05-01-2014, 09:45 PM | #91 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
न्युवा द्वारा मानव के सृजन की कहानी चीनी पौराणिक कथा के अनुसार मानव का जन्म न्युवा नाम की देवी ने किया था । देवी न्युवी का शरीर मानव का होता था और पिछला भाग ड्रैगन का जैसा । कहा जाता था कि महा वीर फान्गु द्वारा आसमान और जमीन को अलग कर दिया जाने के बाद देवी न्युवा इस में घूमती विचरती रही । यो जमीन पर पहाड़ों और नदियों का विकास हुआ, मैदानों और वादियों में पेड़ पौधों की उगाई हुईऔर पशुपक्षियों व कीट मछलियों का जन्म हुआ, पर पृथ्वी पर मानव का नामोनिशान नहीं था, इसलिए हर जगह निर्जनता व्याप्त हो रही थी। एक दिन न्युवा निर्जन जमीन पर चल रही थी, लेकिन उस का मन बड़ा उदास और अकेलेपन से भरा हुआ था, उसे लगा कि उसे आसमान और जमीन को कुछ और सजीव बनाना चाहिए । न्युवा विशाल जमीन पर विचरती जा रही थी, उसे पेड़ पौधों, फुल पुष्पों से असीम प्यार था, किन्तु उसे जो ज्यादा स्नेह मिलता था, वहजीवन से परिपूर्ण जीवजंतुओं से आया था । इन सजीव वस्तुयों को निहारते हुए न्युवा को ऐसा निचार आया कि फान्गु का यह सृजन संपूर्ण नहीं है, क्योंकि पशुपक्षियों तथा कीट मछलियों की बुद्धि काफी मंद लगती है, उसे ऐसे जीवन से ज्यादा श्रेष्ठ जीव बनाना चाहिए। न्युवा पीली नदी के किनारे घूमती जा रही थी, नदी के स्वच्छ पानी में उस की सुन्दर परछाई पड़ी दिखती थी, न्युवा अपनी सुन्दर परछाई पर बड़ी खुश हो उठी । उस ने नदी तल की मिट्टी से अपनी आकृति जैसी मानव की मूर्ति बनाने की कोशिश की, न्युवा होशियार और कार्यकुशल थी, कुछ ही मिनट में उस ने अनेक मिट्टी के मानव बनाये। ये मानव सूरत शक्ल में उसी की भांति लगते थे, फिर उस ने मानव के शरीर के साथ अपने जैसेपूच्छ के बजाए दो दो पैर और हाथ जोड़ दिये ।
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05-01-2014, 09:47 PM | #92 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
अंत में न्युवा ने इन छोटी मानव मूर्तियों में प्राण फूंक दिया , देखते ही देखतेछोटी-छोटी मानव मुर्तियों में जीवन का संचार हुआ, वे सचमुच जीवित हो उठे, जो पैरों पर खड़े हो कर चलने पर आ गए, उन के हाथ बहुत चतुर और कार्यकुशल हो गए और मुहं से बोलना गाना संभव हुआ । न्युवा ने उन्हें मानव का नाम दिया । न्युवा ने कुछ मानवों के शरीर में यांगछी यानी पुरुष प्राण फूंक दिया, जिस से वे पुरूष के रूप में विकसित हो गए, कुछ अन्य मानवों में येनछी यानी स्त्री प्राण फूंक डाला, जिस से वे नारी के रूप में दुनिया में पैदा हुई । ये पुरूष स्त्री न्युवा की चारों ओर घूमते उछलते थे, हर्षोल्लास करते थे, जिस से संसार में जीवन की लहर दौड़ने लगी ।
न्युवा चाहती थी कि उस के निर्मित ये मानव अनन्त भूमि पर फैल जायें, लेकिन वह काफी थकी हुई और उस के हाथ की गति भी धीमी आई । उसे एक तरीका सूझा, तो उस ने घास की एक रस्सी को नदी के तल में डाल कर तेजी से घूमाया, इस से रस्सी के निचले भाग में मिट्टी की एक मोटी परत चिपकी, न्युवा ने फिर जोर से रस्सी को अपार जमीन की ओर फिराया, उस पर लगी मिट्टी बूंद बूंद के रूप में जगह जगह गिर पड़ी, जहां मिट्टी की बूंद गिर पड़ी, वहां वे मानव के रूप में परिवर्तित हो गए और इसी तरह न्युवा के निर्मित मानव दुनिया की जगह जगह फैल गए । जमीन पर मानव पैदा हुए, न्युवा का काम भी समाप्त हुआ जान पड़ता था । किन्तु उस के मन में विचार आया कि ये मानव किस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी वंश जारी रखते है, मानव का जन्म हुआ, तो अवश्य उस की मृत्यु भी होती है, यदि बार-बार नये मानव बनाये जायेंगे तो काम बहुत भारी और परेशानी देने वाला होगा । यह सोच कर न्युवा नेपुरूष और स्त्री को जोड़ा जोड़ा बना कर उन्हें स्वयं संतान को जन्म देने की शक्ति सौंप दी । इस के उपरांत मानव स्वयं अपना वंश जारी करने के योग्य हुए और उन की संख्या में भी निरंतर वृद्धि होती चली गई । **
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05-01-2014, 10:06 PM | #93 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
भारतीय पौराणिक आख्यान
परशुराम का जन्म प्राचीन काल में कन्नौज में गाधि नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात् वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करना और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्ति से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यवती ने भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम।
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05-01-2014, 10:13 PM | #94 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
परशुराम का प्रतिशोध
कथानक है कि हैहय वंशाधिपति कार्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएँ तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुँचा और देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया। कुपित परशुराम ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस काण्ड से कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश किया। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका। इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं,उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे। **
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07-01-2014, 04:54 PM | #95 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
सुंदर आख्यान.........
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*** Dr.Shri Vijay Ji *** ऑनलाईन या ऑफलाइन हिंदी में लिखने के लिए क्लिक करे: .........: सूत्र पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दे :......... Disclaimer:All these my post have been collected from the internet and none is my own property. By chance,any of this is copyright, please feel free to contact me for its removal from the thread. |
07-01-2014, 05:19 PM | #96 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
उपरोक्त पौराणिक आख्यान आपको पसंद आये, यह जान कर प्रसन्नता हुयी. आपकी टिप्पणियाँ प्रोत्साहित करने वाली हैं, जिनके लिये मैं आपको धन्यवाद देता हूँ.
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11-01-2014, 01:07 PM | #97 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
महाभारत प्रसंग:
यक्ष-युधिष्ठिर संवाद (1) पांडवोँ ने काम्यवन में बहुत दिनों तक वास किया था। यहाँ निवास करते समय एक दिन महारानी द्रोपदी तथा पाण्डवों को प्यास लगी। गर्मी के दिन थे, आस पास के सरोवर और जल–स्त्रोत सूख गये थे। दूर दूर तक कहीं भी जल उपलब्ध नहीं था। महाराज युधिष्ठर ने अपने परम पराक्रमी भ्राता भीमसेन को एक पात्र देकर निर्मल जल लाने के लिए भेजा। बुद्धिमान भीम पक्षियों के गमनागमन को लक्ष्य कर कुछ आगे बढ़े। कुछ दूर अग्रसर होने पर उन्होंने निर्मल और सुगन्धित जल से भरे हुए एक सुन्दर सरोवर को देखा। वे बड़े प्यासे थे। उन्होंने सोचा पहले स्वयं जलपान कर पीछे भाईयों के लिए जल भर कर ले जाऊँगा। ऐसा सोचकर ज्यों ही वे सरोवर में उतरे, त्यों ही एक यक्ष उनके सामने प्रकट हुआ और बोला– पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो तत्पश्चात जल पीने की धृष्टता करना, अन्यथा मारे जाओगे। महापराक्रमी भीमसेन ने यक्ष के आदेश की उपेक्षा कर जलपान करने के लिए ज्यों ही अञ्जलि में जल उठाया, तत्क्षणात वे वहीं पर मूर्छित होकर गिर पड़े। इधर भाईयों के साथ महाराज युधिष्ठर ने भीमसेन के आने में विलम्ब देखकर क्रमश: अर्जुन, नकुल और सहदेव को पानी लाने के लिए आदेश दिया किन्तु, उस सरोवर पर पहुँचकर सबकी वही गति हुई, जो भीम की हुई थी क्योंकि उन्होंने भी यक्ष के आदेश की परवाह किये बिना जलपान करना चाहा था। अन्त में महाराज युधिष्ठिर भी वहीं पहुँचे। वहाँ पहुँचकर अपने भाईयों को मूर्छित पड़े हुए देखा। वे बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने सोचा पहले जलपान कर लूँ और फिर भाईयों को सचेत करने की चेष्टा करूँगा। ऐसा सोचकर वे ज्यों ही पानी पीने के लिए सरोवर में उतरे, त्यों ही उस यक्ष ने पहले की भाँति प्रकट होकर उसके प्रश्नों का सदुत्तर देकर जलपान करने के लिए कहा। महाराज युधिष्ठिर ने धैर्य धारण कर यक्ष से प्रश्न करने का अनुरोध किया।
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11-01-2014, 01:09 PM | #98 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
यक्ष ने पूछा–सूर्य को कौन उदित करता है ?
युधिष्ठिर–ब्रह्म सूर्य को उदित करता है। यक्ष–पृथ्वी से भारी क्या है ? आकाश से भी ऊँचा क्या है ? वायु से भी तेज़ चलने वाला क्या है ? और तिनकों से भी अधिक संख्या में क्या है ? युधिष्ठिर–माता भूमि से भी भारी है। पिता आकाश से भी ऊँचा है। मन वायु से भी तेज़ चलने वाला है। चिन्ता तिनकों से भी अधिक संख्या में हैं। यक्ष– लोक में सर्वश्रेष्ठ धर्म क्या है ? उत्तम क्षमा क्या है ? युधिष्ठिर– लोक में श्रेष्ठ धर्म दया है। सुख–दु:ख, लाभ–हानि, जीवन–मरण आदि द्वन्द्वों को सहना ही क्षमा है। यक्ष– मनुष्यों का दुर्जेय शत्रु कौन है ? अनन्त व्याधि क्या है ? साधु कौन है ? असाधु कौन है? युधिष्ठिर– मनुष्यों का क्रोध ही दुर्जेय शत्रु है। लोभ अनन्त व्याधि, समस्त प्राणियों का हित करने वाला साधु हैं। अजितेन्द्रिय निर्दय पुरुष ही असाधु है। यक्ष–सुखी कौन है ? सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? मार्ग क्या है ? वार्ता क्या है ? युधिष्ठिर– जिस पर कोई ऋण न हो और जो परदेश में नहीं है, किसी प्रकार साग–पात पकाकर खा ले, वही सुखी है। रोज–रोज प्राणी यमराज के घर जा रहे हैं , किन्तु जो बचे हुए हैं, वे सर्वदा जीवित रहने की इच्छा करते हैं। इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य हो सकता है। तर्क की स्थिति नहीं है। श्रुतियाँ भी भिन्न–भिन्न हैं। कोई एक ऐसा ऋषि नहीं, जिसका मत भिन्न न हो, अत: धर्म का तत्त्व अत्यन्त गूढ़ है। इसलिए महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं, वही मार्ग है। इस माया–मोह रूपी कड़ाह में काल समस्त प्राणियों को माह और ऋतु रूप कलछी से उलट–पलट कर सूर्यरूप अग्नि और दिन–रात रूप ईँधन के द्वारा पका रहे हैं, यही वार्ता है।
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11-01-2014, 01:10 PM | #99 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
यक्ष– राजन ! तुमने हमारे प्रश्नों का ठीक–ठीक उत्तर दिया है। इसलिए अपने भाईयों में से किसी एक को तुम कहो वही जीवित हो सकता है।
युधिष्ठिर–हमारे इन भाईयों में से महाबाहु श्यामवर्ण वाले नकुल जीवित हो जाएँ। यक्ष– राजन् ! जिसमें दस हज़ार हाथियों के समान बल है, उस भीम को तथा अद्वितीय धनुर्धर अर्जुन को भी छोड़कर तुम्हें नकुल को जीवित कराने की इच्छा क्यों है ? युधिष्ठिर– मैं धर्म का त्याग नहीं कर सकता। मेरा ऐसा विचार है कि सबके प्रति समान भाव रखना ही परम धर्म है। मेरे पिता की कुन्ती और माद्री दो पत्नियाँ थीं। वे दोनों ही पुत्रवती बनी रहें–ऐसा मेरा विचार है। मेरे लिए जैसी कुन्ती हैं, वैसी माद्री भी हैं। दोनों के प्रति समान भाव रखना चाहता हूँ, इसलिए नकुल ही जीवित हो उठें। यक्ष– भक्त श्रेष्ठ ! तुमने अर्थ और काल से भी धर्म का विशेष आदर किया। इसलिए तुम्हारे सभी भाई जीवित हो उठें। यह यक्ष और कोई नहीं स्वयं धर्मराज (श्रीनारायण) थे । वे अपने पुत्र युधिष्ठिर के धर्म की परीक्षा लेना चाहते थे, जिसमें महाराज युधिष्ठिर उत्तीर्ण हुए।
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11-01-2014, 01:12 PM | #100 |
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Re: पौराणिक कथायें एवम् मिथक
यक्ष-युधिष्ठिर संवाद (2)
.... जब भीम भी लौट कर नहीं आया तो युधिष्ठिर अत्यंत व्याकुल हो उठे. वे स्वयं अपने भाइयों की खोज में निकले/ चलते चलते वे उसी जलाशय पर पहुंचे और वहां अपने चरों भाइयों को मृत पड़ा देखा तो उनका हृदय विदीर्ण हो गया. युधिष्ठिर बड़े कातर स्वर में विलाप करने लगे. उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी, “हे युधिष्ठिर! तुम्हारे भाइयों को बारी बारी से मैंने कहा था कि मेरे प्रश्नों का उत्तर दो और तब पानी पीओ, नहीं तो तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी. लेकिन तुम्हारे भाइयों ने मेरे वचनों की अवज्ञा की. इसलिए मेरे शाप से उनकी मृत्यु हुई है. अब मैं तुम्हें भी यही कहता हूँ कि यदि तुम पानी पीना चाहते हो पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, नहीं तो तुम्हारी भी वही गति होने वाली है, जो तुम अपने भाइयों की देख रहे हो.” इस पर युधिष्ठिर ने कहा, “पहले मैं प्रश्नकर्ता को देखना चाहता हूँ, उसके बाद मैं प्रश्नों का यथामति उत्तर दूंगा.” स्वयं धर्मराज, जो युधिष्ठिर के बल, बुद्धि और धर्म-भावना की थाह लेने के लिये पहले मृग बने थे, अब विशालकाय यक्ष के रूप में प्रगट हुये. नमस्कार के बाद युधिष्ठिर ने उनसे कहा, “अब आप अपने प्रश्न पूछें.” यक्ष ने कई प्रश्न पूछे और युधिष्ठिर ने सब का यथोचित उत्तर दिया. उसी प्रश्नोत्तरी में से कुछ अंश नीचे दिया जाता है:
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