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Old 10-01-2011, 01:24 PM   #91
ABHAY
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उस रात को हरिध्वनि के तुमुल नाद से प्रदेश भूमि परिपूर्ण हो गई। संतानों के दल-के-दल उस रात यत्र-तत्र वंदेमातरम और जय जगदीश हरे के गीत गाते हुए घूमते रहे। कोई शत्रु-सेना का शस्त्र तो कोई वस्त्र लूटने लगा। कोई मृत देह के मुंह पर पदाघात करने लगा, तो कोई दूसरी तरह का उपद्रव करने लगा, कोई गांव की तरफ तो कोई नगर की तरफ पहुंचकर राहगीरों और गृहस्थों को पकड़कर कहने लगा- वंदेमातरम कहो, नहीं तो मार डालूंगा। कोई मैदा-चीनी की दुकान लूट रहा था, तो कोई ग्वालों के घर पहुंचकर हांडी भर दूध ही छीनकर पीता था। कोई कहता- हम लोग ब्रज के गोप आ पहुंचे, गोपियां कहां हैं? उस रात में गांव-गांव में, नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी चिल्ला रहे थे- मुसलमान हार गये; देश हम लोगों का हो गया। भाइयों! हरि-हरि कहो!-गांव में मुसलमान दिखाई पड़ते ही लोग खदेड़कर मारते थे। बहुतेरे लोग दलबद्ध होकर मुसलमानों की बस्ती में पहुंचकर घरों में आग लगाने और माल लूटने लगे। अनेक मुसलमान ढाढ़ी मुंढ़वाकर देह में भस्मी रमाकर राम-राम जपने लगे। पूछने पर कहते-
हम हिंदू हैं।
त्रस्त मुसलमानों के दल-के-दल नगर की तरफ भागे। राज-कर्मचारी व्यस्त हो गए। अवशिष्ट सिपाहियों को सुसज्जित कर नगर रक्षा के लिए स्थान-स्थान पर नियुक्त किया जाने लगा। नगर के किले में स्थान-स्थान पर, परिखाओं पर और फाटक पर सिपाही रक्षा के लिए एकत्रित हो गए। नगर के सारे लोग सारी रात जागकर क्या होगा.. क्या होगा? करते रात बिताने लगे। हिंदू कहने लगे- आने दो, संन्यासियों को आने दो- हिंदुओं का राज्य- भगवान करें- प्रतिष्ठित हो। मुसलमान कहे लगे-इतने रोज के बाद क्या सचमुच कुरानशरीफ झूठा हो गया? हम लोगों ने पांच वक्त नवाज पढ़कर क्या किया, जब हिंदुओं की फतह हुई। सब झूठ है! इस तरह कोई रोता हुआ, तो कोई हंसता हुआ बड़ी उत्कंठा से रात बिताने लगा।
यह खबर कल्याणी के कानों में भी पहुंची आबाल-वृद्ध-वनिता किसी से भी बात छिपी न रही। कल्याणी ने मन-ही-मन कहा- जय जगदीश हरे! आज तुम्हारा कार्य सिद्ध हुआ। आज मैं स्वामी-दर्शन के लिए यात्रा करूंगी। हे प्रभु! आज मेरी सहायता करो।
गहरी रात को कल्याणी शय्या से उठी और उसने पहले खिड़की खोलकर राह देखी। राह सूनी पड़ी हुई थी-कोई राह में न था। तब उसने धीरे से दरवाजा खोलकर गौरी देवी का घर त्यागा। शाही राह पर आकर उसने मन-ही-मन भगवान को स्मरण कर कहा- देव! आज पदचिन्ह का दर्शन करा दो।
कल्याणी नगर के किनारे पहुंची। पहरेवाला ने आवाज दी- कौन जाता है? कल्याणी ने डरकर उत्तर दिया- मैं औरत हूं! पहरेदार ने कहा- जाने का हुक्म नहीं है। वह आवाज जमादार के कान में पहुंची। उसने कहा- जाने की मनाही नहीं है; जाने की मनाही नहीं है। यह सुनकर पहरेवाले ने कहा- जाने की मनाही नहीं है, माई! जाओ, लेकिन आज रात को बड़ी आफत है। कौन जाने माई! किसी आफत में पड़ जाओ- डाकुओं के हाथ में पड़ जाओ, मैं नहीं जानता? आज तो न जाना ही अच्छा है।
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Old 10-01-2011, 01:25 PM   #92
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कल्याणी ने कहा- बाबा! मैं भिखारिन हूं। मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं है। डाकू मुझे पकड़ कर क्या करेंगे?
पहरेवाले ने कहा- उम्र तो है, माई जी! उम्र तो है न! दुनिया में वही तो जवाहरात है। बल्कि हमी डाकू हो सकते है! कल्याणी ने देखा, बड़ी विपद है; वह धीरे से सरक गयी और फिर तेजी से आगे बढ़ी! पहरेदार ने देखा कि औरत रसिक मिजाज नहीं थी, लाचार होकर पहरे पर बैठा गांजे का दम लगाकर ही संतुष्ट हो गया।

एडवर्ड भी पक्का अंगरेज जेनरल था। छोटी घाटी में उसके आदमी थे-शीघ्र ही उन्हें खबर मिली कि उस वैष्णवी ने लिंडले को घोड़े से गिराकर स्वयं रास्ता लिया। सुनते ही एडवर्ड ने हुक्म दिया-टेंट उखाड़ो-उस शैतान का पीछा करो!

खटाखट तम्बुओं के खूंटों पर हथौड़े पड़ने लगे। मेघरचित अमरावती की तरह सवार घोड़ों पर और पदातिक पैदल चलने को तैयार हो गए। हिंदू, मुसलमान, मद्रासी, गोरे, बंदूक कंधे पर लिए मच-मच चल पड़े। तापें खच्चरों द्वारा खींची जाकर घरर-घरर करती चल पड़ीं।
इधर महेंद्र संतान-सेना के साथ मेले की तरफ अग्रसर हुए। उसी दिन शाम को महेंद्र ने सोचा अंधेरा हो चला, अब शिविर डलवा देना चाहिए।
उसी समय पड़ाव डाल देना ही उचित जान पड़ा। संतानों का शिविर कैसा? पेड़ के तनों से लगकर छाया में सब चित-पट सो रहे। हरिचरणामृत पान कर डकार ली उन्होंने। जो कुछ भूख बाकी थी, स्वप्न में वैष्णवी के अधर-रस का पान कर उसे पूरा करने लगे। जहां पड़ाव पड़ा था, वहां बहुत सुंदर आम-कानन के पास ही एक बड़ा टीला था। महेंद्र ने सोचा कि इसी टीले पर यदि पड़ाव पड़े तो कितना सुखद हो! मन में हुआ कि टीले को देख लेना चाहिए।
यह सोचकर महेंद्र घोड़े पर चढ़कर धीरे-धीरे टीले पर चड़ने लगे। अभी तक टीले पर आधा ही चढ़े थे, कि उनकी संतान-सेना में एक युवक वैष्णव आ पहुंचा। उसने संतानों से कहा-चलो, टीले पर चढ़ चलें। उसके समीप जो सैनिक खड़े थे, उन्होंने पूछा-क्यों?
यह सुनकर वह योद्धा एक छोटी चट्टान पर खड़ा हो गया, उसने ललकारकर कहा-आओ, वीरों! आज इसी टीले पर चढ़कर चांदनी का आनंद और मधुर वन्य पुष्पों का सौरभ-पान करते हुए शत्रुओं से बदला लें..युद्ध करें। संतानों ने देखा कि यह योद्धा और कोई नहीं, हमारे सेनापति जीवानंद है। इस पर सारी सेना-हरे मुरारे! कहती हुई गगनभेदी जयोल्लास से हुंकार करती हुई, भालों पर बोझा दे उठ खड़ी हुई और जीवानंद के पीछे-पीछे टीले पर चढ़ने लगी। एक ने सजा हुआ घोड़ा जीवानंद को लाकर दिया। दूर से महेंद्र ने जो यह देखा, तो विस्मित हुए। सोचने लगे- यह क्या? बिना कहे ये सब क्यों चले आ रहे हैं।
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Old 10-01-2011, 01:26 PM   #93
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यह सोचकर महेंद्र ने तुरंत घोड़े का मुंह फिराया और एंड़ लगाते ही धूल बादल उड़ाते हुए नीचे आए। संतान-वाहिनी के अग्रवर्ती जीवानंद को देखकर उन्होंने पूछा-यह क्या आनंद?
जीवानंद ने हंसकर उत्तर दिया-आज बड़ा आनंद है। टीले के उस पार एडवर्ड पहुंच गए है। टीले पर जो पहले पहुंचेगा, उसी की जीत होगी
इसके बाद जीवानंद ने संतान सेना से कहा-पहचानते हो? मैं जीवानंद हूं। मैंने सहस्त्र-सहस्त्र शत्रुओं का वध किया है।
तुमुल निनाद से दिगन्त कांप उठा। सैनिकों ने एक स्वर से कहा-पहचानते हैं, हम अपने सेनापति को पहचानते हैं।
जीवानंद-बोलो, हरे मुरारे!
जंगल का कोना-कोना कांप उठा, प्रतिध्वनित हुआ-हरे मुरारे
जीवानंद-वीरों! टीले के उस पार शत्रु है। आज ही इस स्तूप के ऊपर, विमल चांदनी में संतानों का महारण होगा। जल्दी चढ़ो- जो पहले चढ़ेगा, उसी की जीत होगी। बोलो-बन्देमातरम्
फिर प्रतिध्वनि हुई-वन्देमातरम्- धीरे-धीरे संतान-सेना पर्वत शिखर पर चढ़ने लगी। किंतु उन लोगों ने सहसा देखा कि महेंद्र बड़ी ही तेजी से उतरे चले आ रहे हैं। उतरते हुए महेंद्र ने महानिदान किया। देखते-देखते पर्वत-शिखर पर नीलाकाश में अंगरेजों की तोपें आ लगीं। उच्च स्वर में वैष्णवी सेना ने गाया-
तुमी विद्या तुमी भक्ति,
तभी मां बाहुते शक्ति,
त्वं हि प्राण: शरीरे!..
लेकिन इसी समय अंगरेजों की तोपें गर्जन कर उठीं- आग उगलने लगी, उस महानिनाद में गीत की आवाज गायब हो गई। बार-बार गुड्डम-गुड्डम करती हुई अंग्रेजों की तोपें गर्जन पर संतान-सेना का नाश करने लगीं। खेत में जैसे फसल काटी जाती है, उसी तरह संतान-सेना कटने लगी। यह ऊपर की भयानक मार संतान-सेना न सह सकी, तुरंत भाग खड़ी हुई- जिसे जिधर राह मिली, वह उधर ही भागा। इस पर हुर्र, हुर्र करती हुई ब्रिटिश वाहिनी संतानों का समूल नाश करने के लिए उतरने लगी। संगीने चढ़कर, पर्वत से गिरनेवाली भयंकर शिला की तरह, शिक्षित गोरी फौज संतानों को खदेड़ती हुई तीव्र वेग से उतरने लगी। जीवानंद ने महेंद्र को सामने देखकर कहा-बस आज अंतिम दिन है। आओ यहीं मरें।
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Old 10-01-2011, 01:27 PM   #94
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पदचिन्ह के नये दुर्ग में आज बड़े सुख से महेन्द्र, कल्याणी, जीवानंद, शांति निमाई के पति और सुकुमारी – सब एकत्र हैं। सब आज सुख में विभोर हैं-आनंदमग्न हैं। शांति जिस रात कल्याणी को ले आयी, उसी रात उसने कह दिया था कि वह अपने पति महेन्द्र से यह न कहे, कि नीवनानंद जीवानंद की पत्**नी है। एक दिन कल्याणी ने उसे अंत:पुर में बुला भेजा! नवीनानंद अत:पुर में घुस गया। उसने प्रहरियों की एक न सुनी।

शांति ने कल्याणी के पास आकर पूछा-क्यों बुलाया है?
कल्याणी -पुरुष-वेश में कितने दिनों तक रहेगी? न मुलाकात हो पाती है, न बातें होती हैं। मेरे पति के सामने तुम्हें प्रकट होना पड़ेगा।
नवीनानंद बड़ी चिन्ता में डूब गये- कुछ देर तक बोले ही नहीं। अन्त में बोले-इनमें अनेक विघ्न हैं, कल्याणी!
दोनों में इसी तरह बातें होने लगीं। इधर जो प्रहरी नवीनानंद को जोर देकर अन्त:पुर में जाने से मना कर रहे थे, उन्होंने महेन्द्र से जाकर कहा कि नवीनानंद जबरदस्ती, मना करने पर भी अन्दर चले गये हैं। कौतूहलवश महेन्द्र भी अन्त:पुर में गये। महेन्द्र ने सीधे कल्याणी के कमरे में जाकर देखा कि नवीनानंद कमरे में खड़े हैं और कल्याणी उनके शरीर के बाघम्बर की गांठ खोल रही है। महेन्द्र बड़े अचम्भे में आए- बहुत ही नाराज हुए।
नवीनानंद ने उन्हें देख हंसकर कहा- क्यों, गोस्वामी जी! सन्तान पर अविश्वास?
महेन्द्र ने पूछा- क्या भवानंद विश्वासी थे?
नवीनानंद ने आंखे दिखाकर कहा-कल्याणी क्या भवानंद के शरीर पर हाथ रखकर बाघ की खाल खोलती थी? यह कहते हुए शांति ने कल्याणी का हाथ दबाकर पकड़ लिया बाघम्बर खोलने न दिया।
महेन्द्र -तो इससे क्या हुआ?
नवीनानंद-मुझ पर अविश्वास कर सकते हैं लेकिन कल्याणी पर कैसे अविश्वास कर सकते हैं?
अब महेन्द्र अप्रतिभ हुए बोले- कहां, मैं अविश्वास कब करता हूं?
नवीनानंद -नहीं तो मेरे पीछे अंत:पुर में क्यों आ उपस्थित हुए?
महेन्द्र – कल्याणी से कुछ बातें करनी थी, इसलिए आया हूं।
नवीनानंद -तो इस समय जाइए! कल्याणी के साथ मुझे भी कुछ बातें करनी हैं। आप चले जाइए, मैं पहले बात करूंगा। आपका तो घर है, आप जब चाहें आकर बात कर सकते हैं। मैं तो बड़े कष्ट से आ पाया हूं।
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Old 10-01-2011, 01:28 PM   #95
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महेन्द्र बेवकूफ बन गये। वे कुछ भी समझा न पाते थे- यह सब बात तो अपराधियों जैसी नहीं है। कल्याणी का भाव भी विचित्र है। वह भी तो अविश्वासिनी की तरह भागी नहीं, न डरी, न लज्जित ही हुई, वरन् मृदु भाव से मुस्करा रही है। वही कल्याणी, जिसने पेड़ के नीचे सहज ही विष खा लिया- वह क्या अपराधिनी हो सकती है?.. महेंद्र के मन में यही तर्क-वितर्क हो रहा था। इसी समय शांति ने महेंद्र की यह दुरवस्था देख, कुछ मुस्कराकर कल्याणी की तरफ एक विलोल कटाक्षपात किया। सहसा अंधकार मिट गया- भला ऐसा कटाक्षपात भी कभी पुरुष कर सकते है। समझ गए कि नवीनानंद कोई स्त्री है। फिर भी शक था। उन्होंने साहस बटोरा और आगे बढ़कर एक झटके में नवीनानंद की ढाढ़ी खींच ली- ढाढ़ी-मूंछ हाथ में आ गई। इसी समय अवसर पाकर कल्याणी ने बाघम्बर की गांठ खोल दी पकड़ी जाकर शांति शरमा कर सिर नीचा कर खड़ी रह गई।
अब महेंद्र ने शांति से पूछा- तुम कौन हो?
शांति- श्रीमान नवीनानंद गोस्वामी?
महेंद्र- वह तो ठगी थी, तुम तो स्त्री हो!
शांति- यह तो देखते ही हैं आप!
महेंद्र- तब एक बात पूछूं- तुम स्त्री होकर जीवानंद के साथ हर समय क्यों रहती थी?
शांति- यह बात आप को न बताऊंगी।
महेंद्र-तुम स्त्री हो, यह जीवानंद स्वमी जानते हैं?
शांति- जानते हैं।
यह सुनकर विशुद्धात्मा महेंद्र बहुत दुखी हुए।
यह देखकर अब कल्याणी चुप न रह सकी, बोली- ये जीवानंद स्वामी की धर्मपत्**नी शांति देवी है?
एक क्षण के लिए महेंद्र का चेहरा प्रसन्न हो उठा। इसके बाद ही उनका चेहरा फिर गंभीर हो गया। कल्याणी समझ गई, ये पूर्ण ब्रह्मचारिणी है।

महेंद्र ने कहा-मरने से यदि रण-विजय हो, तो कोई हर्ज नहीं, किंतु व्यर्थ प्राण गंवाने से क्या मतलब? व्यर्थ मृत्यु वीर-धर्म नहीं है।

जीवानंद-मैं व्यर्थ ही मरूंगा, लेकिन युद्ध करके मरूंगा।
कहकर जीवानंद ने पीछे पलटकर कहा-भाईयों! भगवान की शपथ लो कि जीवित न लौटेंगे।
जीवानंद ने घोड़े की पीठ पर से ही, बहुत पीछे खड़े महेंद्र से कहा-भाई महेंद्र! नवीनंद से मुलाकात हो तो कह देना कि परलोक में मुलाकात होगी।
यह कहकर वह वीरश्रेष्ठ बाएं हाथ में बलम आगे किए हुए और दाहिने हाथ से बंदूक चलाते, मुंह से हरे मुरारे! हरे मुरारे!! कहते हुए तीर की तरह उस बरसती हुई आग को चीरते हुए टीले पर बड़े वेग से आगे बढ़ने लगे। इस तरह महान् साहस का परिचय देते हुए और शत्रुक्षय करते हुए जीवानंद अकेले अभिमन्यु की तरह शत्रु-व्यूह में घुसते चले जा रहे थे, मानो एक मस्त हाथी कमल-वन को रौंदता चला जाता हो।
भागती हुई संतान-सेना को दिखाकर महेंद्र ने कहा-देखो, कायरों! भागनेवालों- अपने सेनापति का साहस देखो! देखने से जीवानंद मर नहीं सकते।
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Old 10-01-2011, 01:29 PM   #96
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संतानों ने पलटकर जीवानंद का अद्भुत साहस प्रत्यक्ष देखा। पहले उन सबने देखा, फिर बोले-स्वामी जीवानंद मरना जानते हैं, तो क्या हम नहीं जानते? चलो जीवानंद के साथ बैकुंठ चलें!
बस, यहीं से रण ने पलटा खाया। संतान-सेना पलट पड़ी। पीछे भागनेवालों ने देखा कि पलट रहे हैं, तो उन्होंने समझा कि संतानों की विजय हुई है। अत: वे भी तुरंत चल पड़े।
महेंद्र ने देखा कि जीवानंद शत्रुओं की सेना में घुस गए हैं, अब दिखाई नहीं पड़ते। उन्मत्त संतान-सेना ने टीले से उतरी हुई अंग्रेज-वाहिनी पर प्रचंड आक्रमण किया- अंगे्रजों के पैर उखड़ गए। वे लोग इस आक्रमण को सह न सके, उनकी संगीने पलटकर भागने की तरफ दिखाई दीं। पीछे चढ़ती हुई संतान-सेना उनका विनाश करती जा रही थी। भागी हुई संतान-सेना अभी तक बराबर पलटती हुई रण भूमि में चढ़ती जाती थी।
महेंद्र खड़े यह देख रहे थे। सहसा पर्वत-शिखर पर संतानों की पताका उड़ती दिखाई दी। वहां सत्यानंद महाप्रभु, स्वयं चक्रपाणि विष्णु की तरह बाएं हाथ में ध्वजा लिए हुए और दाहिने में रक्त से लाल तलवार लिए खड़े थे। वह देखते ही संतानों में अपूर्व बल आ गया-हरे मुरारे! का गगन में वह जयनाद हुआ कि वस्तुत: वसुंधरा कांपती हुई नजर आई।
इस समय अंग्रेजी सेना दोनों दलों के बीच में थी- ऊपर प्रभु सत्यानंद ने तोपों पर अधिकार कर लिया था, नीचे से संतान-सेना पलटकर चढ़ती हुई मार रही थी।
महेंद्र ने देखा कि ऊपर से वन्देमातरम् का निनाद करते हुए सत्यानंद, अवशिष्ट ब्रिटिश वाहिनी के नाश के लिए उतरे। इधर से बची हुई सेना लेकर महेंद्र ने संतानों को साहस दिलाते हुए भयंकर आक्रमण कर दिया। मध्य टीले पर भयंकर युद्ध हुआ। अंग्रेज चक्की के दो पाटों में फंसे चने की तरह पिसने लगे। थोड़ी ही देर में एक भी ब्रिटिश सैनिक खड़ा न दिखाई दिया। धरती लाल हो गई- रक्त की नदी बह गई।
वहां ऐसा भी कोई न बचा, जो वारेन हेस्टिंग्स के पास खबर ले जाता।
पूर्णिमा की रात है। यह भीषण रणक्षेत्र इस समय स्थिर है। वह घोड़ों की टाप की आवाज, बंदूकों की गरज और गोलों की वर्षा गायब हो गई है। न कोई हुर्रे करता है न कोई हरे मुरारे। आवाज आती है, तो केवल कुत्तों और स्यारों की। रह-रहकर घायलों का क्रंदन सुनाई पड़ता है। किसी का पैर कटा है, किसी का हाथ कटा है, किसी का पंजर घायल हुआ है। कोई राम को पुकारता है, कोई गॉड। कोई पानी मांगता है, कोई मृत्यु का आह्वान करता है। उस चांदनी रात में श्याम भूमि लाल वसन पहनकर भयानक हो गई थी। किसकी हिम्मत थी कि वहां जाता?
साहस तो किसी का नहीं है लेकिन उस निस्तब्ध भयंकर रात में भी एक रमणी उस अगम्य रणक्षेत्र में विचरण कर रही है। वह एक मशाल लिए रणक्षेत्र में किसी को खोज रही है- हरेक शव का मुंह रोशनी में देखकर दूसरे के पास चली जाती है। कहीं कोई मृत देह अश्व के नीचे पड़ी है, तो वहीं मुश्किल से मशाल रख, दोनों हाथों से अश्व को हटाकर शव देखती और हताश हो आगे बढ़ जाती है। वह जिसे खोज रही थी, उसे न पाया। अब वह मशाल छोड़, रक्तमय जमीन पर पछाड़ खा गिरकर रोने लगी। पाठकों! यह शांति है वीर जीवानंद के शव को खोज रही है।
शांति जिस समय जमीन पर गिरकर रो रही थी, उसी समय उसे एक मधुर करुण शब्द सुनाई पड़ा-उठो, बेटी!, रोओ नहीं। शांति ने देखा, चांदनी रात में सामने एक जटाजूटधारी विराट महापुरुष खड़े हैं।
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VIDROHI NAYAK
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अत्यंत सुन्दर प्रविष्टि !धन्यवाद अभय जी !
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( वैचारिक मतभेद संभव है )
''म्रत्युशैया पर आप यही कहेंगे की वास्तव में जीवन जीने के कोई एक नियम नहीं है''

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उस रात राह में दल-के-दल घूम रहे थे। कोई मार-मार कहता है, तो कोई भागो-भागो चिल्लाता है। कोई हंसता है, कोई रोता है, कोई राह में किसी को देखकर पकड़ लेता है। कल्याणी बड़ी विपदा में पड़ी। राह मालूम नहीं, और फिर किसी से पूछ भी नहीं सकती, केवल छिपती हुई राह चलने लगी। छिपते-छिपते एक विद्रोही दल के हाथ में पड़ गई। वे लोग चिल्लाकर पकड़ने दौड़े। कलुयाणी प्राण लेकर जंगल के अंदर घुसकर भागी। वे सब शोर मचाते हुए पकड़ने के लिए पीछे दौड़े। आखिर एक ने आंचल पकड़ लिया, बोला- वाह री, चंद्रमुखी! इसी समय एक और आदमी अकस्मात पहुंच गया और अत्याचारी को उसने एक लाठी जमायी; वह आहत होकर भागा। परित्राणकर्ता का वेश संन्यासियों का था और उसकी छाती ढंकी हुई थी! उसने कल्याणी से कहा- तुम भय न करो। मेरे साथ आओ- कहां जाओगी?

कल्याणी-पदचिह्न।
आगंतुक चौंक उठा, विस्मित हुआ; पूछा- क्या कहा? पदचिह्न? यह कहकर कल्याणी के दोनों कन्धों पर हाथ रखकर गौर से चेहरा देखने लगा।
कल्याणी अकस्मात पुरुष-स्पर्श से भयभीत तथा रोमांचित होकर रोने लगी। इतनी हिम्मत नहीं हुई कि भाग सके। आगन्तुक ने भरपूर देख लेने के बाद कहा- ओ हो, पहचान गया! तुम्ही डायन कल्याणी हो?
कल्याणी ने भयविह्वल होकर पूछा- आप कौन हैं?
आगन्तुक ने कहा, मैं तुम्हारा दासानुदास हूं। हे सुन्दरी! मुझ पर प्रसन्न हो।
कल्याणी बड़ी तेजी से वहां से हटकर गर्जन कर बोली- क्या यह अपमान के लिए ही आपने मेरी रक्षा की थी? देखती हूं , ब्रह्मचारियों का क्या यही धर्म है? आज मैं नि:सहाय हूं, नहीं तो तुम्हारे चेहरे पर लात लगाती।
ब्रह्मचारी ने कहा-अयि स्मितवदने! मैं बहुत दिनों से तुम्हारे पुष्प समान कोमल शरीर के आलिंगन की कामना कर रहा हूं? यह कहकर दौड़कर ब्रह्मचारी ने कल्याणी को पकड़ लिया और जबर्दस्ती छाती से लगा लिया। अब कल्याणी खिलखिला कर हंस पड़ी, बोली यह तुम्हारा कपाल है। पहले ही कह देना था- भाई, मेरी भी यही दशा है। शान्ति ने पूछा- क्यों भाई! महेन्द्र की खोज में चली हो?
कल्याणी ने कहा-तुम कौन हो? तुम तो सब कुछ जानती हो!
शान्ति बोली-मैं ब्रह्मचारी हूं, सन्तान -सेना का अधिनायक -घोरतर वीर पुरुष! मै सब जानता हूं आज राह में सिपाहियों का बहुत हुड़दंग ऊधम है, अत: आज तुम पदचिन्ह जा न सकोगी!
कल्याणी रोने लगी।
शान्ति ने त्योरी बदलकर कहा-डरती क्यों हो? हम अपने नयनबाणों से हजारों का वध कर सकते हैं- चलो, पदचिन्ह चलें।
कल्याणी ने ऐसी बुद्धिमती स्त्री की सहायता पाकर मानो हाथ बढ़ाकर स्वर्ग पा लिया । बोली- तुम जहां कहोगी, वहीं चलूंगी।
शान्ति कल्याणी को लेकर जंगली राह से चल पड़ी।
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Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

जब आधी रात को शान्ति अपना आश्रम त्यागकर नगर की तरफ चली, तो उस समय जीवानंद वहां उपस्थित थे। शान्ति ने जीवानंद से कहा- मै नगर की तरफ जाती हूं । महेन्द्र की स्त्री को ले आऊंगी। तुम महेन्द्र से कह रखो कि तुम्हारी स्त्री जीवित है।
जीवानंद ने भवानंद से कल्याणी के जीवन की सारी बातें सुनी थीं और उसका वर्तमान वास-स्थान भी सुन चुके थे। क्रमश: ये सारी बातें महेन्द्र को सुनाने लगे।
पहले तो महेन्द्र को विश्वास न हुआ। अन्त में अपार आनंद से अभिभूत अवाक हो रहे।
उस रात के बीतने पर सबेरे, शान्ति की सहायता से महेन्द्र के साथ कल्याणी की मुलाकात हुई । निस्तब्ध जंगल के बीच अतिघनी शालतरू श्रेणी की अंधेरी छाया के बीच, पशु-पक्षियों की निद्रा टूटने के पहले उन लोगों का परस्पर मिलन हुआ। म्लान अरण्य में फूटनेवाली पहली आभामयी किरणें और नक्षत्रराज ही साक्षी थे। दूर शिला-संघर्षिणी नदी का कलकल प्रवाह हो रह था तो कहीं अरुणोदय की लालिमा से प्रफुल्ल-हृदय कोकिल की कुहू ध्वनि सुनाई पड़ जाती थी।
क्रमश: एक पहर दिन चढ़ा। वहां शांति और जीवानंद आये। कल्याणी ने शांति से कहा- मै आप लोगों के हाथ बिना मूल्य के बिक चुकी हूं। मेरी कन्या का पता लगाकर मेरे उस उपकार को पूर्ण कीजिए।
शांति ने जीवानंद के चेहरे की तरफ देखकर कहा- मै अब सोऊं गा। आठ पहर बीते, मैं बैठा तक नहीं। आखिर मैं भी पुरुष हूं!
कल्याणी जरा मुस्कुरा दी। जीवानंद ने महेन्द्र की तरफ देखकर कहा- यह भार मेरे ऊपर रहा। आप लोग पदचिन्ह की यात्रा कीजिए- वहीं आपकी कन्या पहुंचा दूंगा!
जीवानंद भैरवीपुर-निवासी बहिन के पास से लड़की लाने चले। पर कार्य सरल न था!
पहले तो निमाई बात ही खा गई। इधर-उधर ताका, फिर एक-बारगी उसका मुंह फूलकर कुप्पा हो गया! इसके बाद वह रो पड़ी, बोली-लड़की न दूंगी।
निमाई अपनी उल्टी हथेलियों से आंसू पोछने लगी। जीवानंद ने कहा- अरे बहन! तू रोती क्यों? ऐसा दूर भी तो नहीं है- न हो, बीच-बीच में उन लोगों के घर जाकर लड़की को देख आया करना।
निमाई ने होंठ फुलाकर कहा- तो तुम लोगों की लड़की है, ले क्यों नहीं जाते? मुझसे क्या मतलब? यह कहकर निमाई लड़की को उठा लाई और जीवानंद के पैर के पास पटककर वहीं बैठकर रोने लगी। अत: जीवानंद और कोई फुसलाने की राह न देखकर इधर-उधर की बातें करने लगे। लेकिन निमाई का क्रोध न गया। निमाई उठकर सुकुमारी के पहनने के कपड़े, उसके खेलने के खिलौने- बोझ के बोझ लाकर जीवानंद के सामने पटकने लगी। सुकुमारी स्वयं उन सबको बटोरने लगी। उसने निमाई से पूंछा- क्यों मां ! मै कहां जाऊंगी? अब निमाई सह न सकी। उसने सुकुमारी को गोद में उठा लिया ओर चली गयी।
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उत्तर बंगाल मुसलमानों के हाथ से निकल गया- यह बात मुसलमान मानते नहीं, दलील पेश करते है कि बहुतेरे डाकुओं का उपद्रव है- शासन तो हमारा ही है। इस तरह कितने वर्ष बीत जाते नहीं कहा जा सकता। लेकिन भगवान की इच्छा से वारेन हेटिंग्स इसी समय कलकत्ते में गवर्नर- जनरल होकर आए। वारेन हेटिंग्स मन ही मन संतोष करने वाले आदमी न थे, अन्यथा भारत में अंग्रेजी साम्राज्य स्थापित कर न पाते। उन्होंने तुरंत संतानों के दमनार्थ मेजर एडवर्ड नाम के एक दूसरे सेनापति को खड़ा कर दिया। मेजर ताजा गोरी फौज लेकर तैयार हो गए।

एडवर्ड ने देखा कि यह यूरोपीय युद्ध नहीं है। शत्रुओं की सेना नहीं, नगर नहीं, राजधानी नहीं, दुर्ग नहीं, फिर भी सब उनके अधीन है। जिस दिन जहां ब्रिटिश सेना का पड़ाव पड़ा, उस रोज वहां ब्रिटिश अधिकार रहा, दूसरे दिन शिविर टूटते ही फिर वन्देमातरम की ध्वनि गूंजने लगी। साहब सर पटककर रह गये, पर यह पता न लगा कि एक क्षण में कहां से टिड्डियों की तरह विद्रोही सेना इकट्ठी हो जाती, ब्रिटिश अधिकृत गांवों को फूंक देती है और रक्षकों की छोटी टुकडि़यों का सफाया करने के बाद फिर गायब हो जाती है? बड़ी खोज के बाद उन्हें मालूम हुआ कि पदचिन्ह में सन्तानों ने दुर्ग -निर्माण कर रखा है उसी दुर्ग पर अधिकार करना युक्तिसंगत समझा।
वह खुफियों द्वारा यह पता लगाने लगा कि पदचिन्ह में कितनी सन्तान-सेना रहती है। उसे जो समाचार मिला, उससे उस समय उसने दुर्ग पर आक्रमण करना उचित समझा। मन-ही-मन उसने एक अपूर्व कौशल की रचना की।
माघी पूर्णिमा सामने उपस्थित थी। उनके शिविर के निकट ही नदी तट पर बहुत बड़ा मेला लगेगा। इस बार मेले की बड़ी तैयारी है। मेले में सहज ही कोई एक लाख आदमी एकत्र होते हैं। इस बार वैष्णव राजा हुए है- शासक हुए हैं, अत: वैष्णवों ने इस बार मेले में आने का संकल्प कर लिया है। पदचिन्ह के रक्षक भी अवश्य ही मेले में पहुंचेंगे, इसकी कल्पना मेजर ने कर ली। उन्होंने निश्चय किया कि पदचिन्ह पर उसी समय आक्रमण कर अधिकार करना चाहिए।
यह सोचकर मेजर सने अफवाह उड़ा दी कि वे मेले पर आक्रमण करेंगे, उसी दिन वहां तमाम वैष्णव सन्तान इकट्ठे रहेंगे, अत: एक बार में ही उनका समूल विध्वंस होगा- वे वैष्णवों का मेला होने न देंगे।
यह खबर गांव-गांव में प्रचारित की गयी। अत: स्वभावत: जो संतान जहां था, वह वहीं से अस्त्र ग्रहण कर मेले की रक्षा के लिए चल पड़ा। सभी संतानें माघी पूर्णिमा के मेले वाले नदी-तट पर आकर सम्मिलित होने लगे। मेजर साहब ने जो जाल फेंका था, वह सही होने लगा। अंगरेजों के सौभाग्य से महेन्द्र ने भी उस जाल में पांव डाल दिया। महेन्द्र ने पदचिन्ह में थोड़ी सी सेना छोड़कर शेष सारी सेना के साथ मेले के लिए प्रयाण किया।
यह सब होने के पहले ही जीवानंद और शांति पदचिन्ह से बाहर निकल गये थे। उस समय तक युद्ध की कोई बात नहीं थी, अत: युद्ध की तरफ उनका कोई ध्यान भी न था। माघी पूर्णिमा के दिन पवित्र जल में प्राण-विसर्जन कर वे लोग अपना प्रायश्चित करेंगे, यह पहले से निश्चित हो चुका था। राह में जाते-जाते उन्होंने सुना कि मेले में समस्त संतानों पर अंगरेजों का आक्रमण होगा तथा भयानक युद्ध होगा। इस पर जीवानंद ने कहा-तब चलो, युद्ध में ही प्राण-विसर्जन करेंगे।
वे लोग जल्दी-जल्दी चले। एक जगह रास्ता टीले के ऊपर से गया था। टीले पर चढ़कर वीर-दम्पति ने देखा कि नीचे थोड़ी दूर पर अंगरेजों का शिविर पड़ा हुआ है। शांति ने कहा- मरने की बात इस समय ताक पर रखो, बोली – वन्देमातरम!
इस पर दोनों ने ही चुपके-चुपके कुछ सलाह की। फिर जीवानंद पास के एक जंगल में छिप गए। शांति एक दूसरे में घुसकर अद्भुत काण्ड में प्रवृत्त हुई।
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