12-09-2013, 07:53 PM | #1 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
कहानी : नायिका - अनिल कान्त
वे सब एक-एक करके मेरी जिंदगी में आये या यूँ कहूँ कि उनकी जिंदगियों में मैं आया. कभी-कभी ऐसा होता है कि दुनियावी रौशनी में कोई एक शख्स आपको अलग ही रौशनी में नहाया दिखाई पड़ता है. उस झूठ के संसार में सच का दिया जलाए रखने वाला शख्स. वह हर उन पलों में आपको बेहद करीब और अपना लगता है, जितना आप उसे जानने और समझने लगते हैं. वे तीनों मेरी जिंदगी के आकाश में आ गए बेशकीमती सितारे हैं. उन्हें पा लेने जितना हुनर मुझे नहीं आता, वे तो स्वंय ही मेरी किस्मत के दामन में आ गए. कैसे, क्यों और किस तरह से यह सब हुआ, इतना जानने समझने का वक़्त ही नहीं मिला. बहरहाल.... वे मेरी जिंदगी की किताब के बेहद महत्वपूर्ण पात्र हैं. उनके बिना यह किताब लिखी ही नहीं जा सकती. हाँ उनके होने से यह किताब अनमोल अवश्य हो जाती है.
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
12-09-2013, 07:54 PM | #2 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: कहानी : नायिका - अनिल कान्त
उनकी उम्र रही होगी यही कोई पैंतीस-सैंतीस साल. हाँ बाद के दिनोंमें जब उनका जन्म दिन आया तो उनकी उम्र में एक-आध बरस का इजाफा और हुआ होगा. बहरहाल......
सवाल उम्र का नहीं-समझ और विचारों का है. वे पहली नज़र में ही समझदार और सुलझी हुई महिला नज़र आती हैं. हाँ, जैसे-जैसे आप उनके करीब पहुँचते जाते हैं, और वे आपको मित्र के रूप में अपना लें तो उनके दिल की गिरहें खुलती चली जाती हैं. और उनके दिल में रह रही तमाम उलझनें आपसे रू-ब-रू होने लगती हैं. हाँ इसके लिए आपका इंसान होना आवश्यक है. नहीं तो आप उनके दिल के बाहर खड़ी दीवार तक भी पहुँच सकें, ये आसान जान नहीं पड़ता. वे दिमाग से सुलझी हुई और दिल से बेहद उलझी हुई स्त्री हैं- ऐसा मैंने हमारी पहचान के बाद दिनों में कहा था. और वे मुस्कुरा उठी थीं. उनमें चुम्कीय आकर्षण है. जो आपको खींचे ही चला जाता है. जितनी वे बाहर से खूबसूरत दिखती हैं, असल में उससे कई गुना वे दिल से खूबसूरत हैं. किसी एक रोज़ मैंने उनकी आंतरिक खूबसूरती के मोहवश उनसे कहा था. यदि आप मेरी हम उम्र होतीं तो शायद मैं आपके प्रति प्रेमिका रूपी मोह में पड़ जाता. तब उन्होंने अपने मन के बेहद कोमल कोणों से इस बात को जाना और समझा था. और हम करीब से करीब आ गए थे. वे मेरी बेहद प्रिय मित्र हैं. मेरी जिंदगी में उनका निजी और महत्वपूर्ण स्थान है. जब वे साहित्यिक चर्चाएँ करती हैं, तब बेहद अच्छी लगती हैं. तब लगता ही नहीं कि हमारी उम्रों में एक दशक का फासला है. वे एकदम से अपनी उम्र से दौड़कर मेरी उम्र की सीमारेखा को भेदती हुई, मन की आंतरिक सतह को स्पर्श कर लेती हैं. नवम्बर के वे बीतते दिन मेरे दिल की डायरी में सदैव जीवित रहेंगे. जिन दिनों में वे मेरी जिंदगी का अहम् हिस्सा बन गयी थीं.
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
12-09-2013, 07:54 PM | #3 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: कहानी : नायिका - अनिल कान्त
इस शहर ने मुझे वो सब कुछ दिया, जिसके वगैर मेरी जिंदगी अधूरी थी.
दिसंबर के उन निपट निर्धन दिनों में उसने मेरे दिल पर दस्तखत किये थे. और एकाएक ही मेरी जिंदगी मुझे बेशकीमती लगने लगी थी. जो भी हो, उससे पहले मुझे जिंदगी से रत्ती भर भी प्रेम नहीं था. सच कहूँ तो ये वे दिन थे, जब उसको हमेशा के लिए पा लेने की चाहत ने दिल में जन्म ले लिया था. मेरे मन की निर्ज़ां घाटियों में वह इन्द्रधनुष बनकर छा गयी थी. वो मेरी उम्र का दस्तावेज़ है . जिसका हर शब्द हमारी मोहब्बत की स्याही से लिखा गया है। तब तलक मैं अपनी जिंदगी के प्रति जवाबदेह नहीं था. जब वह मेरी जिंदगी में आई, मेरे मन ने मुझसे जवाब मांगने प्रारम्भ कर दिए थे. क्या मैं इन लम्हों को यूँ ही ख़ामोशी से बीत जाने दूँगा ? क्या जो हो रहा है, या होना चाह रहा है, उसका ना होना जता कर, इस सबसे अंजान बना रहूँगा ? और तब मेरे अपने स्वंय ने आवाज़ दी थी - नहीं तभी मन में उस चाहना ने जन्म ले लिया था. जिसका दायरा उसी से प्रारम्भ होता और उसी पर ख़त्म. उन्हीं दिनों मन में एक ख़याल आया- "उसकी मासूमियत और सादगी पर मैं अपनी जान दे सकता हूँ" लेखन मेरे लिए प्रथम था, शेष सुखों के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं. उन्हीं बाद के दिनों में मुझे यह आंतरिक एहसास हुआ - न जाने कबसे वह मेरे प्रथम के खांचे में जा जुडी है. बावजूद इसके कि हमारे मध्य महज़ औपचारिक बातें हुई थीं. वह भी बामुश्किल दो-चार दफा. किन्तु उसके होने मात्र से वह आंतरिक चाहना मन की ऊपरी सतह पर तैरने लगती थी. और मैं उसके प्रेमपाश में हर दफा ही, उसकी ओर खिंचा चला जाता रहा. तब मुझे इतना भी ज्ञात न था कि वह मेरे बारे में कितना कुछ वैसा ही सोचा करती है, जितना कि मैं. हाँ, केवल इस बात का भरोसा होने लगा था कि वह इंसानी तौर पर मुझे पसंद अवश्य करती है. कभी-कभी उसकी आँखों से प्रतीत होता कि इनमें कितना कुछ छुपा है. वो सब जो शायद मैं नहीं देख पा रहा, या शायद वो सब जो वह दिखाना नहीं चाहती. वे ठिठुरती सर्दियों के ख़त्म होने वाले जनवरी के दिन थे. जब उसकी आँखों में मैंने अपने लिए चाहत पढ़ी थी. फिर जब-जब वह मेरे सामने आई, उन सभी नाज़ुक क्षणों में मेरे मन में प्रेम का अबाध सागर उमड़ पड़ता. जो सभी सीमारेखाओं को तोड़ता हुआ उसको अवश्य ही भिगोता रहा होगा. बहरहाल....... फरवरी और मार्च के मिले जुले गुलाबी दिन बीत चुके थे. और मैं अपने दिल की बात, दिल में ही कैद करके रहता था. और वो जानती थी कि किसी एक रोज़ मैं उससे अवश्य कहूँगा- "तुम मेरी जिंदगी की किताब की नायिका हो" उन दिनों उसकी आँखें बेहद उदास रहने लगी थीं. जबसे उसे पता चला था कि मैं इस कार्यस्थल को छोड़कर चले जाने वाला हूँ. उसकी गहरी उदास आँखों में मैं डूब-डूब जाया करता था. मन बेहद दुखी था और एक अजीब रिक्तता ने मुझे आ घेरा था. कई-कई बार मैंने उससे कुछ कहना चाहा और हर बार ही मेरे अपने स्वंय ने रोके रखा.
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
12-09-2013, 07:54 PM | #4 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100 |
Re: कहानी : नायिका - अनिल कान्त
वे मार्च के बेहद उदास दिन थे.
मेरे लिए तब वह आत्मिक संघर्ष का दौर था. मन में संशय उपजता था कि कहीं यह खाली हाथ रह जाने के दिन तो नहीं और फिर अगले ही क्षण मैं मन को थपथपाता, समझाता और बहलाता. किन्तु वह केवल मुस्कुरा कर रह जाता. शायद कहना चाहता हो -"बच्चू इश्क कोई आसान शह नहीं" और हुआ तब यह था कि अंततः जब वह स्वंय की भावनाओं पर नियंत्रण ना रख सकी थी . तब एक रोज़ वह मेरी दी हुई किताबों को मुझे वापस देने चली आयी थी. वे बेहद भावुक क्षण थे. वह मेरे इतने करीब थे, जितना कि पहले कभी नहीं रही थी. उसकी भावनाएं उसके चेहरे पर लकीर बनकर उभर आयी थीं. वह मेरे चले जाने की खबर से बेहद खफा थी- जबकि अब तक मैंने उससे अपनी भावनाओं को साझा भी नहीं किया था. शायद बात यही रही होगी. यहीं आत्मिक पीड़ा उपजती है. और मैं उस क्षण उसकी पीड़ा को महसूसने लगा था. मैंने उससे इतना ही कहा था-"इन किताबों को वापस क्यों कर रही हो? इन्हें तो मैंने पढने के लिए ही दिया है" और तब उसने कहा था "जब आप ही जा रहे हैं, तो इन किताबों को मेरे पास छोड़कर चले जाने की कोई वजह नहीं बनती. मुझे नहीं पढनी आपकी किताबें." हमारे बीच गहरी ख़ामोशी छा गयी थी. फिर न जाने कैसे मेरे दिल से ये शब्द निकले थे "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो" और उसने कहा था "जानती हूँ" उसका चेहरा तब खिल उठा था. फिर बीते दिनों की उसको हाथ देखने की बात याद हो आयी थी. जब उसने पूँछा था "क्या देख रहे हो ?" और मैंने टाल दिया था कि "फिर कभी बताऊंगा, वक़्त आने पर." उसने जानना चाहा "उस रोज़ हाथ में क्या देख रहे थे" तब मैंने गहरी सांस ली थी और कहा था "तुम ही वो लड़की हो जिसके साथ मैं जिंदगी भर खुश रहूँगा." शायद वह जान गयी होगी यह उन लकीरों की नहीं, मेरे दिल की आवाज़ है. मेरी इस बात पर वह खिलखिला उठी थी. और अगले दो रोज़ बाद उसने अपना दिल की बातों को किसी पवित्र नदी की तरह बह जाने दिया था. जिसका हर शब्द मेरे मन को स्पर्श करते हुए कह रहा था -"मैं तुमसे बेहद मोहब्बत करती हूँ." सुनो आज मैं तुमसे एक बार फिर कहना चाहता हूँ - "तुम मेरे लिए इस दुनिया की सबसे खूबसूरत आत्मा हो." --------
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
Bookmarks |
|
|