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Old 06-10-2018, 10:26 PM   #11
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Default Re: महाभारत के पात्र: कर्ण

महाभारत के पात्र: कर्ण

अब कौरव-पाँडवों के मध्य युद्ध हो कर रहेगा, यह स्पष्ट हो गया है। ऐसे में युद्ध पूर्व, संध्या काल में माता कुंती मुझ से मिलने आई और मुझे कौंतेय कह कर पुकारा। अपने जिस परिचय को जानने के लिए मैं तरसा, मेरी माँ कुंती ने मुझे महाभारत युद्ध के आरंभ में बताया। बदले में अपने पुत्रों के प्राण रक्षा की कामना की। हाँ, उन्हों मुझे लालच जरूर दिया यदि मैं कौरवों को छोड़ पाँडवों के पास आ जाऊँ। तब राज्य , धन और द्रौपदी सब मेरे हिस्से में होगें। पर क्या वे सब मुझे हृदय से स्वीकार कर सकेंगे? आज अचानक वे सब मुझे बड़ा मान कर सम्मान कर सकेंगे ? इसके आलाव मेरी निष्ठा का भी सवाल है। मैं मित्र दुर्योधन को धोखा नहीं दे सकता।
राज्यसिंहासन और द्रौपदी पाने का लोभ दे कर माता ने क्यों कुंती पुत्र होने का परिचय दिया। अगर शर्तरहित परिचय दिया होता, मैं अविलंब उसके चरणों में झुक जाता। कितनी बार इस माँ ने अपने नज़रों के सामने मुझे दुखित, व्यथित और अपमानित होते देखा। तब क्यों उसका हृदय मेरे लिए क्रंदन नहीं किया? आज मैं कौंतेय नहीं राधेय हूँ।
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Old 06-10-2018, 10:27 PM   #12
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महाभारत के पात्र: कर्ण

आज भी वह मेरी नहीं वरन पांडवों की चिंता कर रही है। बड़ी भोली हैं। मैं पाँडवों का अग्रज हूँ, यह जान कर मैं उनके प्राण कभी नहीं ले सकता हूँ, इतना तक नहीं समझती हैं। अतः मैंने माता को वचन दिया। उसके पाँच पुत्र आवश्य जीवित रहेंगे। माँ ने मेरी दानशीलता का उपयोग पंच पुत्रों के जीवन रक्षा के लिए काम में लाया। जबकि सब जानते हैं, कि कृष्ण के रहते पांचों पांडव का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। मेरे जीवन की रक्षा का विचार किसी के मन में नहीं आया।
महाभारत की पूर्वसंध्या के समय मुझसे दान माँगने आए दीन-हीन भिक्षुक की कामना ने मुझे चकित कर दिया। मेरे शरीर के साथ जड़ित मेरी सुरक्षा कवच, स्वर्ण कवच और कुंडल मांगने वाल यह ब्राह्मण कौन है? यह कवच कुंडल इसके किस काम का है?
वास्तव में, अर्जुन के पिता इंद्र ने मेरे दानवीरता का उपयोग अपने पुत्र के प्राण रक्षा के लिए किया था। मुझे अजेय बनाने वाले कवच-कुंडल, छद्म ब्राह्मण रूप बना मांग लिया। यह था पिता-पुत्र प्रेम। कितना भाग्यशाली है अर्जुन। इंद्रा ने छल किया ताकि उनके पुत्र के प्राणों की रक्षा हो सके। बदले में अपना अमोघ अस्त्र शक्तिएक बार प्रयोग करने की अनुमति दी। मेरे पिता आसमान में सात घोड़ों के रथ पर सवार रहे। सब पर अपना प्रकाश समान रूप से डालते रहे। पर मेरे ऊपर उनकी नज़र नहीं पड़ी।
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Old 06-10-2018, 10:29 PM   #13
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महाभारत के पात्र: कर्ण

मेरे माता हीं नहीं मेरे पितामह भीष्म भी मुझे समझ नहीं पाये। महाभारत युद्ध पूर्ण गति से आरंभ हो चुका था। सेनापति, पितामह भीष्म ने मुझे युद्ध में भाग नहीं लेने दिया। उन्हे भय था, मैं अचानक पाँडवों का साथ देने लगूँगा, कौरवों को धोखा दे दूंगा। दसवें दिन उनके शर शैया पर जाने के बाद ग्यारहवें दिवस से मुझे कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में जाने की आज्ञा मिली।
चौदहवें दिन युद्ध में ना चाहते हुए भारी हृदय से भीम पुत्र घटोत्कच का मुझे संहार करना पड़ा। युद्ध विभीषिका के मध्य, सत्रहवें दिन मेरे सामने रथ पर मेरा अनुज अर्जुन था। पांडवों को मेरा परिचय ज्ञात नहीं था। पर मैं तो सब जानता था। छोटे भाई को मैं शत्रु रूप नहीं देख रहा था। आज अपना परिचय जानना मेरे लिए ज्यादा पीड़ादायक हो गया है। मेरी आँखों में अनुज के लिए छलक़ते प्रेम को कोई नहीं पढ़ सका। कृष्ण, अर्जुन को गीता का पाठ पढ़ाते रहे।
मैं अपने दैवीय और अमोघ अस्त्र-शस्त्र से ऐसे प्रहार करता रहा कि देखनेवाले तो इसे युद्ध माने पर मेरे अनुज अर्जुन का अहित ना हो। मुझे ज्ञात था कि यह निर्णायक युद्ध का अंत मेरी मृत्यु से होगा। जिसकी माँ ही उसके मृत्यु की कामना करती हो और पिता नेत्र फेर ले। उसे वैसे भी जीवित रहने का क्या लाभ है? माँ ने मेरी सच्चाई पांडवों को भी बताई होती, तब बात अलग होती। मैं अपने मृत्यु के इंतज़ार में युद्ध का खेल खेलता रहा और अपने अंत का इंतज़ार करता रहा।
मैं छोटेभ्राता के युद्ध कौशल से अभिभूत उसकी प्रशंसा कर उठा। तभी मेरे रथ का चक्रमिट्टी में धंस गया। मैं रथ से नीचे उतार गया। सारे अस्त्र-शस्त्र रखमृतिका में फंसे रथ के चक्के को पूर्ण शक्ति के साथ निकालने लगा।
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Old 06-10-2018, 10:29 PM   #14
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महाभारत के पात्र: कर्ण

मुझे पूर्ण विश्वास था कि अर्जुन निहत्थे शत्रु पर वार नहीं करेगा। पर हुआ ठीक विपरीत। मैं हतप्रभ रह गया। नटवर, रणछोड़, कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने मुझ निहत्थे पर वार कर दिया। अस्त्र-शस्त्र विहीन अग्रज के साथ अर्जुन ने भी छल कर दिया। शायद अच्छा हुआ। वरना ना जाने कब तक, मुझे छद्म युद्ध जारी रखना पड़ता। आघात ने मेरे असहाय शरीर को भूमि पर धाराशायी कर दिया। अर्धखुले, अश्रुपूर्ण नयनों से मैंने अनुज भ्राता को प्रेमपूर्ण नयनों से देखा। नेत्रों में भरे आए अश्रुबिंदु से अनुज की छाया धुँधली होने लगी।मेरे नेत्र धीरे-धीरे बंद होने लगे। पर, मेरे नील पड़ते अधरों पर तृप्तीपूर्ण विजया मुस्कान क्रीडा कर रही है।
आज युद्ध क्षेत्र में एक अद्भुत दृश्य ने मुझे चकित कर दिया है। मुझे संपूर्ण जीवन अभिशप्त और परिचय विहीन कह कर अपमानित करने वाले पांचों पांडव मेरे लिए रुदन कर रहें है। मेरी माता श्री मेरे अवश और निर्जीव शरीर पर मस्तक टिकाये विलाप कर रही है।
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Old 06-10-2018, 10:31 PM   #15
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महाभारत के पात्र: कर्ण

माता कुंती से पांडव दुखित हैं। मेरा परिचय गुप्त रखने के लिए क्रोधित हो रहें है। धर्मराज युधिष्ठिर करुण नेत्रों से माता कुंती को देखते रह गए। जैसे उनके व्यथित नयन कह रहे हों -माता तो कुमाता नहीं होती कभी । और फिर वे कह उठे, “माता, आज तुम्हारी इस भूल का मूल्य सम्पूर्ण स्त्री जाति को चुकाना पड़ेगा। मैं तुम्हें और समस्त नारी जाति को शापित करता हूँ, कि उनमें कभी भी किसी बात को गुप्त रखने की क्षमता न रहे।

जीवित कर्ण को वितृष्णा की दृष्टि से देखनेवाले पांडव उस के शव को पाने और अंतिम संस्कार करने के लिए व्याकुल दिख रहे है। आज कौरव और पांडव मेरे निर्जीव काया को पाने के लिए आपस में झगड़ रहें हैं। कौन मेरा अंतिम संस्कार करेगा? कैसी विडम्बना है। काश, इस प्रेम का थोड़ा अंश भी जीवन काल में मुझे प्राप्त होता तो मेरी तप्त आत्मा शीतल हो जाती। पर सच कहूँ? हार कर भी मैं जीत गया हूँ।

मेरे साथ यह सब क्या और क्यों हो रहा है? बाद में मुझे मालूम हुआ, मेरी माता कुंती को दुर्वासा ऋषि ने मात्र किसी देव को स्मरण कर संतान प्राप्ति का वरदान दिया था। तत्काल वरदान की सच्चाई जानने के प्रयास में वे सूर्य देव से मुझे मांग बैठीं। मैं, रवितनय कर्ण तुरंत उनकी गोद में आ गया। पर माता कुंती में कुमारी माता हो, संतान को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं थी। फलतः माँ ने मुझे असहाय, गंगा की धार के हवाले कर दिया।
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Old 07-10-2018, 08:23 PM   #16
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महाभारत के पात्र: कर्ण

माता कुंती से पांडव दुखित हैं। मेरा परिचय गुप्त रखने के लिए क्रोधित हो रहें है। धर्मराज युधिष्ठिर करुण नेत्रों से माता कुंती को देखते रह गए। जैसे उनके व्यथित नयन कह रहे हों -माता तो कुमाता नहीं होती कभी । और फिर वे कह उठे, “माता, आज तुम्हारी इस भूल का मूल्य सम्पूर्ण स्त्री जाति को चुकाना पड़ेगा। मैं तुम्हें और समस्त नारी जाति को शापित करता हूँ, कि उनमें कभी भी किसी बात को गुप्त रखने की क्षमता न रहे।
जीवित कर्ण को वितृष्णा की दृष्टि से देखनेवाले पांडव उस के शव को पाने और अंतिम संस्कार करने के लिए व्याकुल दिख रहे है। आज कौरव और पांडव मेरे निर्जीव काया को पाने के लिए आपस में झगड़ रहें हैं। कौन मेरा अंतिम संस्कार करेगा? कैसी विडम्बना है। काश, इस प्रेम का थोड़ा अंश भी जीवन काल में मुझे प्राप्त होता तो मेरी तप्त आत्मा शीतल हो जाती। पर सच कहूँ? हार कर भी मैं जीत गया हूँ।
मेरे साथ यह सब क्या और क्यों हो रहा है? बाद में मुझे मालूम हुआ, मेरी माता कुंती को दुर्वासा ऋषि ने मात्र किसी देव को स्मरण कर संतान प्राप्ति का वरदान दिया था। तत्काल वरदान की सच्चाई जानने के प्रयास में वे सूर्य देव से मुझे मांग बैठीं। मैं, रवितनय कर्ण तुरंत उनकी गोद में आ गया। पर माता कुंती में कुमारी माता हो, संतान को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं थी। फलतः माँ ने मुझे असहाय, गंगा की धार के हवाले कर दिया।
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Old 07-10-2018, 08:26 PM   #17
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महाभारत के पात्र: कर्ण

मैं अकेला सुंदर मखमल युक्त पेटी में गंगा की कलकल- छलछल करती पवित्र धार में बहता जा रहा हूँ। जब मैंने आँखों को खोलने का प्रयास किया तब तेज़-तप्त पिता सूर्य की किरणें नेत्रों में चुभने लगीं और मैं क्रंदन कर उठा। गगन में शान से दमकते हुए मेरे पिता ने सब देखते हुए भी अनदेखा कर दिया।

पर निसंतान सूत अधिरथ ऐसा नहीं कर सके। उन्होने मुझे गंगा की धार में असहाय क्रंदन करते सुना। तत्काल मुझे निकाल अपने साथ अपनी पत्नी के पास ले गया। एक माँ ने अश्रुपूर्ण नयन से अर्क पुत्र को विदा कर दिया था। दूसरी, राधा माता ने परिचय जाने बगैर , खुशी से चमकते नेत्रों से और खुली बाहों से मुझे स्वीकार किया। उन्होने मेरा नाम रखा वसूसेना । मेरे वास्तविक माता पिता कौन कहलाएंगे? राधा और धृतराष्ट्र के रथ को चलानेवाले अधिरथ ही न?

जन्म से मेरे बदनटंकित स्वर्ण कवच कुंडल और मेरे मुख पर पिता सूर्य का तेज़ देख मोहित हो गए राधा और अधिरथ । निस्वार्थतापूर्वक, अपूर्व प्रेम के साथ पालक माता-पिता ने मेरा पालन- पोषण किया। काश मैं उनका वास्तविक पुत्र होता। आज भी जब कोई मुझे राधेय पुकारता है तब सबसे अधिक खुशी होती है। आजतक, मृत्युपर्यन्त, उन्हें ही मैं अपना माता-पिता मान पुत्र धर्मों का निर्वाह करता आया हूँ।

मेरे बचपन में मेरे बाल्य सखा मुझे परिचय रहित मान चिढ़ाते। पास-पड़ोस के लोग अक्सर मुझे देख उच्च स्वर में कानाफूसी करते, मुझे सुनाते और जलाते थे। मेरे दुखित हृदय कभी किसी ने शीतल स्नेह से नहीं सहलाया।
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Old 07-10-2018, 08:27 PM   #18
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महाभारत के पात्र: कर्ण

मेरे बालपन में एक बार महारानी कुंती हमारे घर आई। मेरी माँ को अपनी सखी बताती थी। विशेष रूप से मुझे से मिलीं। मुझे गोद में बैठा कर प्यार किया। पर उनकी नयन अश्रुपूर्ण क्यों हैं? मेरा बाल मन समझ नहीं पाया। वे मेरे लिए वस्त्र और उपहार क्यों लाईं थीं? मैंने द्वार के ओट से छुप कर सुना। वे मेरी भोली राधा माता से कह रहीं थी –“ राधा, तेरा यह पोसपुत्र आवश्य किसी उच्च गृह का परित्यक्त संतान है। प्रेम से इसका पालन पोषण करना। सब ने उनके महानता और सरलता की प्रशंसा की। राज परिवार की पुत्रवधू निष्कपट भाव से सूत पत्नी से मित्रता निभा रहीं हैं। एक अनाथ, अनाम बालक पर स्नेह वर्षा कर रहीं थीं। तब किसी के समझ में नहीं आया कि परित्यक्त पुत्र के मोह और मन के अपराध बोध ने उन्हें यहाँ आने के लिए बाध्य किया था।

बचपन से पांडव मुझे निकृष्ट सूत पुत्र मान कर अपमानित करते आए हैं। भीम हर वक्त मेरे उपहास करता रहा है। अर्जुन मेरी श्रेष्ठता को जान कर भी अस्वीकार करता रहा है। आश्रम के गुरुजन भी राजपुत्रों के सामने मुझे सूत पुत्र कह अपमानित करते हैं। पूरे संसार में धर्म की रक्षा करने के लिए जाना जाने वाला युधिष्ठिर यह सब अन्याय देख कर हमेशा मौन रहे।
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महाभारत के पात्र: कर्ण

मैं सूत अधिरथ का पुत्र हूँ। पर रथ चलाने के बदले मेरी कामना होती अस्त्र-शस्त्र चलाने की। द्रोणाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से इन्कार कर दिया। क्योंकि गुरु द्रोण मात्र राजपुत्रों और क्षत्रियों को शिक्षा देते हैं। मैं दूर से, वृक्षों के झुरमुट से सौभाग्यशाली राजपुत्रों को देख उनके भाग्य से ईष्या करता और अकेले में स्वयं अभ्याश करता।

तब सोचा करता, सूत पुत्र के अस्त्र-शस्त्र प्रशिक्षण की कामना भूल क्यों है? द्रोणाचार्य के इन्कार के उपरान्त मैंने ने गुरु परशुराम के चरणों में आश्रय ढूँढ लिया। गुरु परशुराम मात्र ब्रहमनों को शिक्षा देते थे। मैंने अपना परिचय छुपा ज्ञान अर्जित किया। अपने को सर्वोतम धनुर्धर बनाने के लिए रात-दिन मेहनत की और अपने उदेश्य में सफल हुआ।

एक दिन थके क्लांत गुरु जी को मैंने अपनी जंघा पर निंद्रा और विश्राम करने कहा। गुरु जी गहरी नींद में सो गए। तब, अचानक एक कीट मेरे जंघा में काटने लगा। पीड़ा से मैं छटपटा उठा। बड़ा दुष्ट कीट था। लगा जैसे मेरे जाँघों के अंदर छेद बना कर अंदर घुसता हीं जा रहा है। बड़ी तेज़ पीड़ा होने लगी। कष्ट और अपने बहते रक्त की परवाह ना करते हुई मैं निश्चल बैठा रहा, ताकि गुरु की निंद्रा में व्यवधान ना पड़े। जैसे पूरे जीवन मेरे अपनों ने ही मुझे अपना नहीं माना, वैसे हीं उस दिन मेरे ही रक्त ने मुझे से दुश्मनी की।
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महाभारत के पात्र: कर्ण

जंघा से बहते, तप्त रक्त के स्पर्श से गुरु जी जाग गए। उन्हें मालूम था कि किसी ब्राह्मण में इतनी सहनशीलता नहीं होती। बिना मेरी बात सुने मुझे श्राप दे डाला। फलतः मैं उनसे शापित हुआ। उन्हों ने गुस्से से कहा, उनसे प्राप्त सारी शिक्षा और ब्रह्मास्त्र प्रयोग मैं तभी भूल जाऊंगा, जब मुझे उनकी सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी। तब तक मुझे भी नहीं पता था कि वास्तव में मैं कौन हूँ? मुझे अधिरथ और उनकी पत्नी राधा का पुत्र वासुसेना या राधेय जान कर गुरु परशुराम का क्रोध ठंढा हुआ और तब उन्हों ने मुझे अपना धनुष विजयदिया। साथ में दिया मेरे नाम को अमर होने का आशीर्वाद। पर श्राप तो अपनी जगह था । क्यों गुरु जी ने उनके प्रति मेरी श्रद्धा, सहनशीलता और निष्ठा नहीं देखी?

गुरु द्रोणाचार्य ने हस्तिनापुर में रंगभूमि आयोजित किया । द्रोणाचार्य नें अपनी शिक्षा और शिष्यों की योग्यता प्रदर्शन करने के लिए रंगभूमी प्रतियोगिता आयोजित किया। वहाँ अनेक राजे-महाराजे, सम्पूर्ण राज परिवार आमंत्रित थे। सभी गणमान्य अतिथि और समस्त राज परिवार सामने ऊँचे मंच पर आसीन थे। मैं भी उत्सुकतावश आयोजन में जा पहुंचा। सभी शिष्यगण अपनी योग्यता प्रदर्शन कर रहे थे। सबसे योग्य अर्जुन अपनी धनुर्विध्या से सबको मोहित कर रहा था। गुरुवर ने अर्जुन को सर्वोत्तम धनुर्धर बताया।
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