09-07-2015, 03:14 PM | #11 |
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Re: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
पेड़ों के झुनझुने, बजने लगे; लुढ़कती आ रही है सूरज की लाल गेंद। उठ मेरी बेटी सुबह हो गई। तूने जो छोड़े थे, गैस के गुब्बारे, तारे अब दिखाई नहीं देते, (जाने कितने ऊपर चले गए) चांद देख, अब गिरा, अब गिरा, उठ मेरी बेटी सुबह हो गई। तूने थपकियां देकर, जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था, टीले, मुंहरंगे आंख मलते हुए बैठे हैं, गुड्डे की ज़रवारी टोपी उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया वह देखो उड़ी जा रही है चूनर तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी उठ मेरी बेटी सुबह हो गई। तेरे साथ थककर सोई थी जो तेरी सहेली हवा, जाने किस झरने में नहा के आ गई है, गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब, देख तो, कितना रंग फैल गया उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान, अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बंधे रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज़ पन्नी की हवा चर्खियां, लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू, उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई। उठ देख, बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए, छत की मुंडेर पर बैठा है, धूप आ गई।
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09-07-2015, 03:17 PM | #12 |
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Re: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
कोई मेरे साथ चले
मैंने कब कहा कोई मेरे साथ चले चाहा जरुर! अक्सर दरख्तों के लिये जूते सिलवा लाया और उनके पास खडा रहा वे अपनी हरीयाली अपने फूल फूल पर इतराते अपनी चिडियों में उलझे रहे मैं आगे बढ गया अपने पैरों को उनकी तरह जडों में नहीं बदल पाया यह जानते हुए भी कि आगे बढना निरंतर कुछ खोते जाना और अकेले होते जाना है मैं यहाँ तक आ गया हूँ जहाँ दरख्तों की लंबी छायाएं मुझे घेरे हुए हैं...... किसी साथ के या डूबते सूरज के कारण मुझे नहीं मालूम मुझे और आगे जाना है कोई मेरे साथ चले मैंने कब कहा चाहा जरुर!
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