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#271 |
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![]() यह घटना उस समय की है जब सर विलियम जोन्स कलकत्ता हाई कोर्ट के जज थे। बचपन से ही उन्हें पढ़ने और नई-नई भाषाएं सीखने का शौक था। भारत आने के बाद उन्हें संस्कृत भाषा ने बहुत प्रभावित किया। वह उस भाषा को सीखना चाहते थे। किंतु कोई भी उन्हें उस समय संस्कृत सिखाने को तैयार न था। आखिर काफी भागदौड़ करने के बाद एक पंडित उन्हें संस्कृत पढ़ाने के लिए तैयार हुए। लेकिन पंडित जी ने संस्कृत पढ़ाने के लिए अत्यंत कठोर शर्तें सर विलियम जोन्स के सामने रखीं। मसलन जिस कक्षा में बैठकर वे पढ़ाएंगे वहां पर केवल एक मेज और दो कुर्सी के अलावा कुछ नहीं रहेगा। प्रतिदिन कक्ष की सफाई अच्छी तरह से होगी। सर विलियम जोन्स को मांस-मदिरा का त्याग करना होगा। पंडित जी के आने-जाने के लिए पालकी की व्यवस्था होगी। ऐसी कई शर्तों के साथ सर विलियम जोन्स को संस्कृत सिखाने के लिए वह पंडितजी तैयार हुए। पढ़ाई आरंभ हो गई। शुरू में भाषा सीखने में अनेक कठिनाइयां सामने आईं। सर विलियम जोन्स टूटी-फूटी हिंदी जानते थे और पंडित जी अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं समझ पाते थे। खैर कुछ दिनों तक दोनों ही लोग बेहद परेशान हुए। किंतु सर विलियम जोन्स के मन में संस्कृत सीखने की जबर्दस्त लगन थी। वह संस्कृत सीखने के लिए सभी कठिनाइयों से जूझने के लिए हर क्षण तैयार रहते थे। कुछ ही समय में सर विलियम जोन्स की सेवा, लगन और मेहनत से पंडित जी भी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उन्हें हृदय से संस्कृत का ज्ञान देना शुरू कर दिया। एक वर्ष के कड़े परिश्रम के बाद सर विलियम जोन्स संस्कृत के विद्वान हो गए। उन्होंने संस्कृत के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ नाटक का अंग्रेजी में अनुवाद किया। इस प्रकार ज्ञान की लगन ने एक अंग्रेज को संस्कृत का विद्वान बना दिया। |
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#272 |
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संत ने समझाया लोक-कल्याण पर आधारित ज्ञान ही सार्थक
जीवन दर्शन.. एक दिन एक व्यक्ति किसी संत के पास पहुंचा। वह बहुत अधिक तनाव में था। अनेक प्रश्न उसके दिमाग में घूम-घूमकर उसे परेशान कर रहे थे – जैसे आत्मा क्या है? आदमी मृत्यु के बाद कहां जाता है? सृष्टि का निर्माता कौन है? स्वर्ग-नर्क की अवधारणा कहां तक सच है और ईश्वर है या नहीं? उसे इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल रहे थे। जब वह संत के पास पहुंचा तो उसने देखा कि संत को कई लोग घेरकर बैठे हैं। संत उन सभी के प्रश्नों व जिज्ञासाओं का समाधान अत्यंत सहज भाव से कर रहे हैं। काफी देर तक यह क्रम चलता रहा। किंतु संत धर्यपूर्वक हर एक को संतुष्ट करते रहे। बेचारा व्यक्ति यहां का हाल देखकर परेशान हो गया। उसने सोचा कि ये संत हैं, इन्हें दुनियादारी के मामलों में पड़ने से क्या लाभ? अपना भगवद् भजन करें और बुनियादी समस्याओं से ग्रस्त इन लोगों को भगाएं। किंतु संत का व्यवहार देखकर तो ऐसा लग रहा था मानो इन लोगों का दुख उनका अपना दुख है। आखिर उस व्यक्ति ने पूछ ही लिया, महाराज आपको इन सांसारिक बातों से क्या लेना-देना? संत बोले – मैं ज्ञानी नहीं हूं, त्यागी हूं और इंसान हूं। वैसे भी वह ज्ञान किस काम का, जो इतना घमंडी और आत्मकेंद्रित हो कि अपने अतिरिक्त दूसरे की चिंता ही न कर सके? ऐसा ज्ञान तो अज्ञान से भी बुरा है। संत की बातें सुनकर व्यक्ति की उलझन दूर हो गई। उस दिन से उसकी सोच व आचरण दोनों बदल गए। कथा का सार यह है कि ज्ञान तभी सार्थक होता है, जबकि वह लोक-कल्याण में संलग्न हो। |
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#273 |
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मंत्र ज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति जब मंदिर का पुजारी बना
जीवन दर्शन.. दक्षिण भारत के एक प्रांत में एक विशाल मंदिर था। उस मंदिर के प्रबंधक प्रधान पुजारी की मृत्यु के बाद मंदिर के महंत ने दूसरे पुजारी को नियुक्त करने के लिए घोषणा कराई कि जो कल सुबह प्रथम पहर मंदिर में आकर पूजा विषयक ज्ञान में सही सिद्ध होगा, उसे पुजारी रखा जाएगा। यह घोषणा सुन अनेक ब्राrाण सुबह मंदिर के लिए चल पड़े। मंदिर पहाड़ी पर था और पहुंचने का मार्ग कांटों व पत्थरों से भरा हुआ था। मार्ग की इन जटिलताओं से किसी प्रकार बचकर ये सभी ब्राrाण मंदिर पहुंच गए। महंत ने सभी से कुछ प्रश्न और मंत्र पूछे। जब परीक्षा समाप्त होने को थी, तभी एक युवा ब्राrाण वहां आया। वह पसीने से लथपथ था और उसके कपड़े भी फट गए थे। महंत ने देरी का कारण पूछा तो वह बोला – घर से तो बहुत जल्दी चला था, किंतु मंदिर के मार्ग में बहुत कांटे व पत्थर देख उन्हें हटाने लगा, ताकि यात्रियों को कष्ट न हो। इसी में देर हो गई। महंत ने उससे पूजा विधि पूछी, जो उसने बता दी। फिर मंत्र पूछे तो वह बोला – भगवान से नहाने-खाने को कहने के लिए मंत्र भी होते हैं, यह मैं नहीं जानता। महंत ने कहा – पुजारी तो तुम बन गए। मंत्र मैं सिखा दूंगा। यह सुनकर अन्य ब्राrाण नाराज होने लगे। तब महंत ने कहा – अपने स्वार्थ की बात तो पशु भी जानते हैं, किंतु सच्चा मनुष्य वह है, जो दूसरों के दुख के लिए अपना सुख छोड़ दे। कथा का सार यह है कि ज्ञान और अनुभव वैयक्तिक होते हैं, जबकि मनुष्यता सदैव परोन्मुखी होती है और इसीलिए वह समाज कल्याण में निरंतर लगी रहती है। |
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#274 |
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बहुत कहानियाँ हैं मित्र
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#275 |
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एक समय की बात है कि एक हरे-भरे जंगल में चार मित्र रहते थे.. उनमें एक था चुहा, दूसरा हिरण, तीसरा कौवा और चौथा था कछुआ.. ये अलग-अलग प्राणी के जीव होने के बावजूद भी बड़े प्यार से रहते थे.. ये चारो एक दूसरे पर जान छिड़कते थे और आपस में खुब मेल-मिलाप से रहते थे... आपको बता दें कि उसी जंगल में एक तलाब था जिसके अंदर कछुआ रहता था.. और तलाब के किनारे एक जामुन का पेड़ था जिस पर घोंसला बनाकर एक कौवा रहता था.. उसी पेड़ के नीचे जमीन में बिल बनाकर चूहा रहता था और पास के ही घनी झाड़ियों में हिरण का बसेरा था.. दिन में कछुआ तलाब के किनारे रेत पर धूप सेंकता रहता था.. बाकी के तीनों मित्र सुबह होते ही भोजन की तलाश चले जाते और सूर्यास्त के समय तक वापस लौटते.. उसके बाद चारो मित्र इकट्ठे होकर एक साथ मिलकर खुब बोतें करते और खेलते थे..
एक दिन शाम को चूहा और कौवा तो आ गए लेकिन हिरण नहीं लौटा .. तब तीनों मित्र बैठकर उसकी राह देखने लगे... और काफी उदास हो गए.. तब मित्र कछुआ ने दुःख भरे स्वर में बोला कि भाई मित्र हिरण तो रोज तुम दोनों से भी पहले लौट आता था.. लेकिन आज क्या कारण है जो अब तक नहीं आया.. मेरा तो दिल डूबा जा रहा है.. फिर चूहे ने चिंतित स्वर में कहा हां बात तो अत्यंत गंभीर हैं.. लगता है जरुर वो किसी मुसीबत में पड़ गया है... अब हम करें क्या? तब कौवे ने ऊपर देखते हुए कहा मित्रों, वह जिधर चरने के लिए रोज जाता है उधर मैं उड़कर देखता लेकिन अब अंधेरा हो रहा है.. नीचे कुछ दिखेगा नहीं.. हमें सुबह तक इंतजार करनी होगी.. सुबह होते ही मैं उड़कर जाउंगा और उसकी कुछ खबर लाकर आप लोगों को दुंगा.. तब कछुए ने सिर हिलाते हुए कहा अपने मित्र की कुशलता जाने बिना हमें नींद कैसे आएगी.. दिल को चैन कैसे पड़ेगा.. मैं तो उस ओर अभी चल पड़ता हूं, ऐसे भी मेरी चाल बहुत धीमी है..तुम दोनों सुबह आ जाना.. चूहा बोला मुझसे भी हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठा जाएगा मैं भी कछुआ भाई के साथ चलुंगा.. कौवा भाई तुम सुबह आ जाना.. कछुआ और चूहा तो चल दिए.. कौवे ने किसी तरह से रात काटी और जैसे ही पौ फटी कौवा उड़ चला.. उड़ते-उड़ते चारों ओर नजर डालता जा रहा था.. आगे एक स्थान पर कछुआ और चूहा को जाते हुए देखकर उसे सूचना दी कि मैने उन्हें देख लिया है और मित्र हिरण की खोज में वो आगे जा रहा है.. अब कौवे ने हिरण को पुकारना भी शुरु कर दिया -- मित्र तुम कहां हो.. आवाज दो मित्र.. तभी उसे किसी के रोने की आवाज सुनाई दी.. जो कि उसके मित्र हिरण के जैसा था.. उस आवाज की दिशा में उड़कर वह उसी जगह पहुंचा जहां हिरण एक शिकारी के जाल में फंसा हुआ था.. हिरण ने कौवे को देखते ही रोने लगा और सारी घटना को बताते हुए कहा मित्र अब शिकारी आता ही होगा... वह मुझे पकड़कर ले जाएगा और समझों कि मेरी कहानी खत्म है... तुम मित्र चूहे और कछुए को मेरा अंतिम नमस्कार कहना... तब कौवा बोला मित्र हम जान की बाजी लगाकर भी तुम्हें छुड़ा लेंगें... हिरण ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा लेकिन मित्र तुम ऐसा कैसे कर पाओगे? तब कौवे ने पंख फड़फड़ाते हुए कहा सुनो मित्र मैं अपने मित्र चूहा को अपने पीठ पर बैठा कर लाता हूं, वह अपने पैने दांतों से जाल को तुरंत काट देगा.. तब हिरण को आशा की किरण दिखाई दी और कहा कि मित्र जल्दी करो... चूहे भाई को शीघ्र ले आओं.. नहीं तो शिकारी आ जाएगा.. कौवा तेजी से उड़ा और समय नष्ट किए बिना वहां पहुंचा जहां उसके मित्र चूहा और कछुआ थे.. उन्हें सारी विपदा बताते हुए कहा कि अगर शिकारी के आने से पहले हमने उसे नहीं छुड़ाया तो वह मारा जाएगा... तब चूहा ने कहा कौवे भाई हमें अपनी पीठ पर बैठाकर हिरण के पास ले चलो, मैं तुरंत ही जाल काट दुंगा.. चूहे ने वहां पहुंचकर तुरंत जाल काट कर हिरण को मुक्त कर दिया.. मुक्त होते ही हिरण ने अपने मित्रों को गले लगा लिया और रुंधे गले से उन्हें धन्यवाद दिया.. तब तक कछुआ भी वहां आ पहुंचा और खुशी के आलम में शामिल हो गया... हिरण बोला मित्र आप भी आ गए.. मैं भाग्यशाली हूं.. जिसे ऐसे सच्चे मित्र मिले.. चारो मित्र भाव-विभोर होकर खुशी में नाचने लगे... अचानक, हिरण चौका और उसने मित्रों को चेतावनी देते हुए कहा भाइयों देखो वह जालिम शिकारी आ रहा है.. तुरंत छिप जाओ.. उसके बाद चूहा फौरन पास के बिल में घुस गया.. कौवा उड़कर पेड़ पर जा बैठा.. हिरण एक ही छलांग में पास के झाड़ी में जाकर छिप गया... परंतु मंद गति का कछुआ दो कदम भी नहीं गया था कि शिकारी आ गया.. उसने जाल को काटा हुआ देखकर माथा पीटा और बोला क्या फंसा था.. किसने काटा... यह जानने के लिए वह पैरों के निशानों के सुराग ढूंढने के लिए इधर-उधर देख ही रहा था कि उसकी नजर रेंगते हुए कछुए पर पड़ी.. और वो खुश हो गया.. कहा भागते चोर की लंगोटी ही भली... अब यहीं कछुआ आज हमारे परिवार के भोजन के काम आएगा...बस उसने कछुए को उठाकर अपने थैले में डाला और जाल समेट कर चलने लगा... कौवे ने तुरंत हिरण और चूहे को बुलाकर कहा मित्रों हमारे मित्र कछुए को तो शिकारी थैले में डालकर ले जा रहा है.. चूहा बोला हमें अपने मित्र को छुड़ाना चाहिए.. लेकिन कैसे? इस बार हिरण ने समस्या का हल सुझाया.. कहा मित्रों हमें चाल चलनी होगी.. मैं लंगड़ाता हुआ शिकारी के आगे से निकलूंगा मुझे लंगड़ा जान वह मुझे पकड़ने के लिए कछुए वाला थैला छोड़ मेरे पीछे दोड़ेगा.. मैं उसे दूर ले जाकर चकमा दूंगा.. इसी बीच चूहा भाई थैले को कुतरकर कछुए को आजाद कर देंगे.. योजना अच्छी थी लंगड़ाकर चलते हिरण को देख शिकारी खुश हो गया.. वह थैला फेंककर हिरण के पीछे भागा.. हिरण उसे लंगड़ाने का नाटक कर घने जंगल की ओर ले गया और फिर चौकड़ी मारते हुए ओझल हो गया.. शिकारी दांत पीसता रह गया.. अब कछुए से ही काम चलाने का इरादा बनाकर लौटा तो उसे थैला खाली मिला.. उसमें छेद बना हुआ था.. शिकारी मुंह लटाकाकर खाली हाथ घर लौट गया... इसीलिए कहा जाता है कि यदि सच्चे मित्र हो तो जीवन में मुसीबतों का आसानी से सामना किया जा सकता है.
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
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#276 |
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उपरोक्त सूत्र में सैंकड़ों छोटे छोटे प्रसंग दिए गये हैं जो हर ख़ासो-आम की ज़िन्दगी को बदलने की क्षमता रखते हैं. इनके अनाम प्रणेताओं तथा प्रस्तुतकर्ताओं को हमारा सादर नमन.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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#277 |
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