09-08-2013, 06:55 PM | #31 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
09-08-2013, 06:55 PM | #32 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
"तुम जानते हो ट्रेन में हम वो सब सोच लेते हैं जो आमतौर पर हम सोच नहीं पाते..मुझे तो ट्रेन के सफ़र में अक्सर बड़े वीयर्ड लेकिन कमाल के ख्याल और आइडिया आते हैं" उसने ट्रेन की खिड़की से बाहर देखते हुए कहा था.
मैंने पहले कभी ऐसा नहीं सोचा था, और मुझे लगा की वो शायद ठीक ही कह रही है.वो बहुत देर तक अपने सभी वीयर्ड और पागलपन वाले ख्यालों को एक एक कर के गिनाते रही थी, जो की मैं लगभग भूल सा गया हूँ...सबसे वीयर्ड जो उसने उस रात बात कही थी, बस वो याद रह गयी - "जानते हो मुझे हमेशा से सुपरपावर वाले स्टफ़ बड़े फैस्नेट करते हैं...मैं सोचती हूँ की कितना अच्छा होता अगर मेरे हाथ कोई सुपरपावर आ जाए.. मैं बस अपनी उँगलियों से इशारा करूँ और कुछ करामात हो जाए...किसी के कंधे पर हाथ रख दूँ और उसका सारा दुःख दूर हो जाए(मुझे याद आने लगा की वो हमेशा मेरे कंधे पर हाथ रखती थी)...मैं ट्रेन पर हमेशा ये बात सोचती हूँ की अगर मेरे पास कोई सुपरपवार आ जाए तो मैं क्या क्या करुँगी".वो ऐसे कई बातें गिनाती आ रही थी...
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09-08-2013, 06:56 PM | #33 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
हम रात भर जागे रहे थे...उसके साथ उस रात ट्रेन पर बीता वक़्त बहुत अच्छा लग रहा था.मुझे रह रह कर उस दिन की बातें याद आ रही थी जब हम लखनऊ से वापस आ रहे थे, और वो रास्ते भर बीमार रही थी.कुछ वैसा ही यादगार ये सफ़र भी बीत रहा था..सुबह के वक़्त एक स्टेशन पर मैं चाय लेने नीचे उतरा और जैसे ही ट्रेन खुलने लगी थी, उसने इतने जोर से मुझे आवाज़ देकर बुलाया था की मैं भी जल्दबाजी में भागते हुए ट्रेन पर चढ़ गया था, जल्दबाजी में चाय वाले से छुट्टे पैसे लेना भी भूल गया और पुरे पचास रुपये उसके हवाले कर आया था.उसने कहा की वो डर गयी थी की कहीं मैं पीछे न छुट जाऊं.
हमारी ट्रेन रास्ते में और दो घंटे और लेट हो गई थी, और दोपहर के वक़्त पहुंची थी....सुबह से लेकर दोपहर तक का सारा वक़्त फिर से दीदी के किस्सों को सुनते हुए बीता था. मैं बहुत खुश था, मैं दिल्ली की बहुत सी खूबसूरत यादों को साथ लेकर वापस अपने शहर पहुंचा था...और एक बिलकुल पोजिटिव एनेर्जी खुद में महसूस कर रहा था.मुझे रह रह कर दिल्ली में बिताये उन तीन दिनों की याद आ रही थी..उन यादगार लम्हों की याद जिसे मैंने अपनी सबसे अच्छी दोस्त के साथ बीताये थे...और जो हमेशा हमेशा के लिए मेरे दिल में फ्रीज़ होकर रह गयीं..
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09-08-2013, 06:57 PM | #34 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
उपसंहार .......
अब सोचता हूँ तो बड़ा 'फनी' लगता है की दस साल बाद मैं इस शहर में रहने लगा हूँ, और ये जून का महिना है और अब भी मैं उन जगहों पर घूमता हूँ जहाँ उन तीन दिन तक उसके साथ घूमता रहा था..जब भी कनौट प्लेस के गलियारों में टहलता हूँ, तो मुझे याद आता है की कनौट प्लेस की बेंच पर बैठकर उसने मेरे से कहा था "देख लेना आज से दस बारह साल बाद जब हम इस शहर में रह रहे होंगे तब हम इस बात को याद कर के हसेंगे की हम यहाँ के महंगे होटल अफोर्ड नहीं कर सकते थे इसलिए सारा दिन ट्रोली वाली आईसक्रीम खाते रहे थे...".आज उस बात को बीते दस साल हो भी चुके हैं और सच कहूँ तो अब ये एक भ्रम सा लगता है, किसी दुसरे जन्म की बात सी लगती है...यकीन ही नहीं होता की आज से दस साल पहले मैंने कभी तीन दिन उसके साथ बिताये थे. पहाड़गंज में अब भी वो होटल स्कॉट है उसी गली में जहाँ उसके पाँव ठिठक गए थे और वो कुछ कहते कहते रुक गयी थी.वो कैफे भी अब भी वहीँ हैं...बारिश की एक शाम जब उस कैफे के आगे से गुज़र रहा था तो कुछ देर सड़क पर खड़े रहकर उस कैफे को देखता रहा..अन्दर जाने की मेरी कोई ईच्छा नहीं हो रही थी..लेकिन तभी एक पागलपन सा ख्याल भी आया की मैं कैफे के अन्दर जाऊं और पूछूं की आज से दस साल पहले हम यहाँ आये थे और उस कोने वाले टेबल पर हम बैठे थे...और वहां मेरी दोस्त का एक रुमाल और बालों के क्लिप छुट गए थे..क्या मुझे वो मिल सकते हैं अब?. मैं अपने इस ख्याल पर खुद ही हँसने लगता हूँ और सोचने लगता हूँ की मैं भी उसकी तरह बातें करने लगा हूँ, उसके जैसे ही सोचने लगा हूँ. =======x=x=x=x============
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