04-03-2013, 08:53 PM | #11 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: लोक कथाएं
बहुत पहले की बात है। एक ब्राह्मण और एक भाट में गहरी दोस्ती थी। रोज़ शाम को दोनों मिलते थे और सुख-दुख की बाते कहते थे। दोनों के पास पैसे न होने के कारण दोनों सोचा करते थे कि कैसे थोड़े बहुत पैसा का जोगाड़ करे। एक दिन भाट ने कहा - "चलो, हम दोनों राजा गोपाल के दरबार में चलते हैं। राजा गोपाल अगर खुश हो जाये, तो हमारी हालत ठीक हो जाये।" ब्राह्मण ने कहा - "देगा तो कपाल क्या करेगा गोपाल" भाट ने कहा - "नहीं, ऐसा नहीं। देगा तो गोपाल, क्या करेगा कपाल" दोनों में बहस हो गई। ब्राह्मण बार-बार यही कहता रहा देही तो कपाल का करही गोपाल। भाट बार-बार कहता रहा - "राजा गोपाल बड़ा ही दानी राजा है। वे अवश्य ही हमें देगा, चलो, एक बार तो चलते है उनके पास, कपाल क्या कर सकता है - कुछ भी नहीं - दोनों में बहस होने के बाद दोनों ने निश्चय किया कि राजा गोपाल के दरबार में जाकर अपनी-अपनी बात कही जाए। इस तरह भाट और ब्राह्मण एक दिन राजा गोपाल के दरबार में पहुँचे और अपनी-अपनी बात कहकर राजा को निश्चित करने के लिए कहने लगे। राजा गोपाल मन ही मन भाट पर खुश हो उठे और ब्राह्मण के प्रति नाराज़ हो उठे। दोनों को उन्होंने दूसरे दिन दरबार में आने को लिये कहा। दूसरे दिन दोनों जैसे ही राजा गोपाल के दरबार में फिर से पहुँचे, राजा गोपाल ने अपने देह रक्षक को इशारा किया। राजा के देह रक्षक ब्राह्मण को चावल, दाल और कुछ पैसे दिये। और उसके बाद भाट को चावल, घी और एक कद्दुू दिया। उस कद्दुू के भीतर सोना भर दिया गया था। राजा ने कहा - "अब दोनों जाकर खाना बनाकर खा लो। शाम होने के बाद फिर से दरबार में हाजिर होना।" भाट और ब्राह्मण साथ-साथ चल दिए। नदी किनारे पहुँचकर दोनों खाना बनाने लग गये। भाट ब्राह्मण की ओर देख रहा था और सोच रहा था - "राजा ने इसे दाल भी दी। मुझे ये कद्दुू पकड़ा दिया। इसे छीलना पड़ेगा, काटना पड़ेगा और फिर इसकी सब्जी बनेगी। ब्राह्मण के तो बड़े मजे हैं। दाल झट से बन जायेगी। ऊपर से ये कद्दुू अगर मैं खा लूँ, मेरा कमर का दर्द फिर से उभर आयेगी।" भाट ने ब्राह्मण से कहा - "दोस्त, ये कद्दुू तुम लेकर अगर दाल मुझे दे दोगे, तो बड़ा अच्छा होगा। कद्दुू खाने से मेरे कमर में दर्द हो जायेगा।" ब्राह्मण ने भाट की बात मान ली। दोनों अपना-अपना खाना बनाने में लग गये। ब्राह्मण ने जब कद्दुू काटा, तो ढेर सारे सोना उसमें से नीचे गीर गया। ब्राह्मण बहुत खुश हो गया। उसने सोचा - देही तो कपाल, का करही गोपाल उसने सोना एक कपड़े में बाँध लिया और कद्दुू की तरकारी बनाकर खा लिया। लेकिन कद्दुू का आधा भाग राजा को देने के लिये रख दिया। शाम के समय दोनों जब राजा गोपाल के दरबार में पहुँचे, तो राजा गोपाल भाट की ओर देख रहे थे, पर भाट के चेहरे पर कोई रौनक नहीं थी। इसीलिये राजा गोपाल बड़े आश्चर्य में पड़े। फिर भी राजा ने कहा - "देही तो गोपाल का करही कपाल" - क्या ये ठीक बात नहीं? तब ब्राह्मण ने कद्दुू का आधा हिस्सा राजा गोपाल के सामने में रख दिया। राजा गोपाल ने एक बार भाट की ओर देखा, एक बार ब्राह्मण की ओर देखने लगे। फिर उन्होंने भाट से कहा - "कद्दुू तो मैनें तुम्हें दिया था?" भाट ने कहा - "हाँ, मैनें दाल उससे ली। कद्दुू उसे दे दिया" - राजा गोपाल ने ब्राह्मण की ओर देखा - ब्राह्मण ने मुस्कुराकर कहा - देही तो कपाल, का करही गोपाल।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
04-03-2013, 08:54 PM | #12 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: लोक कथाएं
महुआ का पेड़
बहुत पुरानी कहानी है। एक गांव में एक मुखिया रहता था जो अपने अतिथियों से बड़े आदर से बड़े प्रेम से पेश आता था। वह मुखिया हमेशा इन्तजार करता था कि उसके घर कोई आये, और वह उसकी देखभाल बहुत अच्छी तरह करे, और रोज़ सुबह मुखिया यही सोचता था कि आज अतिथियों को खिलाया जाये, क्या पिलाया जाये ताकि अतिथि खुशी से झूम उठे। अतिथि बड़ी खुशी से झूम उठे। अतिथि बड़ी खुशी से वहाँ से विदा लेते और जाने से पहले मुखिया को हमेशा कहते कि उन्हें इतने अच्छे से किसी ने नहीं रखा। लेकिन मुखिया के मन में यही बात खटकती कि अतिथि खुशी से झूम नहीं रहे हैं। रोज सुबह होते ही मुखिया जंगल में घुमता रहता, फूल कंदमूल इकट्ठे करते रहता था ताकि कोई अतिथि अगर आये, तो उन्हें अच्छी तरह से भोजन करा सके। मुखिया का बेटा भी अपने पिता की तरह अतिथि सत्कार में बड़ा माहिर था। एक दिन जब उनके घर में मेहमान आए जो पहले भी आ चुके थे, मुखिया और मुखिया का बेटा दोनो कंद-मूल और फलों से अच्छी तरह से उनका सत्कार किया। मेहमान भी बड़े प्यार से, खुशी से खा रहे थे। खाते-खाते मेहमान ने कहा - "इस जंगल में सिर्फ यही फल मिलता है - हमारे उधर के जंगल में बहुत कि के फल होते हैं। पर मुझे तो ये फल बहुत ही अच्छा लगता है।" मुखिया का बेटा अपने पिता की ओर देख रहा था। मुखिया ने कहा - "हम जंगल में घुमते रहते हैं ताकि हमें कुछ और किस्म का फल मिल जाए। लेकिन इस जंगल में सिर्फ ये ही पाई जाती है" - अतिथि ने कहा - "मुझे तो सबसे बेहतर आप का अतिथि सत्कार लगता है। इतने आदर से तो हमें कोई भी नहीं खिलाता।" उस रात को मुखिया का बेटा मुखिया से कहा - "मैं कुछ दिन के लिए जंगल के भीतर और अच्छी तरह से छानबीन करने के लिए जा रहा हूँ। देखु-अगर मुझै कुछ और मिल जाये" - मुखिया को बड़ा अच्छी लगी ये बात। उसने बेटे से कहा - "हाँ बेटा, तू जा" - कई दिन तक मुखिया का बेटा जंगल में घूमता रहा पर उसे कोई नई चीज़ दिखाई नहीं दी। घूमते-घूमते वह बहुत ही थक गया था, एक पेड़ के नीचे बैठ वह आराम करने लगा। अचानक उसके सर पर एक चिड़िया आकर बैठी। और फिर फुदकती हुई चली गई। अरे! ये चिड़िया तो बड़ी मस्ती से झूम रही है। उसने चारों ओर देखा - यहाँ की सारी चिड़िया तो बड़ी खुश नज़र आ रही है। क्या बात है? वह गौर से देखता रहा चिड़ियों की ओर। उस पेड़ के नीचे एक गड्ढ़ा था जिसमें पानी था। चिड़िया उड़ती हुई उस गड्ढ़े के पास गई, उन्होंने पानी पिया और झुमते हुये चहकनी लगी और जिस चिड़िया ने अभी तक पानी नहीं पिया था, वह उतने उत्साह से झूम नहीं रही थी। इसका मतलब है कि उस पानी में खुच है। मुखिया का बेटा गड्ढ़े के पास बैठ गया और उसने गड्ढ़े का पानी पी लिया। अरे - ये पानी तो बड़ा अजीब है। पीने से झूमने को मन करता है। क्या है इस पानी में? अच्छा यह तो महुए का पेड़ है। इसके फल झड़-झड़ के उसी पानी में गिर रहे थे। तो इसका मतलब है कि महुए के फल में वह झूमने वाली चीज़ है। मुखिया का बेटा मन ही मन झूम उठा। ये ही तो वह कितने दिनों से तलाश कर रहा था। इतने दिनों के बाद उसे वह चीज़ मिल गई। उसने महुए का फल इकट्ठा करना शुरु कर दिया। ढ़ेर सार फलों को लेकर वह घर की ओर चल दिया। उधर मुखिया बहुत ही चिन्तित हो उठा था। कहाँ गया उसका बेटा? उस दिन तीन अतिथि आए हुए थे। अतिथीयों को मुखिया की पत्नी प्यार से खिला रही थी पर साथ ही साथ उदास भी थी। अपने पति की ओर बार-बार देख रही थी। अचानक मुखिया के चेहरे पर रौनक आ गई। उसकी पत्नी समझ गई कि बेटा वापस आ गया है। अतिथी अब जाने ही वाले थे। पर मुखिया के बेटे ने उनसे अनुरोध किया कि वह थोड़ी देर के लिए रुक जाये। अपनी माँ को उसने सारी बात बताई। माँ ने कहा - "पर बेटा, पानी में कुछ समय वह फल रहने के बाद ही असर होगा - तुम्हारी कहानी से मुझे तो यही समझ आ रहा है।" मुखिया का बेटा मान गया। इसके बाद पानी में वह फल डालकर कुछ दिन तक वे सब इन्तज़ार करने लगे। अगली बार जब अतिथि आए उन्हें वह पानी दिया गया पीने के लिए। उस दिन मुखिया, मुखिया की पत्नी और मुखिया का बेटा, तीनों खुशी से झूम उठे। क्योंकि पहली बार अतिथि जाते वक्त झूमते हुए चले जा रहे थे।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
04-03-2013, 08:55 PM | #13 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: लोक कथाएं
बकरी और सियार
एक बकरी थी। रोज़ सुबर जंगल चली जाती थी - सारा दिन जंगल में चरती और जैसे ही सूर्य विदा लेते इस धरती से, बकरी जंगल से निकल आती। रात के वक्त उस जंगल में रहना पसन्द नहीं था। रात को वह चैन की नींद सो जाना चाहती थी। जंगल में जंगली जानवर क्या उसे सोने देगें? जंगल के पास उसने एक छोटा सा घर बनाया हुआ था। घर आकर वह आराम से सो जाती थी। कुछ महीने बाद उसके चार बच्चे हुए। बच्चों का नाम उसने रखा आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु। नन्हें-नन्हें बच्चे बकरी की ओर प्यार भरी निगाहों से देखते और माँ से लिपट कर सो जाते। बकरी कुछ दिनों तक जंगल नहीं गई। आस-पास उसे जो पौधे दिखते, उसी से भूख मिटाकर घर चली जाती और बच्चों को प्यार करती। एक दिन उसने देखा कि आसपास और कुछ भी नहीं है। अब तो फिर से जंगल में ही जाना पड़ेगा - क्या करे? एक सियार आस-पास घूमता रहता है। वह तो आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु को नहीं छोड़ेगा। कैसे बच्चों की रक्षा करे? बकरी बहुत चिन्तित थी। बहुत सोचकर उसने एक टटिया बनाया और बच्चों से कहा - "आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु, ये टटिया न खोलना, जब मैं आऊँ, आवाज़ दूँ, तभी ये टटिया खोलना" - सबने सर हिलाया और कहा - "हम टटिया न खोले, जब तक आप हमसे न बोले"। बकरी अब निश्चिन्त होकर जंगल चरने के लिए जाने लगी। शाम को वापस आकर आवाज़ देती - "आले टटिया खोल बाले टटिया खोल छुन्नु टटिया खोल मुन्नु टटिया खोल" आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु दौड़कर दरवाज़ा खोल देते और माँ से लिपट जाते। वह सियार तो आस-पास घुमता रहता था। उसने एक दिन एक पेड़ के पीछे खड़े होकर सब कुछ सुन लिया। तो ये बात है। बकरी जब बुलाती, तब ही बच्चे टटिया खोलते। एक दिन बकरी जब जंगल चली गई, सियार ने इधर देखा और उधर देखा, और फिर पहुँच गया बकरी के घर के सामने। और फिर आवाज लगाई - आले टटिया खोल बाले टटिया खोल छुन्नु टटिया खोल मुन्नु टटिया खोल आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु ने एक दूसरे की ओर देखा - "इतनी जल्दी आज माँ लौट आई" - चारों बड़ी खुशी-खुसी टटिया के पास आये और टटिया खोल दिये। सियार को देखकर बच्चों की खुशी गायब हो गई। चारों उछल-उछल कर घर के और भीतर जाने लगे। सियार कूद कर उनके बीच आ गया और एक-एक करके पकड़ने लगा। आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु रोते रहे, मिमियाते रहे पर सियार ने चारों को खा लिया। शाम होते ही बकरी भागी-भागी अपने घर पहुँची - उसने दूर से ही देखा कि टटिया खुली है। डर के मारे उसके पैर नहीं चल रहे थे। वह बच्चों को बुलाती हुई आगे बढ़ी - आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु। पर ना आले आया ना बाले, न छुन्नु न मुन्नु। बकरी घर के भीतर जाकर कुछ देर खूब रोई। उसके बाद वह उछलकर खड़ी हो गई। ध्यान से दखने लगी ज़मीन की ओर। ये तो सियार के पैरों के निशान हैं। तो सियार आया था। उसके पेट में मेरे आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु हैं। बकरी उसी वक्त बढ़ई के पास गई और बढ़ई से कहा - "मेरे सींग को पैना कर दो" - "क्या बात है? किसको मारने के लिए सींग को पैने कर रहे हो" - बकरी ने जब पूरी बात बताई, बढ़ई ने कहा - "तुम सियार से कैसे लड़ाई करोगी? सियार तुम्हें मार डालेगा। वह बहुत बलवान है" - बकरी ने कहा, "तुम मेरे सींग को अच्छी तरह अगर पैने कर दोगे, मैं सियार को हरा दूँगी" - बढ़ई ने बहुत अच्छे से बकरी के सींग पैने कर दिए। बकरी अब एक तेली के पास पहुँची। तेली से बकरी ने कहा - "मेरे सीगों पर तेल लगा दो और उसे चिकना कर दो" - तेली ने बकरी के सीगों को चिकना करते करते पूछा - "अपने सीगों को आज इतना चिकना क्यों कर रहे हो?" बकरी ने जब पूरी कहानी सुनाई, तेली ने और तेल लगाकर उसके सीगों को और भी चिकना कर दिया। अब बकरी तैयार थी। वह उसी वक्त चल पड़ी जंगल की ओर। जंगल में जाकर सियार को ढ़ूढ़ने लगी। कहाँ गया है सियार? जल्दी उसे ढ़ूड निकालना है। आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु उसके पेट में बंद हैं। अंधेरे में न जाने नन्हें बच्चों को कितनी तकलीफ हो रही होगी। बकरी दौड़ने लगी - पूरे जंगल में छान-बीन करने लगी। बहुत ढूँढ़ने के बाद बकरी पहुँच गई सियार के पास। सियार का पेट इतना मोटा हो गया था, आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु जो उसके भीतर थे। बकरी ने कहा - "मेरे बच्चों को लौटा दो", सियार ने कहा - "तेरे बच्चों को मैनें खा लिया है अब मैं तुझे खाऊँगा"। बकरी ने कहा - मेरे सींगो को देखो। कितना चिकना है "तुम्हारा पेट फट जायेगा - जल्दी से बच्चे वापस करो"। सियार ने कहा - "तू यहाँ मरने के लिये आई है"। बकरी को बहुत गुस्सा आया। वह आगे बहुत तेजी से बढ़ी और सियार के पेट में अपने सींग घोंप दिए। जैसे ही सियार का पेट फट गया, आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु पेट से निकल आये। बकरी खुशी से अब चारों को लेकर घर लौट कर आई। तब से आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु टटिया तब तक नहीं खोलते जब तक बकरी दो बार तो कभी तीन बार दरवाजा खोलने के लिए न कहती। रोज सुबह जाने से पहले बकरी उन चारों से फुसफुसाकर कहकर जाती कि वह कितने बार टटिया खोलने के लिए कहेगी।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
04-03-2013, 08:55 PM | #14 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: लोक कथाएं
चम्पा और बाँस
बहुत दिनों पहले एक राजा रहता था। उनकी दो रानियाँ थीं। दोनों रानियाँ नि:सन्तान थी। राजा सभी मन्दिरों में जा - जाकर पूजा-पाठ करते, घर में पूजा-पाठ करवाते। दो रानियाँ भगवान से विनती करते रहने पर फिर भी दोनों रानियाँ माँ नहीं बन पाई। एक बार एक सन्यासी उस राज्य से गु रहे थे। राजा के दरबार में सभी लोग कहने लगे कि वे सन्यासी बहुत ही महात्मा है। क्यों न उन्हें राज दरबार में बुलाकर इस सम्स्या को हल करने के लिये विन्ती किया जाये? राजा ने कहा कि सन्यासी को आदर से महल में बुलाया जाये। वे महात्मा जब महल में पहुँचे, राजा ने दोनों रानियों को बुलाकर कहा "महात्मा का सत्कार बड़े आदर के साथ होना चाहिये।" बड़ी रानी उसी वक्त तैयार हो गई और महात्मा को बड़े आदर के साथ खिलाने लगी। छोटी रानी महात्मा के फटे कपड़ो की ओर देखती और उनकी सेवा करने से इन्कार कर देती है। छोटी रानी को अपने रुप और धन का बड़ा घमंड था। कुछ दिनो बाद महात्मा जाने के लिए तैयार हो गये। जाने से पहले बड़ी रानी को उन्होंने खूब आशीर्वाद दिया और कहा "बहुत जल्द ही इस महल में बच्चों की आवाज़ सुनाई देगी" - बड़ी रानी तो बहुत खुश थी। और सचमुच कुछ ही दिनों के भीतर वह गर्भवती हो गई। यह खबर राजा के पास पहुँचते ही राजा बहुत ही खुश हो गये। प्रजा तक उसी वक्त खबर पहुँच गई कि राजा अब पिता बनने वाले हैं। पूरे राज्य में लोक खुशियाँ मनाने लगे। बड़ी रानी का सम्मान बहुत बढ़ गया, और उनकी देखभाल करने के लिए और भी लोग रखे गये। उधर छोटी रानी के मन में बहुत ज्यादा ईर्ष्या हो रही थी। रात दिन वह ईर्ष्या से जलने लगी थी। सोच रही थी कि अभी से जलने लगी थी। सोच रही थी कि अभी से बड़ी रानी का इतना आदर - न जाने बच्चे पैदा होने के बाद कितना ज्यादा आदर होगा, छटपटा रही थी छोटी रानी। उसने राजमहल की दाई को बुला भेजा और उसे ढेर सारा धन देकर अपने साथ शामिल कर लिया। और दोनों मिलकर इन्तज़ार करने लगे। समय पर रानी ने दो बच्चों को जन्म दिया - एक बेटी, एक बेटा। दाई ने तुरन्त बच्चों को एक झाँपी में रखकर छोटी रानी के पास ले गई। और उसके बाद बड़ी रानी के पास दो पत्थर रख दिए। बड़ी रानी ने जब पत्थरों को देखा उसे बहुत हैरानी हुई। ये कैसे हो सकता है। उधर राजा खुशी से झूमते हुये बड़ी रानी के पास पहुँचे और जब उन्होंने देखा बड़ी रानी दो पत्थरों को आश्चर्य से ताक रही है, राजा वहीं रुक गये और दाई से पूछने लगे क्या बात है। दाई ने कहा - "बच्चे नहीं, पत्थर निकले - राजा को बहुत गुस्सा आया। बड़ी रानी को उसी वक्त बंदी गृह में कैद कर दिया, पूरे राजमहल में ये बात फैल गई कि बड़ी रानी ने ईट पत्थर को जन्म दिया है। उधर छोटी रानी अपने दो चौकिदारों को बुलाकर वह झाँपी दे दी और उनसे कहने लगी - "इस झाँपी में दो बच्चे हैं, दोनों को ले जाओ और मार डालो" - दोनों चौकिदार झाँपी लेकर जंगल में गये। झाँपी खोलकर बच्चों को जब देखा, तब दोनों ने निश्चय किया कि बच्चों को वही छोड़ देगें। भगवान बच्चों की रक्षा करेंगे। ये सोचकर वही झाँपी रखकर दोनों महल वापस आ गये। छोटी रानी ने जब पूछा - "हो गया काम"- उन्होंने कहा - "हाँ हो गया काम"। इधर बड़ी रानी दिन रात पूजा पाठ में लग गई। राजा ने बड़ी रानी को फिर से महल में रहने दिया। बड़ी रानी सुबह से शाम तक पूजा करती रहती। पूजा करने के लिए फूल लाने सिपाही को भेजती। एक दिन आसपास कोई फूल नहीं मिले। सिपाही जंगल से फूल लाने गया। जंगल में सिपाही ने देखा बड़े सुन्दर चम्पा फूल लगे हुए थे। चम्पा और बाँस का झाड़ पास-पास उगे हुए थे। सिपाही फूल तोड़ने के लिए जैसे ही नज़दीक आया, चम्पा के झाड़ ने कहा "ए भैया बाँस" - बाँस झाड़ ने कहा "काय बहिनी चंपा?" चंपा ने कहा - "राजा के सिपाही फूलवा तोड़े बर आए दे", बाँस ने कहा - "लग जा बहिनी आकाश" - जैसे ही बाँस ने कहा, वैसे ही चम्पा का झाड़ उपर की ओर बढ़ने लगा, बढ़ते बढ़ते वह इतना बढ़ गया की सैनिक फूल तक नहीं पहुँच पाए। सैनिक आश्चर्यचकित होकर ताकते ही रहे। सैनिक दौड़ते हुए सेनापति के पास पहुँचे और उन्हें सारी बात बताई। सेनापति ने विश्वास ही नहीं किया - "ये सब क्या कह रहे हो?" सैनिकों ने कहा - "आप एक बार हमारे साथ जंगल चलिये, एक बार खुद देख लीजिए" - सेनापति चल पड़े सैनिको के संग - जैसे ही सेनापति चम्पा और बाँस के पास पहुँचे, चम्पा ने कहा - "ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चंपा?" चम्पा ने कहा - "राजा के सेनापति फूल तोड़े बर आए हे"- बाँस ने कहा, "लग जा बहिनी आकाश"- चम्पा का झाड़ बढ़ते बढ़ते और भी ऊँचे तक पहुँच गया। सेनापति बहुत ही डर गए। दौड़ते दौड़ते पहुँचे मन्त्री के पास - अब मन्त्री चल पड़े देखने के लिए। चम्पा को ऊपर से दूर तक दिखाई दे रहा था, उसने दूर से ही देख लिया कि मन्त्री जी आ रहे हैं। "ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चम्पा", चम्पा ने कहा - "राजा के मन्त्री फूल तोड़े बर आए हे" - "लग जा बहिनी आकाश"- मन्त्री जी जैसे ही पेड़ तक पहुँचे, पेड़ और ऊपर और भी ऊपर तक पहुँच गया। मन्त्री जी सीधे पहुँचे राजा के दरबार में। राजा ने कहा - "इतना घबरा क्यों गये हो?" मन्त्री ने कहा - "आप इसी वक्त मेरे साथ चलिए राजा जी" - सारी बात सुनकर राजा ने कहा - "मेरी छोटी रानी भी मेरे साथ चलेगी। ये तो उन्हें भी देखना चाहिए।" छोटी रानी को खबर देने वही दो सिपाही पहुँचे, जिन्होंने उन बच्चों को वहाँ फेंका था। दोनों खूब डर गये थे। छोटी रानी भी डर गई थी। वे जल्दी से तैयार होकर राजा के साथ चल पड़ी। उधर बड़ी रानी फूल के लिए व्याकुल हो रही थी और सैनिकों को बुला भेजी थी ये जानने के लिए कि वे अब तक फूल क्यों नही लाये। बड़ी रानी, छोटी रानी के महल के पास से गुज़र रही थी, उन्हे छोटी रानी और दो सिपाहियों की बात सुनाई दी। राजा और छोटी रानी जब जाने लगे, उनकी सवारी के पीछे-पीछे बड़ी रानी पैदल ही चलने लगी - बहुत व्याकुल होकर वह चली जा रही थी। चम्पा के झाड़ को ऊपर से सब कुछ दिखाई दे रहा था - जैसे ही वे सब पास पहुँचे "ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चम्पा", चम्पा ने कहा - "छोटी रानी संग राजा फूल तोड़े बर आए हे" - "लग जा बहिनी आकाश"- चम्पा का झाड़ और भी ऊँचा हो गया। राजा दोनों पेड़ो के पास पहुँचकर पूछने लगे - "क्या बात है - तुम दोनों भाई बहिन हो - कैसे चम्पा और बाँस बन गए?" उसी वक्त बड़ी रानी वहाँ तक पहुँची। चम्पा ने जोर से कहा - "ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चम्पा", चम्पा ने कहा - "हमर महतारी, दुखियारी बड़े रानी ह फुलवा तोड़े बर आवथे"- "परो बहिनी पाँव" - चम्पा ज़मीन में झुक गई और बड़ी रानी के पैरों के पास झूमने लगी। साथ-साथ बाँस का झाड़ भी झुककर बड़ी रानी के पैरों को छूने लगा। इसके बाद चम्पा और बाँस ने राजा को सारी बात बताई। राजा ने उसी वक्त छोटी रानी को बन्द करने को कह दिया अंधेरी कोठरी में और बड़ी रानी से माफी मांगने लगे। बड़ी रानी बड़े दुख से चम्पा और बाँस को देख रहे थे। ये दोनों मनुष्य कैसे बनेंगे? बड़ी रानी दोनों के करीब पहुँचकर दोनों से लिपटकर रोने लगी। जैसे ही उनके आँसूओं ने चम्पा और बाँस को छुआ, चम्पा और बाँस मनुष्य बन गये। बेटा, बेटी को बड़ी रानी ने गले से लगा लिया और जाकर रथा में बैठ गई। राजा रानी दोनों बच्चों के साथ राजमहल की ओर चल पड़े, साथ में बाजा, गाजा बजने लगे। पूरे देश में खुशियाँ फैल गई।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
04-03-2013, 08:56 PM | #15 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: लोक कथाएं
कौआ - अनोखा दोस्त
एक कौआ था। वह एक किसान के घर के आँगन के पेड़ पर रहता था। किसान रोज़ सुबह उसे खाने के लिए पहले कुछ देकर बाद में खुद खाता था। किसान खेत में चले जाने के बाद कौआ रोज़ उड़ते-उड़ते ब्रह्माजी के दरबार तक पहुँचता था और दरबार के बाहर जो नीम का पेड़ था, उस पर बैठकर ब्रह्माजी की सारी बातें सुना करता था। शाम होते ही कौआ उड़ता हुआ किसान के पास पहुँचता और ब्रह्माजी के दरबार की सारी बातें उसे सुनाया करता था। एक दिन कौए ने सुना कि ब्रह्माजी कह रहे हैं कि इस साल बारिश नहीं होगी। अकाल पड़ जायेगा। उसके बाद ब्रह्माजी ने कहा - "पर पहाड़ो में खूब बारिश होगी।" शाम होते ही कौआ किसान के पास आया और उससे कहा - "बारिश नहीं होगी, अभी से सोचो क्या किया जाये"। किसान ने खूब चिन्तित होकर कहा - "तुम ही बताओ दोस्त क्या किया जाये"। कौए ने कहा - "ब्रह्माजी ने कहा था पहाड़ों में जरुर बारिश होगी। क्यों न तुम पहाड़ पर खेती की तैयरी करना शुरु करो?" किसान ने उसी वक्त पहाड़ पर खेती की तैयारी की। आस-पास के लोग जब उस पर हँसने लगे, उसे बेवकूफ कहने लगे, उसने कहा - "तुम सब भी यही करो। कौआ मेरा दोस्त है, वह मुझे हमेशा सही रास्ता दिखाता है" - पर लोगों ने उसकी बात नहीं मानी। उस पर और ज्यादा हँसने लगे। उस साल बहुत ही भयंकर सूखा पड़ा। वह किसान ही अकेला किसान था जिसके पास ढेर सारा अनाज इकट्ठा हो गया। देखते ही देखते साल बीत गया इस बार कौए ने कहा - "ब्रह्माजी का कहना था कि इस साल बारिश होगी। खूब फसल होगी। पर फसल के साथ-साथ ढेर सारे कीड़े पैदा होगें। और कीड़े सारी फसल के चौपट कर देंगे।" इस बार कौए ने किसान से कहा - "इस बार पहले से ही तुम मैना पंछी और छछूंदों को ले आना ताकि वे कीड़ों को खा जाये।" किसान ने जब ढेर सारा छछूंदों को ले आया, मैना और पंछी को ले आया, आसपास के लोग उसे ध्यान से देखने लगे - पर इस बार वे किसान पर हंसे नहीं। इस साल भी किसान ने अपने घर में ढेर सारा अनाज इकट्ठा किया। इसके बाद कौआ फिर से ब्रह्माजी के दरबार के बाहर नीम के पेड़ पर बैठा हुआ था जब ब्रह्माजी कर रहे थे - "फसल खूब होगी पर ढेर सारे चूहे फसल पर टूट पड़ेगे।" कौए ने किसान से कहा - "इस बार तुम्हें बिल्लियों को न्योता देना पड़ेगा - एक नहीं, दो नहीं, ढेर सारी बिल्लियाँ"। इस बार आस-पास के लोग भी बिल्लियों को ले आये। इसी तरह पूरे गाँव में ढेर सारा अनाज इकट्ठा हो गया। कौए ने सबकी जान बचाई।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
08-03-2013, 05:18 PM | #16 |
VIP Member
Join Date: Nov 2012
Location: MP INDIA
Posts: 42,448
Rep Power: 144 |
Re: लोक कथाएं
चार मित्र
बहुत दिन पहले की बात है। एक छोटा-सा नगर था, पर उसमें रहने वाले लोग बड़े दिलवाले थे। ऐसे न्यारे नगर में चार मित्र रहते थे। वे छोटी उमर के थे, पर चारों में बड़ा मेल था। उनमें एक था। राजकुमार, दूसरा राजा के मंत्री का पुत्र, तीसरा सहूकार का लड़का और चौथा एक किसान का बेटा। चारों साथ-साथ खाते-पीते और खेलते-घूमते थे। एक दिन किसान ने अपने पुत्र से कहा, “देखो बेटा, तुम्हारे तीनों साथी धनवान हैं और हम गरीब हैं। भला धरती और आसमान का क्या मेल !” लड़का बोला, “नहीं पिताजी, मैं उनका साथ नहीं छोड़ सकता। बेशक यह घर छोड़ सकता हूं।” बाप यह सुनकर आग-बबूला हो गया और लड़के को तुरंत घर छोड़ जाने की अज्ञा दी। लड़के ने भी राम की भांति अपने पिता की अज्ञा शिरोधार्य कर ली और सीधा अपने मित्रो के पास पहुंचा। उन्हें सारी बात बताई। सबने तय किया कि हम भी अपना-अपना घर छोड़कर मित्र के साथ जायंगे। इसके बाद सबने अपने घर और गांव से विदा ले ली और वन की ओर चल पड़े। धीरे-धीरे सूरज पश्चिम के समुन्दर में डूबता गया और धरती पर अंधेरा छाने लगा। चारों वन से गुजर रहे थे। काली रात थी। वन में तरह-तरह की आवाजें सुनकर सब डरने लगे। उनके पेट में भूख के मारे चूहे दौड़ रहे थे। किसान के पुत्र ने देखा, एक पेड़ के नीचे बहुत-से जुगनू चमक रहे हैं।वह अपने साथियों को वहां ले गया और उन्हें पेड़ के नीचे सोने के लिए कहा। तीनों को थका-मांदा देखकर उसका दिल भर गया। बोला, “तुम लोगों ने मेरी खातिर नाहक यह मुसीबत मोल ली।” सबने उसे धीरज बंधाया और कहा, “नहीं-नहीं, यह कैसे हो सकता है कि हमारा एक साथी भूखा-प्यासा भटकता रहे और हम अपने-अपने घरों में मौज उड़ायें। जीयेंगे तो साथ-साथ, मरेंगे तो साथ-साथ।” थोड़ी देर बाद वे तीनों सो गये, पर किसान के लड़के की आंख में नींद कहां! उसने भगवान से प्रार्थना की, “हे भगवान ! अगर तू सचमुच कहीं है तो मेरी पुकार सुनकर आ जा और मेरी मदद कर।” उसकी पुकार सुनकर भगवान एक बूढ़े के रूप में वहां आ गये। लड़के से कहा, “मांग ले, जो कुछ मांगना है। यह देख, इस थैली में हीरे-जवाहरात भरे हैं।” लड़के ने कहा, “नहीं, मुझे हीरे नहीं चाहिए। मेरे मित्र भूखे हैं। उन्हें कुछ खाने को दे दो।” भगवान ने कहा, “मैं तुम्हें भेद की एक बात बताता हूं। वह जो सामने पेड़ है न….आम का, उस पर चार आम लगे हैं-एक पूरा पका हुआ, दूसरा उससे कुछ कम पका हुआ, तीसरा उससे कम पका हुआ और चौथा कच्चा।” “इसमें भेद की कौन-सी बात ?” लड़के ने पूछा। भगवान ने कहा, “ये चारों आम तुम लोग खाओ। तुममें से जो पहला आम खायगा, वह राजा बन जायगा। दूसरा आम खाने वाला राजा का मंत्री बन जायगा। जो तीसरा आम खायगा, उसके मुंह से हीरे निकलेंगे और चौथा आम खानेवाले को उमर कैद की सजा भोगनी पड़ेगी।” इतना कहकर बूढ़ा आंख से ओझल हो गया। तड़के सब उठे तो किसान के पुत्र ने कहा, “सब मुंह धो लो।” फिर उसने कच्चा आम अपने लिए रख लिया और बाकी आम उनको खाने के लिए दे दिये। सबने आम खा लिये। पेट को कुछ आराम पहुंचा तो सब वहां से चल पड़े। रास्ते में एक कुआं दिखाई दिया। काफी देर तक चलते रहने से सबको फिर से भूख-प्यास लग आई। इसिलिए वे पानी पीने लगे। राजकुमार ने मुंह धोने के इरादे से पानी पिया और फिर थूक दिया तो उसके मुंह से तीन हीरे निकल आये। उसे हीरे की परख थी। उसने चुपचाप हीरे अपनी जेब में रख लिए। दूसरे दिन सुबह एक राजधानी में पहुंचने के बाद उसने एक हीरा निकालकर मंत्री के पुत्र को दिया और खाने के लिए कुछ ले आने को कहा। वह हीरा लेकर बाजार पहुंचा ता देतखता क्या है कि रास्ते में बहुत-से लोग जमा हो गये हैं। कन्धे-से-कन्धा ठिल रहा है। गाजे-बाजे के साथ एक हाथी आ रहा है। उसने एक आदमी से पूछा, “क्यों भाई, यह शोर कैसा है ?” “अरे, तुम्हें नहीं मालूम ?” उस आदमी ने विस्मय से कहा। “नहीं तो।” “यहां का राजा बिना संतान के मर गया है। राज के लिए राजा चाहिए। इसलिए इस हाथी को रास्ते में छोड़ा गया है। वही राजा चुनेगा।” “सो कैसे ?” “हाथी की सूंड में वह फल-माला देख रहे हो न ?” “हां-हां।” “हाथी जिसके गले में यह माला डालेगा, वही हमारा राजा बन जायगा। देखो, वह हाथी इसी ओर आ रहा है। एक तरफ हट जाओ।” लड़का रास्ते के एक ओर हटकर खड़ा हो गया। हाथी ने उसके पास आकर अचानक उसी के गले में माला डाल दी। इसी प्रकार मंत्री का पुत्र राजा बन गया। उसने पूरा पका हुआ आम जो खाया था। वह राजवैभव में अपने सभी मित्रों को भूल गया। बहुत समय बीतने पर भी वह नहीं लौटा, यह देखकर राजकुमार ने दूसरा हीरा निकाला और साहूकार के पुत्र को देकर कुछ लाने को कहा। वह हीरा लेकर बाजार पहुंचा। राज को राजा मिल गया था, पर मंत्री के अभाव की पूर्ति करनी थी, इसलिए हाथी को माला देकर दुबारा भेजा गया। किस्मत की बात ! अब हाथी नेएक दुकान के पास खड़े साहूकार के पुत्र को ही माला पहनाई। वह मंत्री बन गया और दोस्तों को भूल गया। इधर राजकुमार और किसान के लड़के का भूख के मारे बुरा हाल हो रहा था। अब क्या करें ? फिर किसान के पुत्र ने कहा, “अब मैं ही खाने की कोई चीज ले आता हूं।” राजकुमार ने बचा हुआ तीसरा हीरा उसे सौंप दिया। वह एक दुकान में गया। खाने की चीजें लेकर उसने अपने पास वाला हीरा दुकानदार की हथेली पर रख दिया। फटेहाल लड़के केपास कीमती हीरा देखकर दुकानदार को शक हुआ कि, हो न हो, इस लड़के ने जरूर ही यह हीरा राजमहल से चुराया होगा। उसने तुरंत पुलिस के सिपाहियों को बुलाया। सिपाही आये। उन्होंने किसानके लड़के की एक न सुनी और उसे गिरफतार कर लिया। दूसरे दिनउेस उमर कैद की सजा सुनाई गई। यह प्रताप था कच्चे आम का। बेचारा राजकुमार मारे चिंता के परेशान था। वह सोचने लगा, यह बड़ा विचित्र नगर है। मेरा एक भी मित्र वापस नहीं आया। ऐसे नगर में न रहना ही अच्छा। वह दौड़ता हुआ वहां से निकला और दूसरे गांव के पास पहुंचा। रास्ते में उसे एक किसान किला, जो सिर पर रोटी की पोटली रखे अपने घर लौट रहा था। किसाननेउसे अपने साथ ले लिया और भोजन के लिए अपने घर ले गया। किसान के घर पहुंचने के बाद राजकुमार ने देखा कि किसान की हालत बड़ी खराब है। किसान ने उसे अच्छी तरह नहलाया और कहा, मैं गांव का मुखिया था। रोज तीन करोड़ लोगों को दान देता था, पर अब कौड़ी-कौड़ी के लिए मोहताज हूं। राजकुमार बड़ा भूखा था, उसने जो रूखी-सूखी रोटी मिली, वह खा ली। दूसरे दिन सुबह उठने के बाद जब उसने मुंह धोया तो फिर मुंह से तीन हीरे निकले। वे हीरे उसने किसान को दे दिये। किसान फिर धनवान बन गया और उसने तीन करोड़ का दान फिर से आरम्भ कर दिया। राजकुमार वहीं रहने लगा और किसान भी उससे पुत्रवत् प्रेम करने लगा। किसान के खेत में काम करने वाली एक औरत से यह सुख नहीं देखा गया। उसने एक वेश्या को सारी बात सुनाकर कहा, “उस लड़के को भगाकर ले आओ तो तुम्हें इतना धन मिलेगा कि जिन्दगी भर चैन की बंसी बजाती रहोगी।” अब वेश्या ने एक किसान-औरत का रूप रख लिया और किसान के घर जाकर कहा, “मैं इसकी मां हूं। यह दुलारा मेरी आंखों का तारा है। मैं इसके बिना कैसे ज सकूंगी ? इसे मेरे साथ भेज दो।” किसान को उसकी बात जंच गई। राजकुमार भी भुलावे में आकर उसके पीछे-पीछे चल दिया। घर आने पर वेश्या ने राजकुमार को खूब शराब पिलाई। उसने सोचा, लड़का उल्टी करेगा तो बहुत-से हीरे एक साथ निकल आयंगे। उसकी इच्छा के अनुसार लड़के को उल्टी हो गई। लेकिन हीरा एक भी नहीं निकला। क्रोधित होकर उसने राजकुमार को बहुत पीटा और उसे किसान के मकान के पीछे एक गडढे में डाल दिया। राजकुमार बेहोश हो गया था। होश में आने पर उसने सोचा, अब किसानके घर जाना ठीक नहीं होगा, इसलिए उसने बदन पर राख मल ली और संन्यासी बनकर वहां से चल दिया। रास्ते में उसे सोने की एक रस्सी पड़ी हुई दिखाई दी। जैसे ही उसने रस्सी उठाई, वह अचानक सुनहरे रंग का तोता बनगया। तभी आकाशवाणी हुई, “एक राजकुमारी नेप्रण किया है कि वह सुनहरे तोते के साथ ही ब्याह करेगी।” अब तोता मुक्त रूप से आसमान में उड़ता हुआ देश-देश की सैर करने लगा। होते-होते एक दिन वहउसी राजमहल के पास पहुंचा, जहां की राजकुमारी दिन-रात सुनहरे तोते की राह देख रही थी और दिन-ब-दिन दुबली होती जा रही थी। उसने राजा से कहा, “मैं इस सुनहरे तोते के साथ ही ब्याह करूंगी।” राजा को बड़ा दु:ख हुआ कि ऐसी सुन्दर राजकुमारी एक तोते के साथ ब्याह करेगी! पर उसकी एक न चली। आखिर सुनहरे तोते के साथ राजकुमारी का ब्याह हो गया। ब्याह होत ही तोता सुन्दरराजकुमार बन गया। यह देखकर राजा खुशी से झूम उठा। उसने अपनी पुत्री को अपार सम्पत्ति, नौकर-चकर, घोड़े और हाथी भेंट-स्वरूप दिये। आधा राज्य भी दे दिया। नये राजा-रानी अपने घर जाने निकले। राजा पहले गांव के मुखिया किसानसे मिलने गया, जो फिर गरीब बन गया था। राजा ने उसे काफी संपत्ति दी, जिससे उसका तीन करोड़ का दान-कार्य फिर से चालू हो गया। अब राजकुमार को अपने मित्रों की याद आई। उसने पड़ोस के राज्य की राजधानी पर हमला करने की घोषणा की, पर लड़ाई आरंभ होने से पहले ही उस राज्य का राजा अपने सरदारों-मुसाहिबों सहित राजकुमार से मिलने आया। उसने अपना राज्य राजकुमार के हवाले करने की तैयारी बताई। राजा की आवाज से राजकुमार ने उसे पहचान लिया और उससे कहा, “क्यों मित्र, तुमने मुझे पहचाना नहीं?” दोनों ने एक-दूसरे को पहचना तो दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब दोनों ने मिलकर अपने साथी, किसान केपुत्र को खोजना आरम्भ किया। राजकुमार को यह बात खलने लगी कि उसकी खातिर मित्र को कारावास भुगतना पड़ा। जब सब कैदियों को रिहा किया गया तो उनमें किसान का लड़का मिलगया। राजकुमार ने उसका आलिंगन किया और अपना परिचय दिया। किसान का लड़का खुशी से उछल पड़ा। सब फिर से इकट्ठे हो गए। इसके बाद सबने अपनी-अपनी सम्पत्ति एकत्र की और उसके चार बराबर हिस्से किए। सबको एक-एक हिस्सा दे दिया गया। सब अपने गांव वापस आ गये। माता-पिता से मिले। गांव भर में खुशी की लहर दौड़ गई सबके दिन सुख से बीतने लगे।
__________________
मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
08-03-2013, 05:20 PM | #17 |
VIP Member
Join Date: Nov 2012
Location: MP INDIA
Posts: 42,448
Rep Power: 144 |
Re: लोक कथाएं
जटा हलकारा
नपुंसक पति की घरवाली-सी वह शोकभरी शाम थी। अगले जन्म की आशा के समान कोई तारा चमक रहा था। अंधेरे पखवाड़े के दिन थे। ऐसी नीरस शाम को आंबला गांव के चबूतरे पर ठाकुरजी की आरती की सब बाट देख रहे थे। छोटे-छोटे अधनंगे बच्चों की भीड़ लगी थी। किसी के हाथ में चांद-सी चमकती कांसे की झालर झूल रही थी तो कोई बड़े नगाड़े पर चोट लगाने की प्रतीक्षा कर रहा था। छोटे-छोटे बच्चे इस आशा से नाच रहे थे कि प्रसाद में उन्हें मिस्री का एकाध टुकड़ा, नाररियल की एक-दो फांकें तथा तुलसी दल से सुगंधित मीठा चरणमृत मिलेगा। बाबाजी ने अभी तक मंदिर को खोला नहीं था। कुंए के किनारे पर बैठे बाबाजी स्नान कर रहे थे। बड़ी उम्र के लोग नन्हें बच्चों को उठाये आरती की प्रतीक्षा में चबूतरे पर बैठे थे। सब चुप्पी साधे थे। उनके अंतर अपने आप गहरारई में ब्ैठते जा रहे थे। यह ऐसी शाम थी। बड़ी उदास थी आज की शाम। अत्यंत धीमी आवाज में किसी ने बड़े दु:ख से कहा, “ऋतुएं मंद पड़ती जा रही है।” दूसरा इस दु:ख में वृद्वि करते हुए बोला, “यह कलियुग है। अब कलियुग में ऋतुएं खिलती नहीं हैं। खिलें तो कैसे खिलें!” तीसरे ने कहा, “ठाकुरजी का मुखारबिन्दु कितना म्लान पड़ गया है।” चौथा बोला, “दस वर्ष पहले उनके मुख पर कितना तेज था।” बड़-बूढ़े लोग धीमी आवाज में तथा अधमुंदी आंखों से बातों में तल्लीन थे। उसी समय आंबला गांव के बाजार में दो व्यक्ति सीधे चले आ रहे थे। आगे पुरुष और पीछे स्ती्र। पुरुष की कमर में तलवार और हाथ में लकड़ी थी। स्त्री के सिर पर बड़ी गठरी थी। पुरुष को एकदम पहचाना नहीं जा सकता था, परंतु राजपूतनी अपने पैरों कीचाल से ओर घेरदार लहंगे तथा ओढ़नी से पहचानी जाती थी। राजपूत ने लोगों को ‘राम-राम’ नहीं किया, इससे गांव के लोग समझ गये किये अजनबी हैं। अपनी ओर से ही लोगों ने कहा, ‘राम-राम’। उत्तर में ‘राम-राम’ कहकर यात्री जल्दी-जल्दी आगे चल पड़ा। उसके पीछे राजपूतनी अपने पैरों की एड़ियों को ढकती हुई बढ़ चली। एक-दूसरे के मुंह की ओर देखकर लोगों ने कहा, “ठाकुर, कितनी दूर जाना है ?” “यही कोई आधा मील।” जवाब मिला। “तब तो आत लोग यहां रुक जाइये ? “ “क्यों ? इतना जोर क्यों दे रहे हैं?” यात्री ने कुछ तेजी से कहा। “इसका कोई खास कारण तो नहीं है, परंतु समय अधिक हो गया और साथ में महिला है। इसी से हम कह रहे हैं। अंधेरे में अकारण जोखिम क्यों लेते हैं? फिर यहां हम सब आपके ही भाई-बंद तो हैं। इसलिए आप रुक जाइये।” मुसाफिर ने जवाब दिया, “अपनी ताकत का अंदाजा लगा करके ही मैं सफर करता हूं। मार्दों के लिए समय-समय क्या होता है ! अब तक तो अपने से बढ़कर कोई बहादुर देखा नहीं है।” आग्रह करने वाले लोगों को बड़ा बुरा लगा। किसी ने कहा, “ठीक है, वरना चाहते हैं तो इन्हें मरने दो।” राजपूत और राजपूतानी आगे बढ़ गये। दोनों जंगल में चले जा रहे थे। सूर्य अस्त हो गया था। दूर से मंदिर में आरती के घंटे की ध्वनि सुनाई दे रही थी। दूर के गांवों के दीपक टिमटिमा रहे थे और कुत्ते भौंक रहे थे। मुसाफिर ने अचानक पीछे घुंघरू की आवाज सुी। राजपूतनी ने पीछे मुड़कर देखा तो उसे सणोसरा का जटा हलकारा कंधे पर डाक की थैली लटकाये, हाथ में घुंघरू वाला भाला लिये, जाते हुए दिखाई दिया। उसकी कमर में फटे मयानवाली तलवार लटकी हुई थी। जटा हलकारा दुनिया की आशा-निराशा और शुभ-अशुभ की थैली कंधे पर लेकर जा रहा था। कुछ परदेश गये पुत्रों की वृद्व माताएं ओर प्रवासियों की स्त्रियां साल-छ: महीने में चिटठी मिलने की आस लगाये बैठी राह देखती होगी, यह सोचकर नहीं,बल्कि देरी हो जायेगी तो वेतन कट जरयगा, इस डर से जटा हलकारा दौड़ा जा रहा था। भाले के घुंघरू इस अंधेरे एकांत रात में उसके साथी बने हुए थे। देखते-ही-देखते हलकारा पीछे चलती राजपूतनी के पास पहुंच गया। दोनों ने एक-दूसरे की कुशल पूछी। राजपूतनी का मायका सणोसरा में था। हलकारा सणोसरा से ही आ रहा था। इसलिए राजपूतनी अपने मां-बाप के समाजचार पूछने लगी। पीहर के गांव से आनेवाले अपरिचित पुरुष को भी स्त्री अपने सगे भाई-सा समझती है। दोनों बातें करते हुए साथ चलने लगे। राजपूत कुछ कदम आगे था। राजपूतनी को पीछे रह जाते देखकर उसने मुड़कर देखा। दूसरे आदमी के साथ बातें करते देखकर उसने उसको भला-बुरा कहा और धमकाया। राजपूतनी ने कहा, “मेरे पीहर का हलकारा है। मेरा भाई है।” “देख लिया तेरा भाई ! चुपचाप चली आ।” राजपूत ने भौंहें चढ़ाकर कहा, फिर हलकारे से बोला, “तुम भी तो आदमी-आदमी को पहचानो।” ठीक है, बापू !” यों कहकर हलकारे ने अपननी चाल धीमी करदी। एक खेत जितनी दूरी रखकर वह चलने लगा। जब यह राजपूत जोड़ी नदी पर पहुंची तो एक साथ बाररह आदमियों ने ललकारा, “खबरदार, जो आगे बढ़े ! तलवार नीचे डाल दो।” राजपूत के मुंह से दो-चार गालियां निकलीं, परंतु म्यान से तलवार नहीं निकल पायी। आंबला गांव के बाहर कोलियों ने आकर उस राजपूत को रस्सी से बांध दिया और दूर पटक दिया। “बाई, गीहने उतार दो।” एक लुटेरे ने राजपूतनी से कहा। बेचारी राजपूतनी अपने शरीर पर से एक-एक गहना उतारने लगी। हाथ, पैर, सीना आदि अंग लुटेरों की आंखों के आगे आये। उसकी भरी हुई देह ने लुटेरों की आंखों में काम-वासना उभार दी। जवान कोलियों ने पहले तो उसका मजाक उड़ाना शुरू किया। राजपूतनी शांत रही, लेकिन जब लुटेरे बढ़कर उसके निकट आने लगे तो जहरीली नागिन की तरह फुफकारती हुई राजपूतनी खड़ी हो गई। कोलियों ने यह देखकर अटटहास करते हुए कहा, “अरे ! उस समी की पूंछ को धरती पर पटक दो !” अंधेरे में राजपूतनी ने आकश की ओर देखा। जटा हलकारा के घुंघरू की आवाज उसके कानों में पड़ी। राजपूतनी चीख उठी, “भाई, दौड़ो ! बचाओ !” हलकारे ने तलवार खींच ली और पलक मारते वहां जा पहुंचा। बोला, “खबरदार, जो उस पर हाथ उठाया !” बारह कोली लाठियां लेकर उस पर टूट पड़े। हलकारे ने तलवार चलायी और सात कोलियों को मौत के घाट उतार दिया। उसके सिर पर लाठियों की वर्षा हो रही थी, परंतु हलकारे को लाठियों की चोट का पता ही नहीं था। राजपूतनी ने शोर मचा दिया। मारे डर के बचे हुए लुटेरे भाग गये। उनके जाते ही हलकारा चक्कर खाकर गिर पड़ा ओर उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। राजपूतनी ने अपने पति की रस्सियां खोल दीं। उठते ही राजपूत बोला, “अब हम चलें।” “कहां चलें?” स्त्री ने दु:खी होकर कहा, “तुम्हें शर्म नहीं आती ! दो कदम साथ चलनेवाला वह ब्राह्राण, घड़ी भर की पहचान के कारण, मेरे शील की रक्षा करते मरा पड़ा है। और मेरे जन्म भर के साथी, तुम्हें अपना जीवन प्यारा लगता है ! ठाकुर, चले जाओ अपने रास्ते। अब हमारा काग और हंस का साथ नहीं हो सकता। मैं तो अब अपने बचानेवाले ब्राह्राण की चिता में ही भस्म हो जाऊंगी !” “ठीक है, तेरी जैसी मुझे और मिल जायगी।” कहता हुआ राजपमत वहां से चला गया। हलकारे के शव को गोद में लेकर राजपूतनी सवेरे तक उस भयंकर जंगल में बैठी रही। उजाला होने पर उसने इर्द-गिर्द से लकड़ियां इकटठी करके चिता रची। शव को गोद में लेकर स्वयं चिता पर चढ़ गई। अग्नि सुलग उठी। दोनों जलकर खाक हो गये। कायर पति की सती स्त्री जैसी शोकातुर संध्या की उस घड़ी में चिता की क्षीण ज्योति देर तक चमकती रही। आंबला और रामधारी के बीच के एक नाले में आज भी जटा और सती की स्मृति सुरक्षित है।
__________________
मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
08-03-2013, 05:21 PM | #18 |
VIP Member
Join Date: Nov 2012
Location: MP INDIA
Posts: 42,448
Rep Power: 144 |
Re: लोक कथाएं
महाकाल की दृष्टि
देव-समाज के वृहद् महोत्सव का आयोजन हो रहा था। सभी देवता अपने-अपने वाहनों में आ रहे थे। महादेव शंकर सभा में प्रवेश कर रहे थे। उन्होंने सभा-भवन के बाहर स्थित एक वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए एक शुक की ओर कुछ गम्भीर दृष्टि से देखा। शंकर तो सभा-भवन में चले गये, किंतु उस शुक के मन में चिंता उत्पन्न हो गयी। समीप बैठे गरुड़ से उसने अपनी आशंका का निवेदन किया। उसके बचने का उपाय सोचकर गरुड़ ने कहा, “शुकराज, मैं तुम्हें द्रुतगति से अनेक समुद्रों को पार करा कर किसी सुरक्षित स्थान पर छोड़ आता हूं। चिंता मत करो।” गरुड़ ने पूरी शक्ति से उड़कर बहुत कम समय में अनेक समुद्र पार करके उसे दूर कहीं सुरक्षित स्थान पर बैठा दिया। शुक्र आश्वस्त हो गया कि वह प्रलयकर शंकर की कठोर दृष्टि से बच गया। गरुड़ लौटकर पुन: उसी वृक्ष पर जा बैठा और उत्सुकता से शंकर के सभा से बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगा। शंकर निकले। उन्होंने पुन: वृक्ष की उसी शाखा की ओर देखा। गरुड़ ने सहम कर उनकी गम्भीर दृष्टि का कारण पूछा। शंकर बोले, “शुक्र कहां है ?” गरुड़ ने कहा, “भगवान् ! शुक आपकी तीक्ष्ण दृष्टि से भयभीता हो गया था और मैंने उसे दूर एक सुक्षित स्थान पर बैठा दिया है।” शंकर ने कहा, “यही तो मेरा आश्चर्य था कि कुछ ही क्षण के बाद वह शुक उसी स्थान पर एक महासर्प द्वारा कवलित हो जायगा। तुमने उस समस्या का उपाय कर दिया।”
__________________
मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
08-03-2013, 05:24 PM | #19 |
VIP Member
Join Date: Nov 2012
Location: MP INDIA
Posts: 42,448
Rep Power: 144 |
Re: लोक कथाएं
नाविक का दायित्व
एक नौका जनल में विहार कर रही थी। अकस्मात् आकाश में मेघ घिर आये और घनघोर वर्षा होने लगी। वायु-प्रकोप ने तूफान को भीषण करदिया। यात्री घबराकर हाहाकार करने लगे और नाविक भी भयभीत हो गया। नाविक ने नौका को तट पर लाने के लिए जी-जान से परिश्रम करना प्रारम्भ कर दिया। वह अपने मजबूत हाथों से नाव को खेता ही रहा, जब तक कि वह बिल्कुल थक ही न गया। किंतु थकने पर भी वह नाव को कैसे छोड़ दे ? वह अपने थके शरीर से भी नौका को पार करने में जुट गया। धीरे-धीरे नौका में जल भरने लगा और यात्रियों के द्वारा पानी को निकालने का प्रयत्न करने पर भी उसमें लज भरती ही गया। नौका धीरे-धीरे भारी होने लगी, पर नाविक साहसपूर्वक जुटा ही रहा। अंत में उसे निराशा ने घेर लिया। अभी किनारा काफी दूर था और नौका जल में डूबने लगी। नाविक ने हाथ से पतवार फेंक दी, और सिर पकड़कर बैठ गया। कुछ ही क्षणों में मौका डूब गयी। सभी यात्री प्राणों से हाथ धो बैठे। यमराज के पार्षद आये और नाविक को नरक के द्वार पर ले गये। नाविक ने पूछा, “कृपा करके मेरा अपराध तो बताओ कि मुझे नरक की ओर क्यों घसीटा जा रहा है ?” पार्षदों ने उत्तर दिया, “नाविका, तुम पर मौका के यात्रियों को डुबाने का पाप लगा है।” नाविक चकित होकर बोला, “यह तो कोई न्याय नहीं है। मैंने तो भरसक प्रयत्न किया कि यात्रियों की रक्षा हो सके।” पार्षदों ने उत्तर दिया, “यह ठीक है कि तुमने परिश्रम किया, किंतु तुमे अंत में नौका चलाना छोड़ दिया था। तुम्हारा कर्तव्य था कि अंतिम श्यास तक नौका को खेते रहते। नौका के यात्रियों की जिम्मेदारी तुम पर थी। तुम पर उनकी हत्या का दोष लगा है।”
__________________
मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
Bookmarks |
|
|