09-12-2010, 08:33 PM | #21 |
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Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
दो.-तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ।।10क।। तब मुनिने सुमन्त्र जी से कहा, वे सुनते ही हर्षित हो चले। उन्होंने तुरंत ही जाकर अनेकों रथ, घोड़े औऱ हाथी सजाये; ।।10(क)।। जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ। हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ।।10ख।। और तहाँ-तहाँ [सूचना देनेवाले] दूतों को भेजकर मांगलिक वस्तुएँ मँगाकर फिर हर्षके साथ आकर वसिष्ठ जी के चरणों में सिर नवाया।।10(ख)।। |
09-12-2010, 08:35 PM | #22 |
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Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
नवाह्रपारायण, आठवाँ विश्राम चौ.-अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई।।
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई।।1।। अवधपुरी बहुत ही सुन्दर सजायी गयी देवताओंने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी। श्रीरामन्द्रजीने सेवकोंको बुलाकर कहा कि तुमलोग जाकर पहले मेरे सखाओंको स्नान कराओ।।1।। सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए।। पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे।।2।। भगवान् के वचन सुनते ही सेवक जहाँ-तहाँ और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादि को स्नान कराया। फिर करुणानिधान श्रीरामजीने भरतजी को बुलाया और उनकी जटाओंको अपने हाथोंसे सुलझाया।।2।। |
17-12-2010, 09:02 AM | #23 |
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Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर&
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई।।
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई।।3।। तदनन्तर भक्तवत्सल कृपालु प्रभु श्रीरघुनाथजीने तीनों भाइयों को स्नान कराया। भरत जी का भाग्य कोमलताका वर्णन अरबों शेषजी भी नहीं कर सकते।।3।। पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए।। करि मज्जन प्रभु भूषण साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे।।4।। फिर श्रीरामजीने अपनी जटाएँ खोलीं और गुरुजीकी आज्ञा माँगकर स्नान किया। स्नान करके प्रभुने आभूषण धारण किये। उनके [सुशोभित] अंगोंको देखकर सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गये।।4।। |
17-12-2010, 09:02 AM | #24 |
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Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर&
दो.-सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।।
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ।।11क।। [इधर] सासुओंने जानकीजी को आदरके साथ तुरंत ही स्नान कराके उनके अंग-अंगमें दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण भलीभाँति सजा दिये (पहना दिये)।।11(क)।। राम बाम दिसि सोभति रमा रुप गुन खानि। देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि।।11ख।। श्रीरामजीके बायीं ओर रूप और गुणोंकी खान रमा (श्रीजानकीजी) शोभित हो रही हैं। उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं।।11(ख)।। सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद। चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद।।11ग।। [काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे पक्षिराज गरुड़जी ! सुनिये; उस समय ब्रह्माजी, शिवजी और मुनियों के समूह तथा विमानोंपर चढ़कर सब देवता आनन्दकन्द भगवान् के दर्शन करने के लिये आये।।11(ग)।। |
17-12-2010, 09:06 AM | #25 |
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Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
चौ.-प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा।।
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।।1।। प्रभुको देखकर मुनि वसिष्ठ जी के मन में प्रेम भर आया। उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मँगवाया, जिसका तेज सूर्यके समान था। उसका सौन्दर्य वर्णन नहीं किया जा सकता। ब्राह्मणों को सिर नवाकर श्रीरामचन्द्रजी उसपर विराज गये।।1।। जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई।। बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे।।2।। श्रीजानकीजीके सहित श्रीरघुनाथजीको देखकर मुनियों का समुदाय अत्यन्त ही हर्षित हुआ। तब ब्राह्मणों ने वेदमन्त्रोंका उच्चारण किया। आकाशमें देवता और मुनि जय हो, जय हो ऐसी पुकार करने लगे।।2।। प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।। सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी।।3।। [सबसे] पहले मुनि वसिष्ठजीने तिलक किया। फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को [तिलक करनेकी] आज्ञा दी। पुत्रको राजसिंहासनपर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी।।3।। बिप्रन्ह दान बिबिधि बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे।। सिंघासन पर त्रिभुवन साईं। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं।।4।। उन्होंने ब्राह्मणों को अनेकों प्रकारके दान दिये और सम्पूर्ण याचकों को अयाचक बना दिया (मालामाल कर दिया)। त्रिभुवन के स्वामी श्रीरामचन्द्रजीको [अयोध्या के ] सिंहासन पर [विराजित] देखकर देवताओंने नगाड़े बजाये।।4।। |
17-12-2010, 09:08 AM | #26 |
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Re: सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड श्लोक(श्रीरामचर
छं.-नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं।। भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते। गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते।।1।। आकाशमें बहुत-से नगाड़े बज रहे हैं गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं। अप्सराओंके झुंड-के-झुंड नाच रहे हैं। देवता और मुनि परमानन्द प्राप्त कर रहे हैं। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी, विभीषण, अंगद, हनुमान् और सुग्रीव आदिसहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और सक्ति लिये हुए सुशोभित हैं।।1।। श्री सहित दिनकर बंस भूषन काम बहु छबि सोहई। नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई।। मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे। अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे।।2।। श्रीसीताजी सहित सूर्यवंश के विभूषण श्रीरामजीके शरीर में अनेकों कामदेवों छवि शोभा दे रही है। नवीन जलयुक्त मेघोंके समान सुन्दर श्याम शरीरपर पीताम्बर देवताओंके के मन को मोहित कर रहा है मुकुट बाजूबंद आदि बिचित्र आभूषण अंग अंग में सजे हुए है। कमल के समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं; जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं।।2।। |
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