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Old 15-10-2013, 07:50 PM   #1
rajnish manga
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Default माँ: एक कालजयी रचना के एक सौ सात साल

एक कालजयी रचना के एक सौ सात साल


माँ


(रूसी लेखक: मैक्सिम गोर्की)


यह उपन्यास महज एक मज़दूर परिवार की नियति का चित्रण करने के बज़ाए समूचे सर्वहारा वर्ग के भवितव्य को विलक्षण शक्ति के साथ चित्रित करती है.

पहली रूसी क्रांति ने कई बुद्धिजीवियों को उद्वेलित किया. मक्सिम गोर्की भी उन्हीं में से एक थे. रूस की ज़ारशाही के अत्याचार से आजिज़ मक्सिम गोर्की ने विदेश में रहते हुए वर्ष 1906 में कालजयी उपन्यास माँकी रचना की.

माँपहली बार 1907 में प्रकाशित हुई थी.

इस पुस्तक के सौ से अधिक साल हो गए हैं लेकिन अभी भी यह समूची दुनिया के पाठकों के बीच लोकप्रिय है.

माँमानव संबंधों को सुधारने में मज़दूर वर्ग की भूमिका को रेखांकित करता है.

यह उपन्यास वास्तविक घटनाओं पर आधारित है जो वोल्गा के किनारे सोमोर्वो नगर में बीसवीं सदी की शुरुआत में घटित हुई.


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Old 15-10-2013, 07:55 PM   #2
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Default Re: माँ: एक कालजयी रचना के एक सौ सात साल

पढ़िए माँका अंतिम अंश

अब क्या होगा?’ उसने चारों ओर नज़र दौड़ाते हुए सोचा. जासूस ने एक गार्ड को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा और आँखों से माँ की तरफ़ इशारा किया. गार्ड ने उसे देखा और वापस चला गया. इतने में दूसरा गार्ड आया और उसकी बात सुनकर उसकी भवें तन गई. यह गार्ड एक बूढ़ा आदमी था-लंबा क़द, सफ़ेद बाल, दाढ़ी बढ़ी हुई. उसने जासूस की तरफ़ देखकर सिर हिलाया और उस बेंच की तरफ़ बढ़ा जिस पर माँ बैठी हुई थी. जासूस कहीं ग़ायब हो गया.




गार्ड बड़े इत्मिनान से आगे बढ़ रहा था और त्योरियाँ चढ़ाए माँ को घूर रहा था. माँ बेंच पर सिमटकर बैठ गई.
‘‘बस, कहीं मुझे मारें न!’’ माँ ने सोचा
गार्ड माँ के सामने आकर रुक गया और एक क्षण तक कुछ नहीं बोला.
‘‘क्या देख रही हो?’’ उसने आख़िरकार पूछा.
‘‘कुछ भी नहीं,’’ माँ ने उत्तर दिया.
‘‘अच्छा यह बात है, चोर कहीं की!इस उमर में यह सब करते शर्म नहीं आती!’’

उसके शब्द माँ के गालों पर तमाचों की तरह लगे- एक...दो; उनमें कुत्सा का जो घृणित भाव था वह माँ के लिए इतना कष्टदायक था कि जैसे उसने किसी तेज़ चीज़ से माँ के गाल चीर दिए हों या उसकी आँखें बाहर निकाल ली हों...
‘‘मैं? मैं चोर नहीं हूं, तुम ख़ुद झूठे हो!’’ उसने पूरी आवाज़ से चिल्लाकर कहा और उसके क्रोध के तूफ़ान में हर चीज़ उलट-पुलट होने लगी. उसने सूटकेस को एक झटका दिया और वह खुल गया.
‘‘सुनो! सुनो! सब लोग सुनो!’’ उसने चिल्लाकर कहा और उछलकर पर्चों की एक गड्डी अपने सिर के ऊपर हिलाने लगी. उसके कान में जो गूंज उठ रही थी उसके बीच उसे चारों तरफ़ से भागकर आते हुए लोगों की बातें साफ़ सुनाई दे रही थीं.
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Old 15-10-2013, 07:58 PM   #3
rajnish manga
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Default Re: माँ: एक कालजयी रचना के एक सौ सात साल

‘‘क्या हुआ?’’
‘‘
वह वहां-जासूस...’’
‘‘
क्या बात है?’’
‘‘
कहते हैं कि यह चोर है...’’
‘‘
मैं चोर नहीं हूं!’’ माँ ने चिल्लाकर कहा; लोगों की भीड़ अपने चारों तरफ़ एकत्रित देखकर उसकी भावनाओं का प्रबल वेग थम गया था.
‘‘कल राजनीतिक कैदियों पर एक मुक़दमा चलाया गया था और उनमें मेरा बेटा पावेल व्लासोव भी था. उसने अदालत में एक भाषण दिया था-यह वही भाषण है! मैं इसे लोगों के पास ले जा रही हूँ ताकि वे इसे पढ़कर सच्चाई का पता लगा सकें...’’
किसी ने बड़ी सावधानी से उसके हाथ से एक पर्चा ले लिया. माँ ने गड्डी हवा में उछालकर भीड़ की तरफ़ फेंक दी.



‘‘तुम्हें इसका मज़ा चखा दिया जाएगा!’’ किसी ने भयभीत स्वर में कहा. माँ ने देखा कि लोग झपटकर पर्चे लेते हैं और अपने कोट में तथा जेबों में छुपा लेते हैं. यह देखकर उसमें नई शक्ति आ गई. वह अधिक शांत भाव से और ज़्यादा जोश के साथ बोलने लगी; उसके हृदय में गर्व और उल्लास का जो सागर ठाठें मार रहा था उसका उसे आभास था. बोलते-बोलते वह सूटकेस में से पर्चे निकालकर दाहिने-बाएं उछालती जा रही थी और लोग बड़ी उत्सुकता से हाथ बढ़ाकर इन पर्चों को पकड़ लेते थे.
‘‘जानते हो मेरे बेटे और उसके साथियों पर मुक़दमा क्यों चलाया गया? मैं तुम्हें बताती हूं, तुम एक माँ के हृदय और उसके सफ़ेद बालों का यक़ीन करो- उन लोगों पर मुक़दमा सिर्फ़ इसलिए चलाया गया कि वे लोगों को सच बातें बताते थे! और कल मुझे मालूम हुआ कि इस सच्चाई से...कोई भी इनकार नहीं कर सकता-कोई भी नही!
भीड़ बढ़ती गई, सब लोग चुप थे और इस औरत के चारों तरफ़ सप्राण शरीरों का घेरा खड़ा था.
‘‘ग़रीबी, भूख और बीमारी - लोगों को अपनी मेहनत के बदले यही मिलता है! हर चीज़ हमारे ख़िलाफ़ है-ज़िंदगी-भर हम रोज़ अपनी रत्ती-रत्ती शक्ति अपने काम में खपा देते हैं, हमेशा गंदे रहते हैं, हमेशा बेवकूफ़ बनाए जाते हैं और दूसरे हमारी मेहनत का सारा फ़ायदा उठाते हैं और ऐश करते हैं, वे हमें जंजीर में बंधे हुए कुत्तों की तरह जाहिल रखते हैं-हम कुछ भी नहीं जानते, वे हमें डराकर रखते हैं-हम हर चीज़ से डरते हैं!हमारी ज़िंदगी एक लंबी अंधेरी रात की तरह है!’’
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Old 15-10-2013, 08:01 PM   #4
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Default Re: माँ: एक कालजयी रचना के एक सौ सात साल

‘‘ठीक बात है!’’ किसी ने दबी ज़बान में समर्थन किया.
‘‘बंद कर दो इसका मुँह!?




भीड़ के पीछे माँ ने उस जासूस और दो राजनीतिक पुलिसवालों को देखा और वह जल्दी-जल्दी बचे हुए पर्चे बाँटने लगी. लेकिन जब उसका हाथ सूटकेस के पास पहुंचा, तो किसी दूसरे के हाथ से छू गया.
‘‘ले लो, और ले लो! उसने झुके-झुके कहा.
‘‘चलो, हटो यहां से!’’ राजनीतिक पुलिसवालों ने लोगों को ढकेलते हुए कहा. लोगों ने अनमने भाव से पुलिसवालों को रास्ता दिया; वे पुलिसवालों को दीवार बनाकर पीछे रोके हुए थे; शायद वे जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहे थे. लोगों के हृदय में न जाने क्यों इस बड़ी-बड़ी आँखों और उदास चेहरे तथा सफ़ेद बालों वाली औरत के प्रति इतना अदम्य आकर्षण था.
जीवन में वे सबसे अलग-थलग रहते थे, एक-दूसरे से उनका कोई संबंध नहीं था, पर यहां वे सब एक हो गए थे; वे बड़े प्रभावित होकर इन जोश-भरे शब्दों को सुन रहे थे; जीवन के अन्यायों से पीड़ित होकर शायद उनमें से अनेक लोगों के हृदय बहुत दिनों से इन्हीं शब्दों की खोज में थे. जो लोग माँ के सबसे निकट थे वे चुपचाप खड़े थे; वे बड़ी उत्सुकता से उसकी आँखों में आँखें डालकर ध्यान से उसकी बातें सुन रहे थे और वह उनकी साँसों की गर्मी चेहरे पर अनुभव कर रही थी.
‘‘खिसक जा यहाँ से, बुढ़िया!’’
‘‘
वे अभी तुझे पकड़ लेंगे!..’’
‘‘
कितनी हिम्मत है इसमें!’’
‘‘चलो यहां से! जाओ अपना काम देखो!’’ राजनीतिक पुलिसवालों ने भीड़ को ठेलते हुए चिल्लाकर कहा. माँ के सामने जो लोग थे वे एके बार कुछ डगमगाए और फिर एक-दूसरे से सटकर खड़े हो गए.
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Old 15-10-2013, 08:03 PM   #5
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Default Re: माँ: एक कालजयी रचना के एक सौ सात साल

माँ को आभास हुआ कि वे उसकी बात को समझने और उस पर विश्वास करने को तैयार थे और वह जल्दी-जल्दी उन्हें वे सब बातें बता देना चाहती थी जो वह जानती थी, वे सारे विचार उन तक पहुंचा देना चाहती थी जिनकी शक्ति का उसने अनुभव किया था. इन विचारों ने उसके हृदय की गहराई से निकलकर एक गीत का रूप धारण कर लिया था, पर माँ यह अनुभव करके बहुत क्षुब्ध हुई कि वह इस गीत को गा नहीं सकती थी-उसका गला रूंध गया था और स्वर भर्रा गया था.
‘‘मेरे बेटे के शब्द एक ऐसे ईमानदार मज़दूर के शब्द हैं जिसने अपनी आत्मा को बेचा नहीं है! ईमानदारी के शब्दों को आप उनकी निर्भीकता से पहचान सकते हैं!’’
किसी नौजवान की दो आँखें भय और हर्षातिरेक से उसके चेहरे पर जमी हुई थीं.
किसी ने उसके सीने पर एक घूँसा मारा और वह बेंच पर गिर पड़ी. राजनीतिक पुलिसवालों के हाथ भीड़ के ऊपर ज़ोर से चलते हुए दिखाई दे रहे थे, वे लोगों के कंधे और गर्दनें पकड़कर उन्हें ढकेल रहे थे; उनकी टोपियाँ उतारकर मुसाफिरख़ाने के दूसरे सिरे पर फेंक रहे थे. माँ की आँखों के आगे धरती घूम गई, पर उसने अपनी कमज़ोरी पर क़ाबू पाकर अपनी बची-खुची आवाज़ से चिल्लाकर कहाः
‘‘लोगों, एक होकर जबरदस्त शक्ति बन जाओ!’’



एक पुलिसवाले ने अपने मोटे-मोटे बड़े से हाथ से उसकी गर्दन पकड़कर उसे ज़ोर से झंझोड़ा.
‘‘बंद कर अपनी ज़बान!’’
माँ का सिर दीवार से टकराया. एक क्षण के लिए उसके हृदय में भय का दम घोंट दने वाला धुआँ भर गया, पर शीघ्र ही उसमें फिर साहस पैदा हुआ यह धुआँ छँट गया.
‘‘चल यहाँ से!’’ पुलिसवाले ने कहा.
‘‘किसी बात से डरना नहीं! तुम्हारी ज़िंदगी जैसी अब है उससे बदतर और क्या हो सकती है...’’
‘‘चुप रह, मैंने कह दिया!’’ पुलिसवाले ने उसकी बाँह पकड़कर उसे ज़ोर से धक्का दिया. दूसरे पुलिसवाले ने उसकी दूसरी बाँह पकड़ ली और दोनों उसे साथ लेकर चले.
‘‘उस कटुता से बदतर और क्या हो सकता है जो दिन-रात तुम्हारे हृदय को खाए जा रही है और तुम्हारी आत्मा को खोखला किए दे रही है!’’
जासूस माँ के आगे-आगे भाग रहा था और मुट्ठी तान-तानकर उसे धमका रहा था.
‘‘चुप रह, कुतिया! ’’ उसने चिल्लाकर कहा.
माँ की आँखें चमकने लगीं और क्रोध से फैल गईं: उसके होंठ काँपने लगे.
‘‘पुनर्जीवित आत्मा को तो नहीं मार सकते! ’’ उसकने चिल्लाकर कहा और अपने पाँव पत्थर से चिकने फ़र्श पर जमा दिए.
‘‘कुतिया कहीं की!’’
जासूस ने उसके मुँह पर एक थप्पड़ मारा.
‘‘इसकी यही सजा है, इस चुड़ैल बुढिया की!’’ किसी ने जलकर कहा.



एक क्षण के लिए माँ की आँखों के आगे अंधेरा छा गया; उसके सामने लाल और काले धब्बे से नाचने लगे और उसका मुँह रक्त के नमकीन स्वाद से भर गया.
लोगों के छोटे-छोटे वाक्य सुनकर उसे फिर होश आयाः
‘‘ख़बरदार, जो उसे हाथ लगाया!’’
‘‘आओ, चलो यार!’’
‘‘बदमाश कही का!’’
‘‘एक दे जोड़ का!’’
‘‘वे हमारी चेतना को तो ख़ून से नहीं उँड़ेल सकते!’’
वे माँ की पीठ और गर्दन पर घूँसे बरसा रहे थे, उसके कंधों और सिर पर मार रहे थे; हर चीज़ चीख-पुकार, क्रंदन और सीटियों की आवाज़ों का एक झंझावात बनकर उसकी आँखों के सामने नाच रही थी और बिजली की तरह कौंध रही थी. उसके कान में एक ज़ोर का घुटा हुआ धमाका हुआ; उसकी टाँगें जवाब देने लगी; वह तेज़ छुरी से घाव जैसी चुभती हुई पीड़ा से तिलमिला उठी, उसका शरीर बोझल हो गया और वह निढाल होकर झूमने लगी.
पर उसकी आँखों में अब भी वही चमक थी. उसकी आँखें बाक़ी सब लोगों की आँखों को देख रही थीं; उन सब आँखों में उसी साहसमय ज्योति की आग्नेय चमक थी जिसे वह भली-भाँति जानती थी और जिसे वह बहुत प्यार करती थी.
पुलिसवालों ने उसे एक दरवाज़े के अंदर ढकेल दिया.
उसने झटका देकर अपनी एक बाँह छुड़ा ली और दरवाज़े की चौखट पकड़ ली.
‘‘सच्चाई को तो ख़ून की नदियों में भी नहीं डुबोया जा सकता...’’
पुलिसवालों ने उसके हाथ पर ज़ोर से मारा.
‘‘अरे बेवकूफ़ो, तुम जितना अत्याचार करोगे, हमारी नफ़रत उतनी ही बढ़ेगी! और एक दिन यह सब तुम्हारे सिर पर पहाड़ बनकर टूट पड़ेगा!’’
एक पुलिसवाला उसकी गर्दन पकड़कर ज़ोर से उसका गला घोंटने लगा.
‘‘कमबख्तो...’’ माँ ने साँस लेने को प्रयत्न करते हुए कहा.
किसी ने इसके उत्तर में ज़ोर से सिसकी भरी.
(समाप्त)
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Old 16-10-2013, 07:14 PM   #6
Dr.Shree Vijay
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बडीही सुन्दर प्रस्तुति..................


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Old 16-10-2013, 11:48 PM   #7
rajnish manga
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बडीही सुन्दर प्रस्तुति..................


सूत्र को पसंद करने के लिये आपका धन्यवादी हूँ, डॉ. श्री विजय जी.
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Old 17-10-2013, 12:12 AM   #8
Dark Saint Alaick
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Default Re: माँ: एक कालजयी रचना के एक सौ सात साल

बहुत ही उम्दा प्रस्तुति, मित्र रजनीशजी; किन्तु मैं आपसे 'सर्वहारा की इस पाक बाइबल' की सम्पूर्ण प्रस्तुति की अपेक्षा कर रहा था।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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Old 17-10-2013, 12:55 AM   #9
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Default Re: माँ: एक कालजयी रचना के एक सौ सात साल

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Originally Posted by dark saint alaick View Post

बहुत ही उम्दा प्रस्तुति, मित्र रजनीशजी; किन्तु मैं आपसे 'सर्वहारा की इस पाक बाइबल' की सम्पूर्ण प्रस्तुति की अपेक्षा कर रहा था।

नज़रे इनायत के लिये आपका शुक्रिया, अलैक जी. अभी तो इतना ही. कोशिश करूँगा कि भविष्य में "माँ" को समग्र रूप में प्रस्तुत कर सकूं. इस पुस्तक के बारे में आपने जो कुछ लिखा है वह सौ प्रतिशत सही है.
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Old 17-10-2013, 06:48 PM   #10
Dr.Shree Vijay
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