17-09-2013, 07:25 PM | #11 |
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Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
दिन चार चक्कर लगायेंगे दुआ मांगने वाले सूखे फूल और सूखे अश्क फकत बाकी रहेंगे कुछ कबूतर के सुफेद जोड़े तेरे साथी रहेंगे होकर पत्थरो की कैद में तू आज़ाद रहेगा मंज़र यही तेरी कब्र पर तेरे बाद रहेगा जीतेजी जो एक दिल भी रोशन किया तूने वो नूर इस जहाँ में तेरे बाद रहेगा
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
17-09-2013, 09:14 PM | #12 |
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Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा.......... शीर्षक एकदम सार्थक हें........................
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17-09-2013, 11:00 PM | #13 | |
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Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
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मानव जीवन की समझो तो छोटी सी, समझो तो सबसे बड़ी सच्चाई बयान की गयी है इन चार शेरों में, विशेष रूप से अंतिम दो पंक्तियों में. |
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19-09-2013, 07:06 PM | #14 |
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Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
अपने पिछले दिनों की डायरी पढ़ी, पढ़कर मन में संतोष हुआ कि मन की बातें लिखी हैं। मैं रात में अपने आप से ही किया वादा सुबह होते होते भूल जाता हूं। मेरी जो हालत है वो आज पढ़ी गई 'यारोस्लाव पुतीक' की एक कहानी ‘इतने बड़े धब्बे' से बयां होती है। इसमें नायक को पता नहीं चलता कि क्या हो गया है। वो अचेतावस्था में सारे काम करता है। कोई चीज़ उस पर असर नहीं करती। हालांकि वह सोचता बहुत है पर वह करने से काफी अलग है। सबको खुश रखने के लिए वो पहले ही वे सारे काम कर देता है जो उससे पूछा तक नहीं जाता ताकि लोग वक्त से पहले ही चुप हो जाएं जिससे उसके अंतर्मन में चलने वाला दृश्य या उलझन में खलल ना पड़े। मनोवैज्ञानिक स्तर से यह मेरे काफी करीब है।
मैं बहुत परेशान हूं। रोना आ रहा है। जब सारी उत्तेजना, खून का उबाल, गुस्सा, तनाव, निराशा और अवसाद निकल आता है तब व्यथित होकर आंख से थोड़ा सा आंसू निकलता है। कितना अच्छे वे दिन थे जब दिन-दिन भर आंख से निर्मल आंसू झरते रहते थे। कमरे में, पार्क में, मंदिर-मजिस्द में, आॅफिस में, किताब में... कहीं भी बैठ कर खूब-खूब रोते थे। कोई रोकने वाला नहीं था। आंसू भी तब बड़ा साथ देता था। पूरी वफादारी से निर्बाध रूप से झरता रहता था। रोने की भी कोई सीमा नहीं थी। कई बार रोते रोते दुनिया साफ दिखने लगती थी जबकि दुनिया की नज़र में अंधे हो जाने से अवगत कराया जाता था। रोने के बहुत से कारण भी नहीं थे लेकिन जो दो चार थे उससे कई और कारण खड़े हो जाते थे। एक बार याद है कि रोते-रोते आंखों का रंग भावुक हो गया था। पिया जाने वाला पानी पिशाब में ना बदल कर आंसू में बदल जाया करता था। दो-दो, ढ़ाई-ढ़ाई दिन लगातार रोना, भादो महीने की किसी शापित झड़ी की याद दिलाता था। रो कर फ्रेश हो जाते थे। बीच में जब संदेह होता कि क्या वाकई रो रहे हैं! तो नाक और गाल का छू कर जांच लेते थे। उंगलियांया फिर तकिया, दीवार, हथेली, बेंच, कालीन और पन्नों पर गीली हो जाए तो यकीन हो जाता था। रोते रोते खुशी मिलती थी। यह खुशी हंसी के रूप में नहीं बल्कि सुख और संतुष्टि के रूप में होती थी। रोना कितना बड़ा सुख था ! एक मौलिक अधिकार। जो छिन गया है। पहले प्रेम करके रोते थे अब खीझ कर रोना चाहते हैं। पहले रोते थे अब जतन करते हैं। क्या आने वाले दिनो में हमस सारे मौलिक गुण और अधिकार छीन जाएंगे ? ऐसे बेसिक अधिकार जो फिर से बच्चे में तब्दील कर देने वाला, जोश से फिर से जुट जाने वाला, पवित्र कर देने वाला... इस तरह का जादुई उपहार भी क्या हमसे छिन जाएगा? क्या ठीक से रोना भूल गए हैं हमलोग ? जैसे बड़ों की हंसी में सूनापन, उसकी मनोदशा, खीझ, संताप, दुःख और निराशा का मिश्रण होता है, क्या वही उसके रोने में भी अब नहीं होता ? रोना, रोना कहां रहा ? वह भी रोते रहेने में बदलकर उपहास का पात्र बन गया है। रोना स्नेहिल ना होकर ‘रोते रहने‘, टूसू बहाने, दुखड़ा रोने, गाते रहते, आलापते रहने, रैया गाने आदि मुहावरों में तब्दील हो गया है। मां तुम्हारी अलता लगी फटी ऐडि़यां याद आ रही है। एक किनारे से पैर की पायल भी झांक रही है। तुम बहोत सुंदर लग रही हो और अब तुम्हारी अमानत का माथा चूम कर रोते रोते मैं भी सुंदर हो जाने की प्रार्थना कर रहा हूं।
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21-09-2013, 06:00 PM | #15 |
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Re: कहीं की ईंट .. कहीं का रोड़ा
नाटक मंच पर खेलने की चीज़ नहीं. वह जीने की सक्रिय कला है. हर परिचित, पुरानी चीज़ को नए सिरे से छूने की अपेक्षा है, ताकि हम उसे आज का, इस क्षण का धड़कता सत्य दे सकें.... हक़ीक़त ही तो नाटक है.....सिर्फ़ उसे समकालीन दृष्टि से पहचानने की आवश्यकता है.
-----चीड़ों पर चांदनी, निर्मल वर्मा (ब्रेख्त के बारे में) देह कितनी भाषाएं जानती है? इतनी उसकी भंगिमाएं होती हैं जो हम जानते भी नहीं। और कई बार जब लगता है कि अब इससे जुड़ी सारी बातें जान चुके हैं तभी किसी माध्यम में उससे संबंधित एक नया प्रयोग देखते हैं। देखकर हैरान हो जाते हैं और यह चमत्कार सा लगने लगता है। शनिवार शाम एसआरसी में देह की इसी एक अनोखी भाषा से साक्षात्कार हुआ। नाटक - एन इवनिंग विद लाल देद के माध्यम से। कश्मीरी, हिन्दी, अंग्रेजी की मिली जुले संवाद में यह मीता वशिष्ठ द्वारा एक घंटे का बिना अंतराल सोलो प्रदर्शन था। चौदहवीं सदी में कश्मीर में एक रहस्यमयी और चमत्कारी लड़की लल्लेश्वरी का प्रादुर्भाव हुआ। कहा जाता कि वह पानी पर चलती है और उसके पैर नहीं भींगते। तेरह बरस में विवाह हुआ। उसने अपने आध्यात्मिक और गृहस्थ जीवन में भी सामंजस्य बिठाने का भरसक प्रयास किया, मगर असफल रही। उसकी भाषा कविता शिल्प में होती थी। मीता ने तत्कालीन कश्मीरी पहनावे, शारीरिक भाषा और स्टेज पर प्रकाश के अंधेरे उजाले के मिश्रण से लल्लेश्वरी का अद्भुत दृश्य उकेरा। परदा उठते ही एक बारीक सी प्रकाश रेखा मंच की सतह से लगभग चार इंच ऊपर पड़ती है। अंधेरे हाॅल में सिर्फ दो आंखे अब-डब करती काश्मीरी बोलती दिखाई जाती है। और जब रोशनी पूरी फैलती है तो अभिनेत्री सर के बल उल्टा लेटी हुई दिखाई देती है। शुरू के पांच सात मिनट तक कुछ समझ में नहीं आता। लेकिन धीरे धीरे लगता है जैसे हमसे कोई कुछ खास बातें कहना चाह रहा है। हमारा दिल उससे कनेक्ट होता है और फिर नेटवर्क कट जाता है। हम या तो जुड़ने को फिर से तड़पते हैं या तुड़ने को। दिन आया, सूरज आया सूरज गया, चांद रहा कुछ न रहा तो कुछ न रहा मगर चित्त न रहा तो रहा क्या मैं नाची र्निवसना..... एक जगह जब ऐसा कहा जाता है तो अभिनेत्री अपने माथे पर का फेरन उतार फेंकती है, अपने बाल खोल बिखरा कर झूमकर नाचती है। मुझे लगा कि शायद कला के इस डूबे पल में अगर र्निवस्त्र भी हो जाया जाए तो कथन जस्टिफाई हो जाएगा। बाद के दिनों में कहते हैं लल्लेश्वरी ने कपड़े पहनने छोड़ दिए। उसकी पहचान का एक एक कपड़ा व्यापारी ने जब उसे एक दिन ऐसे देखा तो उसे एक वस्त्र दिया। लल्लेश्वरी ने उस कपड़े तो बीचोंबीच दो टुकड़े में फाड़ एक दाहिने कंधे और एक बायीं कंधे पर लिया। रास्ते में जो उसे श्रद्धा से देखते या उसके इस रूप को बुरा नहीं मानते तो दायें कंधे पर के कपड़े पर वह एक गांठ बना लेती और जो उसे गालियां देते, बुरी नज़र से देखते तो बायीं कंधे पर के कपड़े पर एक गांठ लगा देती। शाम को उसी कपड़े के व्यवसायी के पास वो दोनों कपड़े का वज़न करवाती है। संयोग से दोनों गांठों का वज़न बराबर निकलता है। नाटक खत्म होते होते लगा जैसे किसी चीज़ के प्रति सम्मोहित हो रहा हूं, वो कुछ है, पर पता नहीं क्या है। हाॅल में कम दर्शक थे। मेरे कुछ सवाल थे जो मीता से पूछने थे मगर कृतज्ञता ज्ञापन के बाद वो मंच पर नहीं रूकी और फिर उसके बाद सामने भी नहीं आईं। शाम ढ़ले जब कमरे पर लौट रहा था तो एक उदासी ने घेर लिया और देर रात तक बुरी तरह उदास रहा।
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