03-02-2013, 10:44 PM | #91 |
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Re: गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शुरू शुरू में शायरी के दौरान या कॉलेज के ज़माने में हमें कोई ख़याल ही न गुज़रा कि हम कभी शायर बनेंगे. सियासत (राजनीति) वगैरह तो उस वक़्त ज़ेहन में बिल्कुल न थी. अगर्चे जिस वक़्त की तहरीकों (आन्दोलनों) मसलन कांग्रेस तहरीक, खिलाफत तहरीक या भगत सिंह की दहशतपसंद (क्रांतिकारी) तहरीक के असर तो ज़ेहन में थे, मगर हम खुद इनमे से किसी किस्से में शरीक नहीं थे. शुरू में ख़याल हुआ कि हम कोई क्रिकेटर बन जायें क्योंकि लड़कपन से क्रिकेट का शौक था और बहुत खेल चुके थे. फिर जी चाहा, उस्ताद बनना चाहिए. रिसर्च करने का शौक था. इनमे से कोई भी बात न बनी. हम न क्रिकेटर बने, न आलोचक, न ही रिसर्च किया. अलबत्ता प्राध्यापक बन कर अमृतसर चले आये. |
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