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Old 30-10-2014, 06:00 PM   #1
rafik
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Arrow हमारे कुम्हार

गतिहीन होता कुम्हार का चाक
‘‘आया रे खिलौने वाला खेल-खिलौने लेकर आया रे.......।” शायद ये बीते दिनों की बात हो चुकी है कि हमारे गांव-मुहल्लों के बच्चे इस धुन पर झूमते थे। मौजूदा दौर में अवशेष रह गए मेला जैसे कुछ अवसरों पर खिलौने वाले दिखाई ज़रूर देते हैं लेकिन यह भी सत्य है कि पिछले बीस बरसों में खिलौने वाले एक-एक करके लुप्त प्राय होते गए हैं, जैसे पक्षियों या जानवरों की कोई प्रजाति लुप्त हो जाती है। पक्षियों और जानवरों के संरक्षण की चिंता तो है इस देश और दुनिया को है, लेकिन हाड़-मांस का एक पुतला जो पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चों के मनोरंजन के लिए माटी के पुतलों को अपनी कला से ढ़ालता आ रहा है उसकी चिंता शायद ही किसी को है।
बताना नहीं है कि हाड़-मांस का यह पुतला कुम्हार कहा जाता है। कुम्हार दिन रात मेहनत करके पहले तो मिट्टी इकट्ठा करता है, फिर इसमें से ईंट-कंकरीट के टुकड़ों को अलग करके इसे चिकना बनाता है। तब इस मिट्टी से तरह-तरह के खिलौने बनाता है, आग में पकाता है और बेचता है। बन्दर, तोता, कुत्ता, बिल्ली, हाथी, ऊंट, मछली, बत्तख, मुर्गा-मुर्गी, कोयल, कौवा, भालू, गुड्डा-गुड्डी, विभिन्न प्रकार देवी-देवताओं और घरों का प्रतिरूप तथा सुराही और मटका जैसे मृद्भाण्डों से लेकर दियरी (दीपक) और हमारे गंवई घरों की छतों के लिए खपरैल वगैरह सबकुछ कुम्हार की कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। इस काम में कुम्हार के परिवार का हर सदस्य चाहे वो बच्चा हो, जवान हो या बूढ़ा, महिला हो या पुरूष सभी एक मजदूर की हैसियत से काम करते हैं। लेकिन अथक परिश्रम के बाद भी इनके चाक की गति धीमी पड़ती जा रही है। मौजूदा दौर लाल-पीले कार्डों यानि बी॰पी॰एल॰-ए॰पी॰एल॰ कार्डों का दौर है। लेकिन गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाली मूंगा देवी बताती हैं कि ‘‘पहले तो उन्हें कार्ड बनवाने में महीनों सरकारी बाबुओं की चिरौरी करनी पड़ी और जब कार्ड बना भी तो पीला कार्ड यानि ए॰पी॰एल॰ कार्ड बना, जो कि गरीबी रेखा से ऊपर जीवनयापन करने वाले परिवारों को जारी किया जाता है।’’मूंगा देवी अपनी विवशता बताते हुए कहती हैं ‘‘भइया, तहसील-कचहरी से लेकर नगर पालिका तक कहीं कोई सुनवाई नहीं है। मिट्टी का धन्धा तो पहले से ही मन्दा है, ऊपर से प्लास्टिक उद्योग ने हमारी आजीविका पर लात मारने का काम किया है।’’ मूंगा देवी जैसी और भी महिलाएं हैं जो कुम्हकारी में दक्ष हैं और अपने घर वालों के काम में तड़के तीन बजे से ही हाथ बटाने लगती हैं। लेकिन इन महिलाओं के लिए नरेगा जैसी रोजगार योजनाओं का कोई अर्थ नहीं है।
जब से आर्थिक सुधार शुरू हुए हैं तब से इनकी बदहाली और बढ़ी है। मुक्त बाज़ार व्यवस्था ने कुम्हारों के परम्परागत पेशे पर पानी फेरने का काम किया है। मुक्त बाज़ार व्यवस्था के कारण ही बच्चे इको-फ्रेण्डली खिलौनों से दूर और इको-इनेमी खिलौनों के करीब होते गये हैं। परिश्रम और कला के प्रदर्शन के अलावा कुम्हार बेचारा कर भी क्या सकता है। उसके परंपरागत पेशे पर भी गुणवत्ता और बाज़ार की प्रतिस्पर्धा का खतरा मंडला रहा है। आर्थिक सुधारों के पैरोंकारों को कौन बताए कि कुम्हार के चाक पर बनी हर वस्तु गुणवत्ता की कसौटी पर खरी होती है। इनकी मेहनत में किसी एनर्जेटिक पिल या रसायन की मिलावट नहीं होती है। इनके द्वारा इकट्ठा की गयी मिट्टी शुद्ध होती है। दुर्भाग्य से इनका कोई ब्राण्ड नहीं होता। ज़ाहिर है ब्राण्ड नहीं तो प्रतिस्पर्धा कैसी ? प्रतिस्पर्धा का महत्व तो उनके लिए है जिनका नाम देश-विदेश के किसी नामी पत्र-पत्रिका में छपने वाले धनहरियों की सूची में होता है। जैसे टाटा, बिरला, अंबानी इत्यादि। जिनके ब्राण्ड उत्पाद चाहे जहाज हो या सुई, अच्छा हो या घटिया हो, किसी शापिंग मॉल की शोभा बनते हैं। चलिए कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि मुक्त बाजार की नीति भेदभाव परक नहीं है। तो क्या हमें कुम्हार के चाक का कोई नमूना सामान्य रूप से बाजार में या किसी शापिंग मॉल में दिखाई देता है? नहीं दिखेगा क्योंकि नई आर्थिक नीति ने उनके उत्पादों को इस लायक नहीं छोड़ा कि वो पूंजीवाद के दंगल में अपनी कला का लोहा मनवा सकें।

ये बात किसी से छिपी नहीं है कि आज का बाज़ार सस्ते और हानिकारक खिलौनों से भरा पड़ा है। सस्ते तो कुम्हार के हाथ के बने खिलौने भी होते हैं। लेकिन प्लास्टिक खिलौनों के आगे उनकी पूछ कहाँ। मुहम्मदाबाद (ग़ाज़ीपुर) के कुम्हार मोहन राम प्रजापति जिन्हें मुक्त बाज़ार और प्लास्टिक उद्योग की जानकारी नहीं है, कहते हैं कि ‘‘प्लास्टिक के खिलौनों, कप, प्लेट और गिलास से उनका पेशा बुरी तरह प्रभावित हुआ है।’’ मोहन राम महंगाई की परिभाषा तो नहीं जानते लेकिन महंगाई की मार उनसे और उन जैसे लोगों से बेहतर कोई नहीं जानता है। कहते हैं ‘‘हर वस्तु का मूल्य बढ़ चुका है लेकिन उनके द्वारा बनाए चुक्के, दीपों, सुराहियों और अन्य वस्तुओं का मूल्य लगभग पहले जितना ही है। जब मूल्य बढ़ाते हैं तो इन वस्तुओं के बचेखुचे खरीदार भी यूज एण्ड थ्रो प्रकार की वस्तुओं को तरजीह देते हैं।’’ज़ाहिर है महंगाई दो अंकों की आसमान छू रही है। छठें वेतन आयोग ने नौकरशाहों के लिए खूब किया। और हाल-फिलहाल में हमारे सांसदों के वेतन-भत्ता में भी लगभग 300 प्रतिशत की वृद्धि हुई। लेकिन कुम्हार जो दिन-रात कड़ी मेहनत करता है, उसे वृद्धा पेन्शन तो दूर दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती है।
हम जानते हैं ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से छोटी समझी जाने वाली जातियां विकास के मुख्य धारा से दूर रही हैं। मुक्त बाज़ार व्यवस्था के प्रसार से हाशिए और मुख्यधारा यानि गरीब और अमीर के बीच की खाई और बढ़ी है। कुम्हकारी ही नहीं बल्कि हर तरह का लघु उद्योग इस व्यवस्था के आगे दम तोड़ता नज़र आ रहा है। सिर्फ कुम्हार का चाक ही नहीं डगमगा रहा है बल्कि बैकरी, कपड़ा और ताला जैसे छोटे-छोटे उद्योगों पर भी मुक्त बाज़ार व्यवस्था की सीधी मार पड़ रही है। जुलाहे का ताना-बाना लड़खड़ा रहा है, बरफी, पेड़ा, समोसा और पापड़ी का स्वाद फीका पड़ रहा है।
ऐसा नहीं कि आर्थिक सुधारों ने हमें सिर्फ निराश ही किया है। उदारीकरण के नवयुग में हर तीन महीने के बाद ब्राण्ड बदल लेने वाले उत्पादों का चलन भी बढ़ा है। टकाटक, मुर्गे की टांग, कुरकुरे और कुरमुरे कुछ ऐसे ही उत्पाद हैं जहां रोजगार की कुछ नयी संभावना बनी है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि लघु उद्योग के विकास के नाम पर मिलावटखोरी और मुनाफाखोरी दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। यही हाल खिलौनों का है। बेनटेन जैसे चाइनीज खिलौने लोकप्रिय हुए हैं। बल्कि ये कहना चाहिए कि कॉर्टून नेटवर्क और हंगामा जैसे टी॰वी॰ चैनलों के माध्यम से लोकप्रिय बनाए गए हैं। दुःख की बात तो यह है कि प्लास्टिक के बने खिलौनों से बच्चों को होने वाले स्वास्थ्य संबंधी नुकसान की खबरें आने के बाद भी इस तरह के खिलौनों के विदेशी और देशी ब्राण्ड अबाध रूप से हमारे बच्चों के हाथों तक पहुंचाए जा रहे हैं।
भूमण्डलीकरण अपने मूल अर्थां में आगे बढ़ रहा है, लेकिन तीसरी दुनिया के देशों के लिए एक दावानल की तरह, जो उदारवाद के नाम पर हमारे कुम्हारों, बुनकरों, ताला साजों और इस तरह के अन्य दस्तकारों की जिन्दगियां लीलता जा रहा है।
दरअसल मुक्त बाज़ार पहले हमें अपने ज़मीनी सरोकारों से मुक्त कर रहा है फिर अपने उत्पादों को हम तक पहुंचा रहा है। यही कारण है कि आर्थिक सुधारों की बयार में कुम्हार का चाक और बुनकर का चरखा गतिहीन होते जा हैं। वरना पहले हमारी किताबों में कुम्हार का चाक नाम से एक अध्याय ही हुआ करता था। फिर भी हमें याद रखना चाहिए कि चाक के अविष्कार ने ही दुनिया को सभ्यता का पाठ पढ़ाया। यदि चाक का अविष्कार नहीं हुआ होता तो आज हमारे पास न तो इतना समृद्ध भौतिक विज्ञान होता और न ही गणित और ज्यामिती।

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