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Old 20-08-2015, 09:04 PM   #281
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Default Re: सुखनवर (महान शायर व उनकी शायरी)

आदिल रशीद 'तिलहरी'


नज़्म
मंज़िल-ऐ-मक़सूद

समझ लिया था बस इक जंग जीत कर हमने
के हमने मंज़िल-ऐ-मक़सूद पर क़दम रक्खे
जो ख़्वाब आँखों में पाले हुए थे मुद्दत से
वो ख़्वाब पूरा हुआ आई है चमन में बहार
मिरे दिमाग में लेकिन सवाल उठते हैं
क्यूँ हक बयानी का सूली है आज भी ईनाम ?
क्यूँ लोग अपने घरों से निकलते डरते हैं ?
क्यूँ तोड़ देती हें दम कलियाँ खिलने से पहले ?
क्यूँ पेट ख़ाली के ख़ाली हैं खूँ बहा कर भी ?
क्यूँ मोल मिटटी के अब इंतिकाम बिकता है?
क्यूँ आज बर्फ़ के खेतों में आग उगती है ?
अभी तो ऐसे सवालों से लड़नी है जंगें
अभी है दूर बहुत, बहुत दूर मंज़िल-ऐ-मक़सूद


शब्दार्थ:

मंज़िल-ऐ-मक़सूद = जिस मंज़िल की इच्छा थी
हक बयानी = सच बोलना
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
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Old 25-09-2015, 03:16 PM   #282
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Default Re: सुखनवर (महान शायर व उनकी शायरी)

पंडित हरिचंद अख्तर
PANDIT HARICHAND AKHTAR


जन्म = 15 अप्रेल 1901
मृत्यु = 1 जनवरी 1958




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Old 25-09-2015, 03:17 PM   #283
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पंडित हरिचंद अख्तर
pandit harichand akhtar


पंडित हरिचंद अख्तर (या पंडित हरिचंद अख्तर होशियारपुरी) का जन्म पंजाब के होशियारपुर जिले में 15 अप्रेल 1901 में हुआ था. वे एक जानेमाने पत्रकार व उर्दू के कद्दावर शायर थे. उन्होंने ग़ज़ल के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया था. वे उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी के विद्वान थे. उन्होंने काफी समय तक लाहौर में लाला करमचंद द्वारा स्थापित पत्रिका “पारस” में काम किया तथा बाद में कुछ समय पंजाब असेंबली में भी सेवारत रहे. 1947 में देश के विभाजन के पश्चात वे दिल्ली आ गये. यहीं पर 1958 में उनकी मृत्यु हुयी.

ग़ज़ल के क्षेत्र में उन्होंने परंपरागत शैली अपनायी. वे अपने आसपास की ज़िन्दगी से ही अपने विषय उठाते थे और अभिव्यक्ति की सादगी पर बहुत ध्यान देते थे. उनकी ग़ज़लों का संकलन “कुफ़्र-ओ-ईमां” बहुत लोकप्रिय हुआ था.

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Old 25-09-2015, 03:40 PM   #284
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पंडित हरिचंद अख्तर




ग़ज़ल

मिलेगी शेख को जन्नत हमें दौजख अता होगा
बस इतनी बात है, जिसके लिए महशर बपा होगा

रहे दोनों फ़रिश्ते साथ अब इन्साफ क्या होगा
किसी ने कुछ लिखा होगा, किसी ने कुछ लिखा होगा

बरोज़े-हश्र हाकिम कादरे मुतलक खुदा होगा
फरिश्तों के लिखे और शेख की बातो से क्या होगा

तेरी दुनिया में सब्रो-शुक्र से हमने बसर कर ली
तेरी दुनिया से बढ़कर भी तेरे दौजख में क्या होगा

मुरक्कब हू मै निसियानो-खता से क्या कहू यारब
कभी हर्फे-तमन्ना भी जबा पर आ गया होगा

सुकूने-मुस्तकिल, दिल बे-तमन्ना, शेख की सुहबत
यह जन्नत है तो इस जन्नत से दौजख क्या बुरा होगा

मेरे अशआर पर खामोश है ज़ुजबुज़ नहीं होता
यह वाइज़ वाइजो में कुछ हकीकत-आशना होगा

शब्दार्थ:
दौजख = नर्क / महशर = महाप्रलय/ बपा = कायम होना / मुतलक = मुलाकात / मुरक्कब = मिला हुआ / निसियानो-खता = भूल-दोष / हर्फे-तमन्ना = इच्छा की बात / मुस्तकिल = दृढ या अटल / अशआर = ग़ज़ल के शे’र / जुज़बुज़ = अनिश्चय / वाइज़ = धर्मोपदेशक / आशना=वाकिफ

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Old 25-09-2015, 03:42 PM   #285
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पंडित हरिचंद अख्तर




ग़ज़ल

शबाब आया, किसी बुत पर फ़िदा होने का वक़्त आया
मिरी दुनिया में बंदे के ख़ुदा होने का वक़्त आया

तकल्लुम की ख़मोशी कह रही है हर्फ़-ए-मतलब से
कि अश्क़ आमेज़ नज़रों से अदा होने का वक़्त आया

उसे देखा तो ज़ाहिद ने कहा, ईमान की ये है
के अब इन्सान को सज्दा-रवा होने का वक़्त आया

ख़ुदा जाने ये है ओज-ए-यक़ीं या पस्ती-ए-हिम्मत
ख़ुदा से कह रहा हूँ नाख़ुदा होने का वक़्त आया

हमें भी आ पड़ा है दोस्तों से काम कुछ, यानी
हमारे दोस्तों के बेवफ़ा होने का वक़्त आया

शब्दार्थ
तकल्लुम = बातचीत / अश्क-आमेज = आंसू भरी / औजे-यकीं = विश्वास की ऊँचाई या पराकाष्ठा / पस्ती-ए-हिम्मत = साहस की कमी / नाख़ुदा = नाविक


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Last edited by rajnish manga; 28-09-2015 at 08:42 AM.
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ग़ज़ल

कलियों का तबस्सुम हो, तुम हो, कि सुभा हो
इस रात के सन्नाटे में, कोई तो सदा हो

यूँ जिस्म महकता है हवा ए गुल-ए-तर से
जैसे कोई पहलु से अभी उठ के गया हो

दुनिया हमा तन गोश है, आहिस्ता से बोलो
कुछ और क़रीब आओ, कोई सुन ना रहा हो

ये रंग, ये अंदाज़-ए-नवाज़िश तो वही है
शायद कि कहीं पहले भी तू मुझ से मिला हो

यूं रात को होता है गुमां दिल की सदा पर
जैसे कोई दीवार से सर फोड़ रहा हो

दुनिया को ख़बर क्या है मिरे ज़ौक़-ए-नज़र की
तुम मेरे लिए रंग हो, ख़ुशबू हो, ज़िया हो

यूँ तेरी निगाहों में असर ढूंढ रहा हूँ
जैसे कि तुझे दिल के धड़कने का पता हो

इस दर्जा मुहब्बत में तग़ाफ़ुल नहीं अच्छा
हम भी जो कभी तुमसे गुरेज़ाँ हो तो क्या हो

हम ख़ाक के ज़र्रों में हैं अख़तर भी, गुहर भी
तुम बाम-ए-फ़लक से, कभी उतरो तो पता हो
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