20-10-2015, 09:45 PM | #51 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
मजाज से किसी ने कहा, “हुकूमत अदीबों (साहित्यकारों) के लिए एक अलग कॉलोनी बनवा रही है.” मजाज ने घबरा कर पूछा, “डिस्ट्रिक्ट जेल में या सेंट्रल जेल में?”
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
20-10-2015, 09:48 PM | #52 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
मशहूर उर्दू शायर मज़ाज के जीवन से जुड़े कुछ विनोद प्रसंग
जोश, फिराक़ और मज़ाज तीनों साथ में बैठ कर पीते थे. जोश ने तीसरे पेग के बाद अपने विशेष अफ़गानी अंदाज़ में कहा, “माशाअल्लाह, हम अभी तक जवान हैं. हमारी उम्र पच्चीस टीस के आस पास होगी, क्यों फिराक़?” “बेशक!” फिराक़ ने पुरजोर ताईद करते हुए कहा, “ज़ाहिरी शकल से कता-ए-नज़र, मैं भी अट्ठरह-बीस से ज्यादा उम्र का नहीं हूँ.” “जी हाँ, जी हाँ!” जोश ने फिराक़ के चेहरे को देखते हुए कहा. मज़ाज बड़े गौर से उन दोनों की बातचीत सुन रहे थे. बड़ी मासूमियत से जोश और फिराक़ की ओर मुखातिब हो कर बोले, “और इस हिसाब से तो मैं अभी पैदा ही नहीं हुआ.”
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20-10-2015, 09:49 PM | #53 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
मशहूर उर्दू शायर मज़ाज के जीवन से जुड़े कुछ विनोद प्रसंग
मजाज कॉफ़ी हाउस में अकेले बैठे हुए थे. एक साहब जो मजाज से परिचित नहीं थे उनके साथ वाली कुर्सी पर बैठ गए और कॉफ़ी का आर्डर दे कर अपनी बेसुरी आवाज में गुनगुनाने लगे, “अहमकों की कमीं नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो, हज़ार मिलते हैं.” मजाज उनकी तरफ देखते हुए बोले, “ढूँढने की नौबत ही कहाँ आती है हज़रत. वो तो खुद-ब-खुद चले आते हैं.”
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16-10-2017, 11:42 PM | #54 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
शरद जोशी और कन्हैयालाल नंदन
यह 1975 या 1976 की पहली अप्रेल की शाम की बात है। अवसर था, उज्जैन में आयोजित ‘टेपा सम्मेलन।’ स्वर्गीय कन्हैयालालजी नन्दन प्रमुख पात्र थे। उनका अभिनन्दन पत्र पढ़ने का जिम्मा शरद भाई का था। शाम को टेपा सम्मेलन शुरु हुआ। डॉक्टर शिव शर्मा टेपा सम्मेलन के कर्ता-धर्ता थे। आज भी हैं। मालवी परम्परा और ‘टेपा शैली’ में मंचासीन विभूतियों का स्वागत किया। रंग-बिरंगे अंगरखे, विचित्र आकार-प्रकार की टोपियाँ और उतनी ही विचित्र सामग्री से बनी मालाएँ। समूचा वातावरण इन्द्रधनुषी और तालियों-किलकारियों-ठहाकों से ओतप्रोत। एक के बाद एक विभूतियों का अभिनन्दन शुरुहुआ। और अन्ततः बारी आई नन्दनजी की। अपने लिखे अभिनन्दन-पत्र के पन्ने हाथमें लिए शरद भाई माइक पर आए। समूचा सभागार यह देखने-जानने को उतावला बनाहुआ था कि देखें! शरद भाई दोस्ती और प्रसंग, दोनों का निभाव किस तरह करतेहैं। हाथों में थामे पन्नों को दो-एक बारऊपर-नीचे करते हुए शरद भाई ने पूरे सभागार पर नजरें दौड़ाई। फिर पलट करमंचासीन विभूतियों को देखा। उनकी नजरें, नन्दनजी पर कुछ क्षण टिकी रहीं।फिर माइक की ओर गर्दन घुमाई, गला खँखारा और बोलना शुरु किया। अब मुझे सब कुछ शब्दशः तो याद नहीं किन्तुभूमिका बाँधने के बाद शरद भाई कुछ ऐसा बोले - ‘हमारे यहाँ कई तरह के नन्दनपाए जाते हैं। साहित्य में कन्हैयालाल नन्दन। लोक-जीवन में वैशाख नन्दन।एक और किसम के नन्दन पाए जाते हैं जिसे च में बड़े ऊ की मात्रा, त में छोटीइ की मात्रा और य में आ की मात्रा लगाकर नन्दन कहा जाता है।’ कह कर शरदभाई साँस लेने को रुकते, उससे पहले ही समूचा सभागार तालियों और ठहाकों सेगूँज उठा और देर तक गूँजता रहा। >>>
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16-10-2017, 11:45 PM | #55 |
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Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
शरद जोशी और कन्हैयालाल नंदन
नन्दनजीकी दशा देखते ही बनती थी। वे अपना पेट दबा कर हँसे जा रहे थे। इसी दशा में उठे और शरद भाई को गले लगा लिया। देर तक दोनों इसी दशा में, लिपटे खड़े रहे और लोग तालियाँ बजाते रहे। उनके कौशल और भाषा की शक्ति ने ‘मौका भी है और दस्तूर भी’ मुहावरे को साकार कर दिया। सैंकड़ों स्त्री-पुरुषों केजमावड़े में उन्होंने गाली भी दी और क्षण भर को अशिष्टता नहीं बरती। भाषा तो वही की वही थी। बस! उसे वापरनेवाले की सूझ-समझ, क्षमता और कौशल का ही चमत्कार था कि दोस्ती भी निभ गई और रस्म भी पूरी हो गई। आज जब लोगों को घटिया शब्दावली और अशालीन भाषा प्रयुक्त करते देखता हूँ तो दुखी होते हुए, बरबस ही यह प्रसंग याद आ जाता है। (श्री विष्णु बैरागी के ब्लॉग से साभार)
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