10-01-2011, 01:33 PM | #101 |
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Re: ~!!आनन्दमठ!!~
चिकने बालों को पीठ पर फहराए हुए, उस पर खैर का टीका-फटीका लगाकर नवीन लता-पुष्पों से सर ढंककर शांति खासी-वैष्णवी बन गई। सारंगी उसने हाथ में ले ली। इस तरह का वह अंगरेज-शिविर पहुंच गई। काली मूंछोंवाले सिपाही उसे देखकर पागल हो उठे। चारों तरफ से लोगों ने उसे घेरकर गवाना शुरू किया। कोई ख्याल गवाता, तो कोई टप्पा, कोई गजल। किसी ने दाल दिया, किसी ने चावल, तो किसी ने मिठाई। किसी ने पैसे दिए, तो किसी ने चवन्नी ही दे दी। इसी तरह वैष्णवी अपनी आंखें से शिविर का हाल-चाल देखती घूमने लगी। सिपाहियों ने पूछ-अब कब आओगी? वैष्णवी ने कहा-कैसे बताऊं, मेरा घर बड़ी दूर है। सिपाहियों ने पूछा-कितनी दूर? वैष्णवी ने कहा-मेरा घर पदचिन्ह में है। शांति उठकर खड़ी हो गई! जो आए थे, उन्होंने कहा-रोओ नहीं, बेटी! जीवानंद शांति ने पहचाना-वह जीवानंद की देह थी। सर्वाग क्षत-विक्षत, रुधिर से सने हुए थे। शांति यह कहकर वे महापुरूष शांति को रणक्षेत्र के मध्य में ले गए। वहीं शवों का एक स्तूृप लगा हुआ था। शांति उसे हटा न सकी थी। उस महापुरुष ने स्वयं शवों को हटाकर एक शव बाहर निकाला। शांति ने पहचाना- वह जीवानंद की देह थी। सर्वाग क्षत-विक्षत रुधिर से सने हुए थे। शांति सामान्य स्त्री की तरह जोरों से रो पड़ी। महापुरुष ने फिर कहा-रोओं नहीं बेटी! क्या जीवानंद मर गए हैं? शांत होकर उनका शरीर देखो, नाड़ी की परीक्षा करो! शांति ने शव की नाड़ी देखी, नाड़ी का पता न था। वे बोले-छाती पर हाथ रखकर देखो। शांति ने छाती पर हाथ रखकर देखा, गतिहीन ठंढा था! फिर महापुरुष ने कहा-नाक पर हाथ रखकर देखो, कुछ भी श्वास नहीं है? शांति ने देखा, किंतु हताश हो गई। महापुरुष ने फिर कहा-मुंह में उंगली डालकर देखो, कुछ गरमी मालूम पड़ती है? आशामुग्धा शांति ने वह भी किया, बोली-मुझे कुछ पता नहीं लगता है। महापुरुष ने बायां हाथ शव पर रखकर कहा-बेटी, तुम घबरा गई हो। देखो अभी देह में हलकी गरमी है! अब शांति ने फिर नाड़ी देखी- देखा कि मन्द, अतिमन्द गति है। विस्मित होकर उसने छाती पर हाथ रखा- मृदुधड़कन है। नाक पर हाथ रखकर देखा- हल्की सांस है। शांति ने विस्मित होकर पूछा-क्या प्राण था? या फिर से आ गया है? उन्होंने कहा-भला ऐसा कभी हुआ है, बेटी! तुम इन्हें उठाकर तालाब के किनारे तक ले चल सकोगी? मैं चिकित्सक हूं, इनकी चिकित्सा करूंगा। |
10-01-2011, 01:33 PM | #102 |
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Re: ~!!आनन्दमठ!!~
शांति जीवानंद को तालाब पर ले जाकर घाव धोने लगी। इसी समय उन महापुरुष ने लता आदि का प्रलेप लाकर घावों पर लगा दिया। इसके बाद वे जीवानंद का शरीर सहलाने लगे। अब जीवानंद के श्वास-प्रश्वास तेज हो गए। कुछ ही क्षण में उठ बैठे। शांति के मुंह की तरफ देखकर उन्होंने पूछा-युद्ध में किसकी विजय हुई?
शांति ने कहा-तुम्हारी विजय! इन महात्मा को प्रणाम करो? अब दोनों ने देखा कि वहां कोई नहीं है, किसे प्रणाम करें! समीप ही संतान-सेना का विजयोल्लास सुनाई पड़ रहा था। लेकिन शांति या जीवानंद में से कोई भी न उठा। दोनों विमल ज्योस्तना में पुष्करिणी-तट पर बैठे रहे। जीवानंद का शरीर अद्भुत औषध बल से जल्द ही ठीक हो गया। जीवानंद ने कहा-शांति! चिकित्सक की दवा में गुण है। अब मेरे शरीर में जरा भी ग्लानि या कष्ट नहीं है। बोलो, अब कहां चलें संतान सेना का जयोल्लास सुनाई पड़ रहा है! शांति बोली-अब वहां नहीं। माता का कार्योद्धार हो गया है। अब यह देश संतानों का है। अब वहां क्या करने चलें? जीवानंद-जो राज्य छीना है उसकी बाहुबल से रक्षा तो करनी होगी। शांति-रक्षा के लिए महेंद्र है। तुमने प्रायश्चित कर संतान-धर्म के लिए प्राण-त्याग दिया था। अब पुन: प्राप्त इस जीवन पर संतानों का अधिकार नहीं है। हमलोग संतानों के लिए मर चुके हैं। अब हमें देखकर संतान लोग कह सकते हैं कि प्रायश्चित के भय से ये लोग छिप गए थे, अब विजय होने पर प्रकट हो गए हैं- राज्य-भाग लेने आए हैं। जीवानंद-यह क्या शांति? लोगों के अपवाद-भय से अपना क*र्त्तव्य छोड़ दें। मेरा कार्य मातृसेवा है। दूसरा चाहे जो कहे, मैं मातृ-सेवा करूंगा। शांति-अब तुम्हें इसका अधिकार नहीं है, क्यों कि तुमने मातृ-सेवा के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। अब-यदि सेवा करोगे, तो तुमने उत्सर्ग क्या किया? मातृ-सेवा से वंचित होना ही प्रधान प्रायश्चित है। अन्यथा जीवन त्याग देना क्या कोई बड़ा काम है? जीवानंद-शांति! तुमने ठीक समझा। लेकिन मैं अपने प्रायश्चित को अधूरा न रखूंगा। मेरा सुख संतान-धर्म में है, लेकिन कहां जाऊंगा? मातृ-सेवा त्यागकर घर जाने में क्या सुख मिलेगा? शांति-यह तो मैं कहती नहीं हूं। हम लोग अब गृहस्थ नहीं है, हम दोनों ही संन्यासी रहेंगे- फिर ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे। चलो हम लोग देश-पर्यटन कर देव-दर्शन करें। जीवानंद-इसके बाद? शांति-इसके बाद हिमालय पर कुटी का निर्माण कर हम दोनों ही देवाराधना करेंगे- जिससे माता का मंगल हो, यही वर मांगेंगे। इसके बाद दोनों ही उठकर हाथ में हाथ दे, ज्योत्सनामयी रात्रि में अन्तर्हित हो गए। हाय मां! क्या फिर जीवानंद सदृश पुत्र और शांति जैसी कन्या तुम्हारे गर्भ में आएंगे? |
10-01-2011, 01:34 PM | #103 |
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Re: ~!!आनन्दमठ!!~
एक सिपाही ने सुना था कि मेजर साहब पदचिन्ह की खबर लिया करते हैं, तुरंत वह वैष्णवी को मेजर साहब के शिविर में ले गया। मेजर साहब को देखकर वैष्णवी ने मधुर कटाक्ष का बाण छोड़ा। मेजर साहब का तो सर चक्कर खा गया। वैष्णवी तुरंत खंजड़ी बजाकर गाने लगी-
मलेच्छ निवहनितमे कलयसि करवालम् साहब ने पूछा-ओ बीबी! टोमारा घड़ कहां? बीबी बोली-मैं बीबी नहीं हूं, वैष्णवी हूं। मेरा घर पदचिन्ह में है। साहब -ह्वेयर इज दैट एडसिन पेडसिन? होआं ऐ ठो घर हाय? बैष्णवी बोली-घर? है। साहब-घर नई-गर-गर-नई-गड़- शांति-साहब! मैं समझ गई, गढ़ कहते हो? साहब-येस-येस, गर-गर..हाय? शांति-गढ़ है-भारी किला है। साहब-केहा आडमी? शांति-गढ़ में कितने लोग रहते हैं? करीब बीस-पचीस हजार। साहब-नान्सेंस- एक ठो केल्ला में दो-चार हजर हने सकटा। अबी हुई पर हाय कि सब चला गिया? शांति-वे सब मेले में चले जाएंगे! साहब-मेला में टोम कब आया होआं से? शांति-कल आए हैं साहब! साहब-ओ लोग आज निकेल गिया होगा? शांति मन-ही-मन सोच रही थी कि-तुम्हारे बाप के श्राद्ध के लिए यदि मैंने भात न चढ़ाया, तो मेरी रसिकता व्यर्थ है। कितने स्यार तेरा मुंड खाएंगे, मैं देखूंगी। प्रकट रूप में बोली-साहब! ऐसा हो सकता है, ऐसा हो सकता है। आज चला गया हो सकता है। इतनी खबर मैं नहीं जानती। बैष्णवी हूं, मांगकर खाती हूं-गाना गाती हूं, तब आधा पेट भोजन पाती हूं। इतनी खबर मैं क्या जानूं? बकते-बकते गला सूख गया- पैसा दो, मैं जाऊं। और अच्छी तरह बख्शीश दो, तो परसों खबर दूं। साहब ने झन से एक रुपया फेंकते हुए कहा-परसों नहीं, बीबी! शांति बोली-दुर बेटा, बैष्णवी कहो, बीबी क्या? साहब-परसू नहीं, आज रात को खबर मिलने चाही। शांति-बंदूक माथे के पास रखकर नाक में कड़वा तेल छुड़वाकर सोओ। आज ही मैं दस कोस रहा तय कर जाऊं और आज ही फिर लौट आऊं- और तुम्हें खबर दूं? घासलेटी कहीं के! साहब-घासलेटी किसको बोलता? शांति-जो भारी वीर, जेनरल होता है। साहब-ग्रेट जेनरल हाम होने सकता। हाम-क्लाइव का माफिक। लेकिन आज ही हमको खबर मेलना चाही। सौ रूपी बख्शीश देगा। शांति-सौ दो, हजार दो, बीस हजार दो-पर आज रात भर में मैं इतना नहीं चल सकतीं। |
10-01-2011, 01:35 PM | #104 |
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Re: ~!!आनन्दमठ!!~
साहब-घोड़े पर?
शांति-घोड़ा चढ़ना जानती तो तुम्हारे तंबू में आकर भीख मांगती? साहब-एक दूसरा आदमी ले जाएगा। शांति-गोद में बैठाकर ले जाएगा? मुझे लज्जा नहीं है? साहब-केया मुस्किल! पान सौ रूपी देगा। शांति-कौन जाएगा-तुम खुद जाएगा? इस पर एडवर्ड ने पास में खड़े एक युवक अंग्रेज को दिखाकर कहा-लिंडले, तुम जाओ! लिंडले ने शांति का रूप-यौवन देखकर कहा-बड़ी खुशी से! इसके बाद बड़ा जानदार अरबी घोड़ा सजकर आ गया, लिंडले भी तैयार हो गया। शांति को पकड़कर वह घोड़े पर बैठने चला। शांति ने कहा-छि:, इतने आदमियों के सामने? क्या मुझे लज्जा नहीं है? आगे चलो, बाहर चलकर घोड़े पर चढ़ेंगे। लिंडले घोड़े पर चढ़ गया। घोड़ा धीरे-धीरे चला, शांति पीछे-पीछे पैदल चली। इस तरह वे लोग छावनी के बाहर आए। शिविर के बाहर एकांत आने पर शांति लिंडले के पैर पर पांव रखकर एक छलांग में पीठ पर पहुंच गई। लिंडले ने हंसकर कहा-तुम तो पक्का घुड़सवार है! शांति-हम लोग ऐसे पक्के घुड़सवार है कि तुम्हारे साथ चढ़ने में लज्जा लगती है। छी:, रकाव के सहारे तुम लोग चढ़ते हो? मारे शान के लिंडले ने रकाब से पैर निकाल लिया। इसी समय शांति ने पीछे से लिंडले को गला पकड़ कर छक्का दिया। वह तड़ाक से घोड़े पर से गिरा। घोड़ा भी भड़क उठा। फिर क्या था! शांति ने एक एंड़ लगाई और घोड़ा हवा से बातें करने लगा। शांति चार वर्ष तक सन्तानों के साथ रहकर पक्की घुड़सवार हो गई थी। बिना सीखे क्या जीवानंद का साथ दे सकती थी? लिंडले का पैर टूट गया और वह कराहने लगा। शांति हवा में उड़ती जाती थी। जिस वन में जीवानंद छिपे हुए थे, वहां पहुंचकर शांति ने जीवानंद को सारा समाचार सुनाया। जीवानंद ने कहा-तो मैं शीघ्र जाकर महेंद्र को सतर्क करूं। तुम मेले में जाकर सत्यानंद को खबर दो। तुम घोड़े पर जाओ, ताकि प्रभु शीघ्र समाचार पा सकें। इस तरह दोनों आदमी दो तरफ रवाना हुए। यह कहना व्यर्थ है कि शांति फिर नवीनानंद के रूप में हो गई। स्वामी सत्यानंद रणक्षेत्र में किसी से कुछ न कहकर आनंदमठ में लौट आए। वहां वे गंभीर रात्रि में विष्णु-मंडप में बैठकर ध्यानमग्न हुए। इसी समय उन चिकित्सक ने वहां आकर दर्शन दिया। देखकर सत्यानंद ने उठकर प्रणाम किया। चिकित्सक बोले-सत्यानंद! आज माघी पूर्णिमा है। |
10-01-2011, 01:35 PM | #105 |
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Re: ~!!आनन्दमठ!!~
सत्यादंन-चलिए मैं तैयार हूं। किंतु महात्मन्! मेरे एक संदेह को दूर कीजिए। मैंने क्या इसीलिए युद्ध-जय कर संतान-धर्म की पताका फहरायी थी?
जो आए थे, उन्होंने कहा-तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलिम राज्य ध्वंस हो चुका। अब तुम्हारी यहां कोई जरूरत नहीं, अनर्थक प्राणहत्या की आवश्यकता नहीं! सत्यानंद-मुसलिम राज्य ध्वंस अवश्य हुआ है, किंतु अभी हिंदु राज्य स्थापित हुआ नहीं है। अभी भी कलकत्ते में अंगरेज प्रबल है। वे बोले-अभी हिंदु-राज्य स्थापित न होगा। तुम्हारे रहने से अनर्थक प्राणी-हत्या होगी, अतएव चलो! यह सुनकर सत्यानंद तीव्र मर्म-पीड़ा से कातर हुए, बोले-प्रभो! यदि हिंदू-राज्य स्थापित न होगा, तो कौन राज्य होगा? क्या फिर मुसलिम-राज्य होगा? उन्होंने कहा-नहीं, अब अंगरेज-राज्य होगा सत्यानंद की दोनों आंखों से जलधारा बहने लगी। उन्होंने सामने जननी-जन्मभूमि की प्रतिमा की तरफ देख हाथ जोड़कर कहा-हाय माता! तुम्हारा उद्धार न कर सका। तू फिर म्लेच्छों के हाथ में पड़ेगी। संतानों के अपराध को क्षमा कर दो मां! रणक्षेत्र में मेरी मृत्यु क्यों न हो गई? महात्मा ने कहा-सत्यानंद कातर न हो। तुमने बुद्धि विभ्रम से दस्युवृत्ति द्वारा धन संचय कर रण में विजय ली है। पाप का कभी पवित्र फल नहीं होता। अतएव तुम लोग देश-उद्धार नहीं कर सकोगे। और अब जो कुछ होगा, अच्छा होगा। अंगरेजों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का उद्धार नहीं हो सकेगा। महापुरुषों ने जिस प्रकार समझाया है, मैं उसी प्रकार समझाता हूं- ध्यान देकर सुनो! तैंतिस कोटि देवताओं का पूजन सनातन-धर्म नहीं है। वह एक तरह का लौकिक निकृष्ट-धर्म, म्लेच्छ जिसे हिंदू-धर्म कहते हैं- लुप्त हो गया। प्रकृति हिंदू-धर्म ज्ञानात्मक- कार्यात्मक नहीं। जो अन्तर्विषक ज्ञान है- वही सनातन-धर्म का प्रधान अंग है। लेकिन बिना पहले बहिर्विषयक ज्ञान हुए, अन्तर्विषयक ज्ञान असंभव है। स्थूल देखे बिना सूक्ष्म की पहचान ही नहीं हो सकती। बहुत दिनों से इस देश में बहिर्विषयक ज्ञान लुप्त हो चुका है- इसीलिए वास्तविक सनातन-धर्म का भी लोप हो गया है। सनातन-धर्म के उद्धार के लिए पहले बहिर्विषयक ज्ञान-प्रचार की आवश्यकता है। इस देश में इस समय वह बहिर्विषयक ज्ञान नहीं है- सिखानेवाला भी कोई नहीं, अतएव बाहरी देशों से बहिर्विषयक ज्ञान भारत में फिर लाना पड़ेगा। अंगरेज उस ज्ञान के प्रकाण्ड पंडित है- लोक-शिक्षा में बड़े पटु है। अत: अंगरेजों के ही राजा होने से, अंगरेजी की शिक्षा से स्वत: वह ज्ञान उत्पन्न होगा! जब तक उस ज्ञान से हिंदु ज्ञानवान, गुणवान और बलवान न होंगे, अंगरेज राज्य रहेगा। उस राज्य में प्रजा सुखी होगी, निष्कंटक धर्माचरण होंगे। अंगरेजों से बिना युद्ध किए ही, निरस्त्र होकर मेरे साथ चलो! |
10-01-2011, 01:36 PM | #106 |
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Re: ~!!आनन्दमठ!!~
सत्यानंद ने कहा-महात्मन्! यदि ऐसा ही था- अंगरेजों को ही राजा बनाना था, तो हम लोगों को इस कार्य में प्रवृत्त करने की क्या आवश्यकता थी?
महापुरुष ने कहा-अंगरेज उस समय बनिया थे- अर्थ संग्रह में ही उनका ध्यान था। अब संतानों के कारण ही वे राज्य-शासन हाथ में लेंगे, क्योंकि बिना राजत्व किए अर्थ-संग्रह नहीं हो सकता। अंगरेज राजदण्ड लें, इसलिए संतानों का विद्रोह हुआ है। अब आओ, स्वयं ज्ञानलाभ कर दिव्य चक्षुओं से सब देखो, समझो! सत्यानंद-हे महात्मा! मैं ज्ञान लाभ की आकांक्षा नहीं रखता-ज्ञान की मुझे आवश्यकता नहीं। मैंने जो व्रत लिया है, उसी का पालन करूंगा। आशीर्वाद कीजिए कि मेरी मातृभक्ति अचल हो! महापुरुष-व्रत सफल हो गया- तुमने माता का मंगल-साधन किया- अंगरेज राज्य तुम्हीं लोगों द्वारा स्थापित समझो! युद्ध-विग्रह का त्याग करो- कृषि में नियुक्त हो, जिसे पृथ्वी श्स्यशालिनी हो, लोगों की श्रीवृद्धि हो। सत्यानंद की आंखों से आंसू निकलने लगे, बोले-माता को शत्रु-रक्त से शस्यशालिनी करूं? महापुरुष-शत्रु कौन है? शत्रु अब कोई नहीं। अंगरेज हमारे मित्र हैं। फिर अंगरेजों से युद्ध कर अंत में विजयी हो- ऐसी अभी किसी की शक्ति नहीं? सत्यानंद-न रहे, यहीं माता के सामने मैं अपना बलिदान चढ़ा दूंगा। महापुरुष -अज्ञानवश! चलो, पहले ज्ञान-लाभ करो। हिमालय-शिखर पर मातृ-मंदिर है, वहीं तुम्हें माता की मूर्ति प्रत्यक्ष होगी। यह कहकर महापुरुष ने सत्यानंद का हाथ पकड़ लिया। कैसी अपूर्व शोभा थी! उस गंभीर निस्तब्ध रात्रि में विराट चतुर्भुज विष्णु-प्रतिमा के सामने दोनों महापुरुष हाथ पकड़े खड़े थे। किसको किसने पकड़ा है? ज्ञान ने भक्ति का हाथ पकड़ा है, धर्म के हाथ में कर्म का हाथ है, विजर्सन ने प्रतिष्ठा का हाथ पकड़ा है। सत्यानंद ही शांति है- महापुरुष ही कल्याण है- सत्यानंद प्रतिष्ठा है- महापुरुष विसर्जन है। विसर्जन ने आकर प्रतिष्ठा को साथ ले लिया। |
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