02-04-2015, 07:06 PM | #11 |
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Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
फ़स्ल-ए-गुल आते ही इस तरह से वीराँ होंगे दर-ब-दर फिरते रहे ख़ाक उड़ाते गुज़री वहशत-ए-दिल तेरे क्या और भी एहसाँ होंगे राख होने लगीं जल जल के तमन्नाएँ मगर हसरतें कहती हैं कुछ और भी अरमाँ होंगे ये तो आग़ाज-ए-मसाइब है न घबरा ऐ दिल हम अभी और अभी और परेशां होंगे मेरी दुनिया में तेरे हुस्न की रानाई है तेरे सीने में मेरे इश्*क़ के तूफ़ाँ होंगे काफ़री इश्*क़ का शेवा है मगर तेरे लिए इस नए दौर में हम फिर से मुसलमाँ होंगे लाख दुश्*वार हो मिलना मगर ऐ जान-ए-जहाँ तुझ से मिलने के इसी दौर में इमकाँ होंगे तू इन्हीं शेरों पे झूमेगी ब-अंदाज़-ए-दीगर हम तेरी बज़्म में इक रोज़ ग़ज़ल-ख़्वाँ होंगें
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02-04-2015, 07:07 PM | #12 |
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Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
क्या क्या नहीं किया मगर उन पर असर नहीं
शायद के अपनी सई-ए-जुनूँ कार-गर नहीं घबरा के चाहते हैं के गर्दिश में हम रहें मंज़िल कहीं न हो कोई ऐसा सफ़र नहीं मिल जाए एक रात मोहब्बत की ज़िंदगी फिर ख़्वाहिश-ए-हयात हमें उम्र भर नहीं आवारगी में लुत्फ़ ओ अज़ीयत के बावजूद ऐसा नहीं हवा के फ़िक्र-ए-सहर नहीं
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02-04-2015, 07:08 PM | #13 |
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Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
लरज़ लरज़ के न टूटें तो वो सितारे क्या
जिन्हें न होश हो ग़म का वो ग़म के मारे क्या महकते ख़ून से सहरा जले हुए गुलशन नज़र-फरेब हैं दुनिया के ये नज़्जारे क्या उम्मीद-ओ-बीम की ये कशमकश है राज़-ए-हयात सुकूँ-नवाज़ हैं इस के सिवा सहारे क्या कोई हज़ार मिटाए उभरते आए हैं हम अहल-ए-दर्द जुनून-ए-जफ़ा से हारे क्या
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02-04-2015, 07:08 PM | #14 |
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Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
महफिलों में जा के घबराया किये
दिल को अपने लाख समझाया किये यास की गहराइयों में डूब कर ज़ख्म-ए-दिल से ख़ुद को बहलाया किये तिश्*नगी में यास ओ हसरत के चराग़ ग़म-कदे में अपने जल जाया किये ख़ुद-फ़रेबी का ये आलम था के हम आईना दुनिया को दिखलाया किये ख़ून-ए-दिल उनवान-ए-हस्ती बन गया हम तो अपने साज़ पर गाया किये
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02-04-2015, 07:09 PM | #15 |
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Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
वो रिंद क्या के जो पीते हैं बे-ख़ुदी के लिए
सुरूर चाहिए वो भी कभी कभी के लिए ये क्या के बज़्म में शमएँ जला के बैठे हो कभी मिलो तो सर-ए-राह दुश्*मनी के लिए अवध की शाम-रफ़ीकों को मह-जबीनों को हर इक छोड़ के आए थे बम्बई के लिए मगर ये क्या के ब-जु़ज़ दर्द कुछ हमें न मिला अजीब शहर है ये एक अजनबी के लिए हज़ार चाहें न छूटेगी हम से ये दुनिया यहीं रहेंगे मोहब्बत की बे-कसी के लिए कोई पनाह नहीं कोई जा-ए-अमन नहीं हयात जुहद-ए-मुसलसल है आदमी के लिए ये कह रहा है कोई अपने जाँ-निसारों से कुछ और चाहिए अब रस्म-ए-आशिक़ी के लिए कहाँ कहाँ न पुकारा कहाँ कहाँ न गए बस इक तबस्सुम-ए-पिहाँ की रौशनी के लिए
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02-04-2015, 07:10 PM | #16 |
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Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
कोई इमेज किसी बात का हसीं साया
नए पुराने ख़यालों का इक अछूता मेल किसी की याद का भटका हुआ कोई जुगनू किसी के नीले से काग़ज़ पे चंद अधूरे लफ़्ज़ बग़ावतों का पुराना घिसा पिटा नारा किसी किताब में ज़िंदा मगर छुपी उम्मीद पुरानी ग़ज़लों की इक राख बे-दिली ऐसी ख़ुद अपने आप से उलझन अजीब बे-ज़ारी ग़रज़ कि मूड के सौ रंग आईने परतव मगर ये क्या हुआ अब कुछ भी लिख नहीं सकता न जाने कब से ये बे-मअ’नी ख़ामुशी बे-मुहीत ख़ुद अपने साए से मैं छुट गया हूँ या शायद कहीं मैं लफ़्ज़ों की दुनिया को छोड़ आया हूँ
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02-04-2015, 07:10 PM | #17 |
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Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
हवाएँ चलती हैं थमती हैं बहने लगती हैं
नए लिबास नए रंग-रूप सज-धज से पुराने ज़ख़्म नए दिन को याद करते हैं वो दिन जो आ के नक़ाबें उतार डालेगा नज़र को दिल से मिलाएगा दिल को बातों से हर एक लफ़्ज़ में मअ’नी की रौशनी होगी मगर ये ख़्वाब की बातें सराब की यादें हर एक बार पशीमान दिल गिरफ़्ता हैं सुब्ह के सार ही अख़बार वहशत-ए-अफ़्ज़ा हैं हर एक रहज़न-ओ-रहबर की आज बन आई कि अब हर एक जियाला है सोरमा सब हैं बताऊँ किस से कि मैं मुंतज़िर हूँ जिस दिन का वो शायद अब न कभी आएगा ज़माने में कहाँ पे है मिरा गोडो मुझे ख़बर ही नहीं उसे मैं ढूँड चुका रोम और लंदन में न मास्को में मिला औन र चीन ओ पैरिस में भला मिलेगा कहाँ बम्बई की गलियों में ये इंतिज़ार-ए-मुसलसल ये जाँ-कनी ये अज़ाब हर एक लम्हा जहन्नम हर एक ख़्वाब सराब
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02-04-2015, 07:11 PM | #18 |
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Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
ख़ून का हर इक क़तरा जैसे
दीमक बन कर दौड़े नाकामी के ज़हर को चाटे दर्द में घुलता जाए छलनी जिस्म से रिसते लेकिन अरमानों के रंग जिन का रूप में आना मुश्किल और जब भी अल्फ़ाज़ में ढल कर काग़ज़ पर बह निकले ख़ाके तस्वीरों के बनाए आँखें तारे हाथ शुआएँ दिल का सदफ़ है जिस मे कितने सच्चे मोती भरे हुए हैं बाहर आते ही ये मोती शबनम बन कर उड़ जाते हैं जैसे अपना खोया सूरज ढूँढ रहे हैं मैं अपने अंजाम से पहले शायद इक दिन इन ख़ाकों में रंग भरूँगा ये भी तो मुमकिन है लेकिन मैं भी इक ख़ाका बन जाऊँ जिस को दीमक चाट रही हो
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02-04-2015, 07:13 PM | #19 |
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Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
इक ख़ुश्बू दर्द-ए-सर की मुरझाई कलियों को खिलाए जाती है
ज़ेहन में बिच्छू उम्मीदों के डंक लगाते हैं हिचकी ले कर फिर ख़ुद ही मर जाते हैं दिल की धड़कन सच्चाई के तल्ख़ धुएँ को गहरा करती पैहम बढ़ती जाती है पेट में भूक डकारें लेती रहती है फिर रग रग में सूइयाँ बन कर भागी भागी फिरती हैं पूरे जिस्म में दर्द का इक लावा सा बहता रहता है ऐसा मुझ को लगता है जैसे मैं आख़िरी क़य में दुनिया की सारी ग़िज़ाएँ ख़्वाब ओ हक़ीक़त की आलाइश आदर्शों की मीठी शराबें ये जीवन सारा का सारा उगल दूँगा शायद मुझ को इस लम्हे निरवान मिले
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