29-03-2015, 09:44 PM | #11 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
वहीं डूबा हआ पाया गया हूँ ब-हाल-ए-गुम-रही पाया गया हूँ हरम से दैर में लाया गया हूँ बला काफ़ी न थी इक ज़िंदगी की दोबारा याद फरमाया गया हूँ ब-रंग-ए-लाला-ए-वीराना बेकार खिलाया और मुरझाया गया हूँ अगरचे अब्र-ए-गौहर-बार हूँ मैं मगर आँखों से बरसाया गया हूँ सुपुर्द-ए-ख़ाक ही करना मुझ को तो फिर काहे को नहलाया गया हूँ फ़रिश्ते को न मैं शैतना समझा नतीजा ये कि बहकाया गया हूँ कोई सनअत नहीं मुझ में तो फिर क्यूँ नुमाइश-गाह में लाया गया हूँ ब-क़ौल-ए-बरहमन क़हर-ए-ख़ुदा हूँ बुतों के हुस्न पर ढाया गया हूँ मुझे तो इस ख़बर ने खो दिया है सुना है मैं कहीं पाया गया हूँ ‘हफ़ीज़’ अहल-ए-ज़बाँ कब मानते थे बड़े ज़ोरों से मनवाया गया हूँ
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29-03-2015, 09:44 PM | #12 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
ख़ून बर कर मुनासिब नहीं दिल बहे
दिल नहीं मानता कौन दिल से कहे तेरी दुनिया में आए बहुत दिन रहे सुख ये पाया कि हम ने बहुत दुख सहे बुलबुलें गुल के आँसु नहीं चाटतीं उन को अपनी ही मरग़ूब हैं चहचहे आलम-ए-नज़ा में सुन रहा हूँ में क्या ये अज़ीज़ों की चीख़ें हैं कया क़हक़हे इस नए हुस्न की भी अदाओं पे हम मर मिटेंगे ब-शर्ते-के ज़िंदा रहे तुम ‘हफ़ीज’ अब घिसटने की मंज़िल में हो दौर-ए-अय्याम पहिया है ग़म हैं रहे
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29-03-2015, 09:45 PM | #13 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
कोई दवा न दे सके मशवरा-ए-दुआ दिया
चारा-गरों ने और भी दिल का दर्द बढ़ा दिया दोनों को दे के सूरतें साथ ही आईना दिया इश्क़ बिसोरने लगा हुस्न ने मुस्कुरा दिया जौक़-ए-निगाह के सिवा शौक़-ए-गुनाह के सिवा मुझ को बुतों से क्या मिला मुझ को ख़ुदा ने क्या दिया थी न ख़िजाँ की रोक-थाम दामन-ए-इख़्तिसार में हम ने भरी बहार में अपना चमन लुटा दिया हुस्न-ए-नज़र की आबरू सनअत-ए-बरहमन से है जिस को सनम बना लिया उस को ख़ुदा बना दिया दाग़ है मुझ पे इश्क़ का मेरा गुनाह भी तो देख उस की निगाह भी तो देख जिस ने ये गुल खिला दिया इश्क़ की मम्लिकत में है शोरिश-ए-अक्ल-ए-ना-मुराद उभरा कहीं जो ये फ़साद दिन ने वहीं दबा दिया नक़्श-ए-वफ़ा तो मैं ही था अब मुझे ढूँडते हो क्या हर्फ़-ए-गलत नज़र पड़ा तुम ने मुझे मिटा दिया ख़ुब्स-ए-दुरूँ दिखा दिया हर दहन-ए-ग़लीज ने कुछ न कुछ कहा ‘हफ़ीज़’ ने हँस दिया मुस्कुरा दिया
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29-03-2015, 09:45 PM | #14 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
क्यूँ हिज्र के शिकवे करता है क्यूँ दर्द के रोने रोता है
अब इश्क़ किया तो सब्र भी कर इस में तो यही कुछ होता है आग़ाज-ए-मुसीबत होता है अपने ही दिल की शामत से आँखों में फूल खिलाता है तलवों में काँटें बोता है अहबाब का शिकवा क्या कीजिए ख़ुद जाहिर ओ बातिन एक नहीं लब ऊपर ऊपर हँसते हैं दिल अंदर-अंदर रोता है मल्लाहों को इल्ज़ाम न दो तुम साहिल वाले क्या जानो ये तूफाँ कौन उठाता है ये कश्ती कौन डुबोता है क्या जानिए ये क्या खोएगा क्या जानिए ये क्या पाएगा मंदिर का पुजारी जागता है मस्जिद का नमाज़ी सोता है ख़ैरात की जन्नत ठुकरा दे है शान यही ख़ुद-दारी की जन्नत से निकाला था जिस को तू उस आदम का पोता है
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29-03-2015, 09:45 PM | #15 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
तीर चिल्ले पे न आना कि ख़ता हो जाना
लब तक आते हुए शिकवे का दुआ हो जाना याद है उस बुत-ए-काफिर का ख़फा हो जाना और मिरा भूल के माइल-ब-दुआ हो जाना हैरत-अंगेज है नक्काश-ए-अज़ल के हाथों मेरी तस्वीर का तस्वीर-ए-फ़ना हो जाना दस्त-ए-तक़दीर में शमशीर-ए-जफ़ा देना है ख़ुद-ब-ख़ुद बंदा-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा हो जाना उस की उफ़्ताद पे ख़ुर्शीद की रिफ़त कुर्बां जिस को भाया तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-हो जाना रौनक़-ए-बज़्म है शेवन से तो शेवन ही सही हम-सफ़ीरान-ए-चमन फिर न ख़फा हो जाना दावर-ए-हश्र का इंसाफ़ इशारे उन के बस यही है किसी बंदे का ख़ुदा हो जाना
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29-03-2015, 09:46 PM | #16 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
उभरे जा ख़ाक से वो तह-ए-ख़ाक हो गए
सब पाइमाल-ए-गर्दिश-ए-अफ़लाक हो गए रखती थी लाग मेरे गिरेबाँ से नौ-बहार दामन गुलों के बाग़ में क्यूँ चाक हो गए थे दीदा-हा-ए-ख़ुश्क मोहब्बत की आबरू कम-बख़्त उन के सामने नम-नाक हो गए ऐसा भी क्या मिज़ाज क़यामत का दिन है आज पेश-ए-ख़ुदा तुम और भी बे-बाक हो गए आते ही बज़्म-ए-वाज़ से चलते बने ‘हफीज’ दो हर्फ़ सुन के साहिब-ए-इदराक हो गए
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29-03-2015, 09:47 PM | #17 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
ये क्या मक़ाम है वो नज़ारे कहाँ गए
वो फूल क्या हुए वो सितारे कहाँ गए यारान-ए-बज़्म जुरअत-ए-रिंदाना क्या हुई उन मस्त अँखड़ियों के इशारे कहाँ गए एक और दौर का वो तक़ाज़ा किधर गया उमड़े हुए वो होश के धारे कहाँ गए उफ़्ताद क्यूँ है लग्ज़िश-ए-मस्ताना क्यूँ नहीं वो उज्र-ए-मय-कशी के सहारे कहाँ गए दौरान-ए-ज़लज़ला जो पनाह-ए-निगाह थे लेटे हुए थे पाँव पसारे कहाँ गए बाँधा था क्या हवा पे वो उम्मीद का तिलिस्म रंगीनी-ए-नज़र के ग़ुबारे कहाँ गए उठ उठ के बैठ बैठ चुकी गर्द राह की यारो वो क़ाफ़िले थके हारे कहाँ गए हर मीर-ए-कारवाँ से मुझे पूछना पड़ा साथी तिरे किधर को सिधारे कहाँ गए फ़रमा गए थे राह में बैठ इंतिजार कर आए नहीं पलट के वो प्यारे कहाँ गए तुम से भी जिन का अहद-ए-वफ़ा उस्तुवार था ऐ दुश्मनों वो दोस्त हमारे कहाँ गए कश्ती नई बनी कि उठा ले गया कोई तख़्ते जो लग गए थे किनारे कहाँ गए कश्ती नई बनी कि उठा ले गया कोई तख़्ते जो लग गए थे किनारे कहाँ गए अब डूबतों से पूछता फिरता है नाख़ुदा जिन को लगा चुका हूँ किनारे कहाँ गए बे-ताब तेरे दर्द से थे चाराग़र ‘हफ़ीज’ क्या जानिए वो दर्द के मारे कहाँ गए
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29-03-2015, 09:47 PM | #18 |
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Re: 'हफ़ीज़' जालंधरी की ग़ज़लें
जिंदगानी का लुत्फ़ भी आ जाएगा
ज़िंदगानी है तो देखा जाएगा जिस तरह लकड़ी को खा जाता है घुन रफ़्ता रफ़्ता ग़म मुझे खा जाएगा हश्र के दिन मेरी चुप का माज़रा कुछ न कुछ तुम से भी पूछा जाएगा मुस्कुरा कर मुँह चिड़ा कर घूर कर जा रहे हो ख़ैर देखा जाएगा कर दिया है तुम ने दिल को मुतमइन देख लेना सख़्त घबरा जाएगा हज़रत-ए-दिल काम से जाऊँगा मैं दिल-लगी में आप का क्या जाएगा दोस्तों की बे-वफ़ाई पर ‘हफीज़’ सब्र करना भी मुझे आ जाएगा
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