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Old 09-05-2017, 11:56 PM   #1
soni pushpa
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Default जब गुरुदेव भी रो पड़े

एक नारी जो की हर तरफ से सिर्फ और सिर्फ दुखों से ही जुडी है , उसके दुःख को यदि समाज के लोग कम नहीं कर सकते तो उसकी अवहेलना करके, उसे मानसिक यातना देकर प्रताड़ित क्यों करते रहते हैं .
आज समाज में काफी सुधार हुआ है परन्तु जहाँ शुभ कार्य होते हैं वहां आज भी ऐसी स्त्रियों को दूर रखा जाता है जिनके पति नहीं होते। जब जब ऐसा कुछ घटित होते हुए देखती हूँ तब तब मन में सवाल उठता है की जिस पुरुष की पत्नी न हो उसके साथ लोग क्यों ऐसा व्यवहार नहीं करते ,उसे लोग क्यों अशुभ नहीं मानते आखिर हर जगह , समाज के हरेक क्षेत्र में महिलाओं को ही क्यों सहना पड़ता है सब कुछ ?

हमारे समाज की कई कुप्रथाओं को हमारे देश के कई समाज सुधारकों ने और संतों ने कम तो किया है किन्तु अब भी अंदरूनी तरीके से ही सही विधवा स्त्री को शुभ प्रसंगों में अपमानित तो होना ही पड़ता है .
कुछ इसी विषय पर ये प्रसंग पढ़ा अभी मैंने जो आप सबके साथ शेयर कर रही हूँ




👉 गुरुदेव भी रो पड़े

🔵 मध्य प्रदेश में यज्ञ चल रहा था। गुरुदेव के साथ मैं भी वहाँ गया हुआ था। एक दिन एक हॉल में तीन- चार सौ बहिनें उनके साथ बैठी थीं। बातचीत के साथ- साथ हँसी के फव्वारे छूट रहे थे। गुरुदेव बात- बात में हँसाते जाते थे। सभी बहिनें उनकी बातों पर हँस रही थीं। एक बहिन उन सबमें गुमसुम बैठी थी। उसे हँसी नहीं आ रही थी। उसे दुखी देख गुरुदेव ने पास बुलाया और पूछा- बेटी तुझे क्या दुःख है?

🔴 वहाँ बैठी सभी बहिनें सज- धज कर आई थीं, अच्छे- अच्छे कपड़े- जेवर पहने हुए थीं और वह लड़की सिर्फ सफेद धोती पहनी थी। गुरुदेव की बात का उसने कोई जवाब नहीं दिया, केवल सिर झुका लिया। गुरुदेव ने फिर दुलारते हुए पूछा- बेटी क्या कष्ट है तुझे, तू हँस भी नहीं रही है। उसे निरुत्तर देख गुरुदेव उसे अलग ले गए। मैं भी उनके साथ चला गया। मैं हमेशा उनकी हरेक बातचीत सुनने का प्रयास करता। उनसे काफी कुछ सीखने को मिलता था।

🔵 अलग ले जाकर उन्होंने उससे पूछा- बेटी बता तुझे क्या दु:ख है? तेरे सारे दु:ख दूर कर दूँगा। उसने लम्बी साँस ली। फिर बोली- गुरुदेव, मुझे कोई दु:ख नहीं है। उसकी आँखें आँसुओं से डबडबा आईं। गुरुदेव के बहुत दबाव डालने पर उसने बताया कि उसकी शादी बहुत बचपन में ही हो गई थी। उसके पति का स्वर्गवास हो चुका है। और अब वह स्वनिर्भर जीवन जी रही है। एक विद्यालय में शिक्षिका है और अपना सब काम स्वयं करती है।

🔴 विधवा होने का दु:ख तो वह झेल ही रही थी मगर समाज की बेरुखी से वह बुरी तरह टूट चुकी थी। वह कह रही थी ‘‘मैं 100 अखण्ड ज्योति मँगाती हूँ। उसे लेकर सुबह किसी के घर जाती हूँ तो सभी मुझसे नाराज होते हैं कि तू विधवा है। सुबह- सुबह आकर मुँह दिखला दिया, न जाने आज का दिन कैसा बीतेगा। सब गाली भी देते हैं, मैं चुप होकर सुन लेती हूँ और वापस चली आती हूँ। शाम को अखण्ड ज्योति बाँटने जाती हूँ, तब भी वे यही कहते हैं कि शाम को आकर मुँह दिखला दिया। कल से हमारे घर मत आया कर।’’ वह सिसकते हुए कह रही थी- जहाँ जाती, वहीं सब मुझसे नफरत करते हैं। पत्रिका बाँटने घरों में न जाऊँ तो उनके पैसे अपने वेतन से भरने पड़ते हैं। अपने खर्च में कटौती करनी पड़ती है। समाज की इस नफरत को लेकर जीने की इच्छा नहीं होती। कभी- कभी सोचती हूँ कि आत्महत्या कर लूँ, पर आप कहते हैं आत्महत्या पाप है। मगर मैं जीऊँ तो कैसे?

🔵 बोलते- बोलते वह फूट- फूट कर रोने लगी। उसके साथ- साथ गुरुदेव भी रोने लगे। मेरे भी आँसू नहीं रुक रहे थे। गुरुदेव ने उससे कहा- चल बेटी मेरे साथ चल। फिर हॉल में सबके बीच आकर वे कहने लगे ‘‘बेटी मैं अपनी बात नहीं कहता, वेद की बात कहता हूँ। तू तो पवित्र गंगा जैसा जीवन जीती है। श्रम करती है, लोक मंगल का कार्य करती है, ब्रह्मचर्य से रहती है। तू साक्षात् गंगा है। जो तेरे दर्शन करेगा- सीधे स्वर्ग को जाएगा और जो यह सब बैठी हैं शृंगार करती हैं, फैशन करती हैं, बच्चे पैदा करती हंै, देश के सामने अनेक प्रकार की समस्याएँ पैदा करती हैं- जो भी इनके दर्शन करेगा, सीधे नरक को जाएगा।’’

🔴 गुरुदेव को इतना क्रोधित होते मैंने कभी नहीं देखा था। वे कह रहे थे ‘‘जो दुखी है उसको और दु:ख देना पाप है। जो यह कहता है कि विधवा को देखने से पाप लगता है वह सबसे बड़ा पापी है। बेटी! तू तो शुद्ध और पवित्र है। उनकी इस बात पर वहाँ बैठी सभी बहिनों ने गर्दन नीची कर ली। थोड़ी देर बाद गुस्सा ठण्डा होने पर उन्होंने उनसे कहा- कहो बेटियों, आपको क्या कहना है? इस पर किसी ने कुछ नहीं कहा। सभी शान्त होकर बैठी रहीं। थोड़ी देर बाद जब उठकर जाने लगीं तो मैंने दरवाजे तक जाकर उनसे कहा- बहनों, गुरुदेव की बातों का बुरा नहीं मानना, वे गुस्से में हैं। लेकिन उनकी बातों पर विचार करना। वे लज्जित होकर बोलीं- भाई साहब, गुरुदेव की बातों का बुरा क्यों मानेंगे। उन्होंने तो सही बात कही है। विधवा तो शुद्ध पवित्र जीवन जीती है। आज उन्होंने हमारी आँखें खोल दीं। आज से हम जब भी किसी विधवा का दर्शन करेंगे, उसमें गंगा माता का दर्शन करेंगे और उसे कोई कष्ट हो, तो उसकी मदद करेंगे। हम दूसरों को भी बताएँगे कि विधवा का दर्शन करने से कोई अपशगुन नहीं होता .



साभार अखंड ज्योति
soni pushpa is offline   Reply With Quote
Old 10-05-2017, 12:41 PM   #2
rajnish manga
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Default Re: जब गुरुदेव भी रो पड़े

बहुत प्रेरक प्रसंग है. वास्तव में, महिलाओं के प्रति दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार करना और विधवाओं के प्रति अवहेलना दिखलाना, उन्हें बदनसीब कहना और उन्हें दुर्भाग्य का प्रतीक समझना इसका एक लंबा इतिहास है. दूसरे धर्मों में भी महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह होंगे परन्तु हिन्दू समाज 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते....' कह कर अपने कर्तव्य की पूर्ति हुई ऐसा मान लेते हैं. हज़ारों साल से बाल विधवाओं तथा अन्य विधवाओं को जो लांछन, प्रताड़ना, अवहेलना और सामाजिक बहिष्कार तक सहना पड़ा है, इस सब के लिए पंडे पुजारियों और समाज के ठेकेदारों द्वारा लगातार परोसी गयी और अब तक जारी दकियानूसी मानसिकता ही ज़िम्मेदार है. इस कुचक्र को तोड़ना और सभी पुराने जालों को काट फेंकना चंद सामाजिक सुधारकों के बस की बात नहीं है. इस मानसिकता को बदलने में बहुत समय लगेगा. लेकिन काम शुरू हुआ है तो परिणाम भी आयेंगे. धन्यवाद, बहन पुष्पा जी.

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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
rajnish manga is offline   Reply With Quote
Old 13-05-2017, 01:39 AM   #3
soni pushpa
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Default Re: जब गुरुदेव भी रो पड़े

[QUOTE=rajnish manga;560779]बहुत प्रेरक प्रसंग है. वास्तव में, महिलाओं के प्रति दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार करना और विधवाओं के प्रति अवहेलना दिखलाना, उन्हें बदनसीब कहना और उन्हें दुर्भाग्य का प्रतीक समझना इसका एक लंबा इतिहास है. दूसरे धर्मों में भी महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह होंगे परन्तु हिन्दू समाज 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते....' कह कर अपने कर्तव्य की पूर्ति हुई ऐसा मान लेते हैं. हज़ारों साल से बाल विधवाओं तथा अन्य विधवाओं को जो लांछन, प्रताड़ना, अवहेलना और [size=3][color=blue]सामाजिक बहिष्कार तक सहना पड़ा है, इस सब के लिए पंडे पुजारियों और समाज के ठेकेदारों द्वारा लगातार परोसी गयी और अब तक जारी दकियानूसी मानसिकता ही ज़िम्मेदार है. इस कुचक्र को तोड़ना और सभी पुराने जालों को काट फेंकना चंद सामाजिक सुधारकों के बस की बात नहीं है. इस मानसिकता को बदलने में बहुत समय लगेगा. लेकिन काम शुरू हुआ है तो परिणाम भी आयेंगे. धन्यवाद, बहन पुष्पा जी.



बहुत बहुत धन्यवाद भाई , जी इस हीन मानसिकता की जड़ें तो बेहद मजबूत है जिसे उखाड फेकना बहुत कठिन है क्यूंकि ये सब पुरातन काल से चला आ रहा है पर यदि अब सब अपने घर से शुरुवात करें तो कुछ हद तक इस कुप्रथा का समाधान संभव है
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