25-08-2020, 11:35 AM | #1 |
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इंसान रो रहा (छंदमुक्त कविता)
■■■■■■■■■■■■■■■■ गांधी तेरे देश में बहुत जुल्म हो रहा शैतान हंस रहे हैं इंसान रो रहा सिपाही ताव खा रहे नेता भाव खा रहे मुखिया लोग बैठे-बैठे गांव खा रहे अधिकारी फर्ज भूलकर छांव खा रहे लालच है जाग रही कर्तव्य सो रहा शैतान हंस रहे हैं इंसान रो रहा कानून का मजाक खूब चल रहा न्याय चाहने वाला हाथ मल रहा शरीफ जेल में हरीफ रेल में और इस खेल में गरीब जल रहा लाचारों की चीत्कार से चैन खो रहा शैतान हंस रहे हैं इंसान रो रहा दर्द है घुटन है फरेब और नफरत हर तरफ आजकल है फैली हुई दहशत देखो जिस ओर बस कालिमा नज़र आये है चारों ओर अंधेरा आदमी किधर जाये आँखों से निकला खून चेहरे को धो रहा शैतान हंस रहे हैं इंसान रो रहा रचना- आकाश महेशपुरी कुशीनगर, उत्तर प्रदेश मो- 9919080399 ■■■■■■■■■■■ * यह रचना मेरे प्रथम काव्य संग्रह "सब रोटी का खेल" से ली गयी है। यह पुस्तक मेरे द्वारा शुरुवाती दिनों में लिखी गयी रचनाओं का हूबहू संकलन है। Last edited by आकाश महेशपुरी; 25-08-2020 at 11:40 AM. |
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