03-04-2011, 12:39 PM | #11 |
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Re: हिँदी के उद्गार
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
07-04-2011, 07:52 AM | #12 |
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Re: हिँदी के उद्गार
जी हाँ , आज के सन्दर्भ मेँ ख़बरिया चैनल की भी भूमिका प्रशंसनीय है । परन्तु यदि आप साठ और सत्तर के दशक मेँ झाँकेँगे तो आपको देशव्यापी होने के लिये व्यग्र हिँदी मिलेगी जिसने उस दौर के हिँदी सिनेमा के कँधे पर बैठ पूरे राष्ट्र का भ्रमण किया एवं अपने को राष्ट्रभाषा के रूप मेँ स्थापित करने की पुरजोर व असरकारक मुहिम मेँ प्रतिभाग किया ।
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08-04-2011, 08:24 AM | #13 |
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Re: हिँदी के उद्गार
नामचीन पत्रकार , स्तम्भकार खुशवंत सिँह जो हमारे देश के एक सशक्त हस्ताक्षर माने जाते हैँ , हालाँकि व्यक्तिगत रूप से मैँ उन्हेँ नापसंद करता हूँ , का यह सर्वविदित कथन कि भाषा की शुद्धता के समर्थक वस्तुतः उसके दुश्मन होते हैँ । उनका यह कथन भाषा के उदार , ग्राही होने के सन्दर्भ मेँ है और हिँदी पर इसका ठीकरा फोड़ते हुये उन्होँने इसी के बिना पर अंग्रेजी के लोकप्रिय होने की घोषणा कर डाली । हिँदी इतनी ग्राही रही है कि उसने अनेक भाषाओँ के शब्दोँ को आत्मसात कर लोकभाषा का दर्ज़ा पाया । हाँ कभी कभी अनावश्यक , अनापेक्षित रूप से जानबूझकर क्लिष्ट ( कठिन ) शब्दोँ के प्रयोग से हम सहज आकर्षण के केन्द्रबिन्दु तो हो सकते हैँ मगर भाषा का मखौल उड़ाकर । क्या विद्वता का परिचायक केवल क्लिष्ट शब्द ही हैँ ? नहीँ । बिना भावोँ के , बिना विचारोँ के भाषा मृतप्राय है । तो अगर हमेँ हमेँ अपनी भाषा को हास्यास्पद होने से बचाना है तो रेलगाड़ी कहने से कोई गुरेज़ नहीँ करना चाहिये न कि उसे लौहपथगामिनी बोलकर मिथ्या और खोखले अभिमान को बढ़ावा देँ ।
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14-04-2011, 01:04 PM | #14 | |
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Re: हिँदी के उद्गार
Quote:
हृषी दा की धर्मेन्द्र और अमिताभ अभिनीत क्लासिक "चुपके चुपके" को कौन भूला सकता है फिल्म का विषय यही था जिसमें शुद्ध हिंदी का मजाक बनाया गया था
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14-04-2011, 06:10 PM | #15 |
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Re: हिँदी के उद्गार
सही कह रहे हैँ निशांत भाई ।
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