैं और उसे लोगों तक पहुंचाते हैं। गयाली का मानना है कि आरटीआई आवेदनों की बड़ी विशेषता यह है कि वह आम लोगों के हित, पर्यावरण व धरती को बचाने से सम्बंधित होते हैं। पर्यावरण व प्रकृति बचाने को लेकर संकल्पित गयाली कहते हैं कि हमारे पेट में अनाज तो है, लेकिन दिल में दर्द भी है। इस दर्द का प्रतिबिम्ब गयाली के आरटीआई आवेदनों में दिखता है। वह खनन क्षेत्र में काम करने वाले विभिन्न जन संगठनों के साझा मंच झारखंड माइंस एरिया को-आडिर्नेशन कमेटी के क्षेत्रीय सचिव हैं। उन्होंने अपने साथियों के साथ धनबाद के बाघमारा प्रखंड क्षेत्र के खरखरी के भुईयां टोली तथा लेप्रोसी टोला के लगभग एक हजार लोगों का नाम वोटर कार्ड में चढ़वाने के लिए काफी संघर्ष किया था। ग्रामीण विकास संघर्ष समिति, फलारीटांड़ के नेतृत्व में यह लड़ाई लड़ी गई थी। अब यहां के लोगों को विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिलवाने के लिए संघर्ष किया जा रहा है। सुभाष गयाली का कहते है कि आज के समय में हर इंसान को अपने हक मालूम होने चाहिए लेकिन बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें किसी बात की जानकारी नहीं होती। ऐसे ही लोगों की मदद के लिए वह आटीआई का सहारा लेते हैं। वे हर मुमकीन जानकारी प्राप्त कर लोगों तक पहुंचाते हैं। वह इन दिनों झारखंड गठन के बाद राज्य में उद्योग स्थापना और खनन पट्टों के लिए सरकार व निजी कम्पनियों के बीच हुए करार के सम्बंध में विस्तृत जानकारी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने पांच हजार से अधिक पेज में उपलब्ध ऐसे दस्तावेज को पाने के लिए पैसे भी जमा कर दिए हैं। वह सवाल उठाते हैं कि आज जिस तरह पर्यावरण को क्षति पहुंचाई जा रही है, वैसे में हम अपने बच्चों को कैसी दुनिया देकर जाएंगे? उन्हें हमेशा इस बात की चिंता रहती है कि जिस तरह का पर्यावरण आने वाली पीढ़ी को देखने के लिए मिलेगा यह उनके लिए कल्पना मात्र ही रह जाएंगे। इसके चलते आज वह पर्यावरण को बचाने का हर संघर्ष कर रहें हैं। उन्होंने खनन के बाद खदानों में बालू भराई सहित कई पर्यावरणीय महत्व के विषयों पर आरटीआई आवेदन से जानकारी हासिल की है। उन पर मानो पर्यावरण बचाने का जुनून सार है इसीलिए वे कहते हैं कि जल, जंगल व जमीन के लिए हमारा संघर्ष इसलिए है ताकि हम अपने बच्चों के लिए भी कुछ बचा कर जाए।
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08-02-2013, 04:32 AM | #13 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
प्रेरणादायक सूत्र है
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
08-02-2013, 01:25 PM | #14 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
बड़ी अच्छी और सच्ची सोच है
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
08-02-2013, 01:55 PM | #15 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
स्वागत निशांतजी। आप पधारे, सूत्र जगमग हो गया। आभार।
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08-02-2013, 05:43 PM | #16 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
उपरोक्त चारो उदाहरण प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय हैं। मंच पर प्रस्तुत करने के लिए अलैक जी, आपका आभार बन्धु।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
08-02-2013, 11:22 PM | #17 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
शरत गायकवाड़, बेंगलूरु
एक ही बाजू का मतलब शरत के लिए यह था कि उन्हें दो हाथ और दो पांव वाले एक सामान्य आदमी की तरह संतुलन स्थापित करना सीखना होगा। यह साबित उन्होंने तब किया, जब वे पैरालिंपिक खेलों में तैराकी के लिए क्वालीफाई करने वाले पहले भारतीय तैराक बने।
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08-02-2013, 11:24 PM | #18 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
हिम्मत ने बनाया पदक विजेता
साथ देने को जब बस एक हाथ हो तो साधारण काम भी असाधारण लगने लगता है। लेकिन साधारणता की हसरत अब बहुत पीछे छूट गई है। आज शरत गायकवाड़ असाधारण उपलब्धियों के पहाड़ पर बैठे हैं। बेंगलूरु में रहने वाले 21 साल के तैराक शरत पिछले सात सालों के दौरान 40 राष्ट्रीय और 30 अंतरराष्ट्रीय पदक अपने नाम कर चुके हैं। उपलब्धियों की इस किताब में एक नया पन्ना जोड़ते हुए शरत ने पैरालिंपिक 2012 के लिए क्वालीफाई किया। इस मुकाम पर पहुंचने वाले वह पहले भारतीय तैराक हैं। उन्होंने पहली बार राष्ट्रीय खेलों में वर्ष 2003 में भाग लिया था तब वह सिर्फ 12 साल के थे। इस आयोजन के दौरान उनकी झोली में चार स्वर्ण पदक आए। आज भी उन्हें याद है कि जैसे-जैसे इस आयोजन का वक्त पास आता जा रहा था तो उन्हें बड़ी घबराहट हो रही थी। पर एक बार पानी में क्या उतरे कि सारी घबराहट छूमंतर हो गई। उनको सहजता से तैरते हुए देखकर कोई भी पल भर के लिए यह भूल सकता है कि तैराकी के लिए पूरी तरह संतुलित एक शरीर बहुत जरूरी है। तैरने के क्रम में दोनों बाजुओं का इस्तेमाल पानी को काटने के लिए और पैरों का उपयोग शरीर को आगे धकेलने में किया जाता है। वर्ष 2010 में हुए एशियाई पैरा खेलों के आयोजन में उन्होने कांस्य पदक जीता और वह पैरालिंपिक खेलों के लिए क्वालीफाई भी कर गए। एक ही बाजू का मतलब शरत के लिए यह था कि उन्हें दो हाथ और दो पांव वाले एक सामान्य आदमी की तरह संतुलन स्थापित करना सीखना होगा। कंधों, पांव और भीतरी तौर पर खुद को मजबूत बनाना होगा। पिछले सात सालों से उनके कोच 41 वर्षीय जॉन क्रिस्टोफर बताते हैं की उनकी नजर शरत पर पहली बार 2003 में स्कूल के प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान पड़ी थी और उन्हें यह लग गया था कि इस लड़के को एक पेशेवर खिलाड़ी के तौर पर तैयार किया जा सकता है। तैराकी सीखने के दौरान आई समस्याओं को याद करते हुए शरत कहते हैं कि एक नौ साल के बच्चे को अक्षम और विशेष रूप से सक्षम लोगों के बीच भेद करना सीखना था लेकिन वह दिन घोर निराशाओं से भरे होते थे। दोस्त मुझ पर कमेंट पास करते थे और हंसते थे। मैं ज्यादातर समय अपने दोनों हाथ होने की दुआ करता था। लेकिन इस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता था। वह कहते हैं कि शरीर को प्रशिक्षण देने से पूर्व अपने मन को प्रशिक्षित करने की जरूरत होती है। आपको अपनी कमियों की ओर देखना बंद करना होता है। उन्होंने ऐसा ही किया और मन में हठ समा कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऊंचे से ऊंचे मुकाम तक पहुंचे।
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08-02-2013, 11:42 PM | #19 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
योगेश्वर कुमार, दिल्ली
लगभग तीन दशकों से ग्रामीण लोगों के हित में काम करते हुए योगेश्वर ने अब तक करीब 15 हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर स्टेशन्स बनाए हैं, जिनसे आटा चक्की, ऑयल मिल, आरा मशीन और वेल्डिंग वर्कशॉप्स जैसे उद्योग चलाए जा रहे हैं और इनके प्रबंधन और संचालन की पूरी जिम्मेदारी ग्रामीणों के पास है।
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08-02-2013, 11:43 PM | #20 |
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Re: इनसे सीखें जीने का अन्दाज़
रोशनी मिली तो रोजगार भी मिला
आईआईटी दिल्ली से निकलकर बहुत कुछ करने के सपनों के साथ योगेश्वर कुमार ने भी अपने काम की शुरुआत की। अपने काम के साथ ही उन्होंने ग्रामीण और आम जनता की बुनियादी सुविधाओं को जुटाने के लिए भी काम करना शुरू किया और विकास के बेसिक और ठोस कदम को तरजीह दी। आज उनके इरादों की बदौलत कई गांव रोशन हो रहे हैं और कई परिवार रोजगार पाकर अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ कर रहे हैं। उन्होंने कहीं ज्यादा बडेþ नजरिए के साथ उत्तराखंड, कारगिल, लद्दाख, मेघालय तथा ओडीसा के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में पर्यावरण हितैषी माइक्रोहाड्रोलिक संयंत्रों की स्थापना की है। इन संयंत्रों से गांवों को बिजली की सप्लाई तो हो ही रही है, साथ ही गांवों के विकास और रोजगार के अवसरों को बढ़ाने का काम भी किया जा रहा है। वह अपने एनजीओ ‘जनसमर्थ’ के द्वारा बिजली पर आधारित छोटे उद्योग स्थापित कर रहे हैं और उनमें लोगों को रोजगार भी दे पा रहे हैं। लगभग तीन दशकों से ग्रामीण लोगों के हित में काम करते हुए उन्होंने अब तक करीब 15 हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर स्टेशन्स बनाए हैं जिसमे आटा चक्की, आॅइन मिल, आरा मशीन और वेल्ंिड वर्कशॉप्स जैसे उद्योग चलाए जा रहे हैं और इनके प्रबंधन और संचालन की पूरी जिम्मेदारी ग्रामीणों के पास है। सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद पहले तो उन्होंने बांस के प्रयोग को अपना लक्ष्य बनाया था लेकिन बाद में पनबिजली ने उन्हें अपनी तरफ आकर्षित कर लिया और इस तरह वह बिजली उत्पादन से जुड़ गए। योगेश्वर ने 1975 में उत्तराखंड में एक लैब के इन्क्यूबेटर्स की विद्युत सप्लाई के लिए पहला माइक्रो-हायड्रल संयंत्र स्थापित किया। इस संयंत्र से उत्पन्न हुई बिजली को फिर तेल निकालने की मशीन को चलाने और आटा पीसने जैसे कामों में भी जाने लगा। यही नहीं, उन्होने भंडार नामक स्कूल भी खोल डाला, जिसमें दिन में मवेशी चराने वाले बच्चे रात में पढ़ा करते थे। इस स्कूल को भी रोशनी उसी संयंत्र से मिलती है। उनका दूसरा प्लांट डोगरी कर्डी गांव में स्थापित हुआ। उन्होंने कई गांव में साधारण तरीकों से विद्युत उत्पादन किया। गौरतलब है कि सत्तर के दशक में वह वृक्षों को बचाने के लिए प्रसिद्ध ‘चिपको आंदोलन’ से भी जुड़े रहे। उनका कहना है कि आज भी हमारी लगभग 85 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या जलावन के लिए लकड़ियों का प्रयोग करती हैं। कुछ साल पहले अगुंडा में जबरदस्त भू-स्खलन हुआ था। अब यदि, ग्रामीणों को खाना पकाने के लिए बिजली मिल जाती तो न तो उन्हें लक ड़ी लाने के लिए क ई किलोमीटर चलना पड़ता न ही वे पेड़ोंं को काटते। इस तरफ से भू-स्खलन जैसी घटनाओं में भी कमी आती।
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