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#41 | |
Special Member
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वैसे मुझे पता है की आप यहाँ अधिक लम्बा लेख नहीं लिख सकते, व्यावसायिक मजबूरियां हैं किन्तु एक सारगर्भित लेख की आशा अवश्य है आपसे बन्धु | |
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#42 | |
Member
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क्या है हम - अकेले डर लगता है इसलिए संगठन बनाते है धर्म भी संगठन ही है डर के चलते और अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में अपने धर्म को श्रेष्ट और विकार रहित मानते है. ज्यादा से ज्यादा संख्या बढ़ाना चाहते है. लेकिन खुद हमने न इश्वर को पाया है और न दुसरे को पाने में मदद कर सकते. मजे की बात तो ये है की संख्या बढ़ाकर भी हम फिर से कम होकर अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने में लग जाते है यानी अकेले भी नहीं रह सकते और सबके साथ भी गुम नहीं होना चाहते. भीड़ या संगठन या धर्म में भी अपनी पहचान या श्रेष्ठता भी साबित करना चाहते है. अनेक पंथ और अनेक देव का यह भी एक कारण है. ठीक यही बात जातियों में है. बात जब वृहद् स्तर पे है तो ब्राहमण बड़ा है बात जब केवल ब्रह्मण के स्तर पे है तो ब्रह्मण में एक विशेष गौत्र श्रेष्ठ है और बात जब एक गौत्र की है तो उसमे भी एक विशेष उप गौत्र श्रेष्ठ है और बात जब उस विशेष उप गौत्र की है तो उसमे खाली इस क्षेत्र में रहने वाला श्रेष्ठ है. यानी दुनिया में भारत श्रेष्ठ है भारत में मेरा राज्य और मेरे राज्य में मेरा शहर और मेरे शहर में मेरा घर और मेरे घर में में. |
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#43 | |
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![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: राँची, झारखण्ड
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श्रेष्ठ होने का दंभ भरना मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है। मेरा तो मानना है की मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है। अगर मानवता इंसान को इंसान से जोड़ती है तो धर्म या पंथ इसे तोड़ती है। एक आदम जात ही ऐसी जीव है जो धर्म, पंथ या जात के नाम पर भेदभाव, अत्याचार और खून खराबा करती है, बाकी किस अन्य जीव मे आपको यह प्रवृति देखने को नहीं मिलेगा। और अगर हम यह मान भी ले की भगवान या ईश्वर है, तो आप खुद ही सोचिए, क्या उसे धर्म का यह रूप पसंद होगा? |
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