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Old 16-11-2012, 06:58 AM   #91
amol
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रावण इस समय लड़ना तो न चाहता था, क्योंकि उसे राम और लक्ष्मण के आ जाने का भय था, किन्तु जब जटायु मार्ग में खड़ा हो गया, तो उसे विवश होकर रथ रोकना पड़ा। घोड़ों की बाग खींच ली और बोला—क्या शामत आयी है, जो मुझसे छेड़छाड़ करता है! मैं लंका का राजा रावण हूं। मेरी वीरता के समाचार तूने सुने होंगे! अपना भला चाहता है तो रास्ते से हट जा।
जटायु—तू सीता को कहां लिये जाता है ?
रावण—राम ने मेरी बहन की परतिष्ठा नष्ट की है, उसी का यह बदला है।
जटायु—यदि अपमान का बदला लेना था, तो मर्दों की तरह सामने क्यों न आया? मालूम हुआ कि तू नीच और कपटी है। अभी सीता को रथ पर से उतार दे !
रावण बड़ा बली था। वह भला बेचारे जटायु की धमकियों को कब ध्यान में लाता था। लड़ने को परस्तुत हुआ। जटायु कमजोर था। किन्तु जान पर खेल गया। बड़ी देर तक रावण से लड़ता रहा। यहां तक कि उसका समस्त शरीर घावों से छलनी हो गया। तब वह बेहोश होकर गिर पड़ा और रावण ने फिर घोड़े ब़ा दिये।
उधर लक्ष्मण कुटिया से चले तो; किन्तु दिल में पछता रहे थे कि कहीं सीता पर कोई आफत आयी, तो मैं राम को मुंह दिखाने योग्य न रहूंगा। ज्योंज्यों आगे ब़ते थे, उनकी हिम्मत जवाब देती जाती थी। एकाएक रामचन्द्र आते दिखायी दिये। लक्ष्मण ने आगे ब़कर डरतेडरते पूछा—क्या आपने मुझे बुलाया था ? राम ने इस बात का कोई उत्तर न देकर कहा—क्या तुम सीता को अकेली छोड़कर चले आये ? गजब किया। यह हिरन न था, मारीच राक्षस था। हमें धोखा देने के लिए उसने यह भेष बनाया, और तुम्हें धोखा देने के लिए मेरा नाम लेकर चिल्लाया था। क्या तुमने मेरी आवाज़ भी न पहचानी? मैंने तो तुम्हें आज्ञा दी थी कि सीता को अकेली न छोड़ना। मारीच की युक्ति काम कर गयी। अवश्य सीता पर कोई विपत्ति आयी। तुमने बुरा किया।
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Old 16-11-2012, 06:58 AM   #92
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लक्ष्मण ने सिर झुकाकर कहा—भाभीजी ने मुझे बलात भेज दिया। मैं तो आता ही न था, पर जब वह ताने देने लगीं, तो क्या करता !
राम ने तीक्ष्ण दृष्टि से देखकर कहा—तुमने उनके तानों पर ध्यान दिया, किन्तु मेरे आदेश का विचार न किया। मैं तो तुम्हें इतना बुद्धिहीन न समझता था। अच्छा चलो, देखें भाग्य में क्या लिखा है।
दोनों भाई लपके हुए अपनी कुटी पर आये। देखा तो सीता का कहीं पता नहीं। होश उड़ गये। विकल होकर इधरउधर चारों तरफ दौड़दौड़कर सीता को ढूंढ़ने लगे। उन पेड़ों के नीचे जहां परायः मोर नाचते थे, नदी के किनारे जहां हिरन कुलेलें करते थे, सब कहीं छान डाला, किन्तु कहीं चिह्न मिला। लक्ष्मण तो कुटी के द्वार पर बैठकर जोरजोर से चीखें मारमारकर रोने लगे, किन्तु रामचन्द्र की दशा पागलों कीसी हो गयी।
सभी वृक्षों से पूछते, तुमने सीता को तो नहीं देखा? चिड़ियों के पीछे दौड़ते और पूछते, तुमने मेरी प्यारी सीता को देखा हो, तो बता दो, गुफाओं में जाकर चिल्लाते—कहां गयी? सीता कहां गयी, मुझ अभागे को छोड़कर कहां गयी? हवा के झोंकों से पूछते, तुमको भी मेरी सीता की कुछ खबर नहीं! सीता जी मुझे तीनों लोक से अधिक पिरय थीं, जिसके साथ यह वन भी मेरे लिए उपवन बना हुआ था, यह कुटी राजपरासाद को भी लज्जित करती थी, वह मेरी प्यारी सीता कहां चली गयी। इस परकार व्याकुलता की दशा में वह ब़ते चले जाते थे। लक्ष्मण उनकी दशा देखकर और भी घबराये हुए थे। रामचन्द्र की दशा ऐसी थी मानो सीता के वियोग में जीवित न रह सकेंगे। लक्ष्मण रोते थे कि कैकेयी के सिर यदि वनवास का अभियोग लगा तो मेरे सिर सत्यानाश का अभियोग आयेगा। यदि रामचन्द्र को संभालने की चिन्ता न होती, तो सम्भवतः वे उसी समय अपने जीवन का अन्त कर देते। एकासक एक वृक्ष के नीचे जटायु को पड़े कराहते देखकर रामचन्द्र रुक गये, बोले—जटायु! तुम्हारी यह क्या दशा है? किस अत्याचारी ने तुम्हारी यह गति बना डाली ?
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Old 16-11-2012, 06:58 AM   #93
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जटायु रामचन्द्र को देखकर बोला—आप आ गये? बस, इतनी ही कामना थी, अन्यथा अब तक पराण निकल गया होता। सीताजी को लङ्का का राक्षस रावण हर ले गया है। मैंने चाहा कि उनको उसके हाथ से छीन लूं। उसी के साथ लड़ने में मेरी यह दशा हो गयी। आह! बड़ी पीड़ा हो रही है। अब चला।
राम ने जटायु का सिर अपनी गोद में रख लिया। लक्ष्मण दौड़े कि पानी लाकर उसका मुंह तर करें, किन्तु इतने में जटायु के पराण निकल गये। इस वन में एक सहायक था, वह भी मर गया। राम को इसके मरने का बहुत खेद हुआ। बहुत देर तक उसके निष्पराण शरीर को गोद में लिये रोते रहे। ईश्वर से बारबार यही परार्थना करते थे कि इसे स्वर्ग में सबसे अच्छी जगह दीजियेगा, क्योंकि इस वीर ने एक दुखियारी की सहायता में पराण दिये हैं, और औचित्य की सहायता के लिए रावण जैसे बली पुरुष के सम्मुख जाने से भी न हिचका। यही मित्रता का धर्म है। यही मनुष्यता का धर्म है। वीर जटायु का नाम उस समय तक जीवित रहेगा, जब तक राम का नाम जीवित रहेगा। लक्ष्मण ने इधरउधर से लकड़ी बटोरकर चिता तैयार की, रामचन्द्र ने मृतशरीर उस पर रखा, और वेदमन्त्रों का पाठ करते हुए उसकी दाहक्रिया की। फिर वहां से आगे ब़े। अब उन्हें सीता का पता मिल गया था, इस बात की व्याकुलता न थी कि सीता कहां गयीं। यह चिन्ता थी कि रावण से सीता को कैसे छीन लेना चाहिए। इस काम के लिए सहायकों की आवश्यकता थी। बहुत बड़ी सेना तैयार करनी पड़ेगी, लङ्का पर आक्रमण करना पड़ेगा। यह चिन्ताएं पैदा हो गयी थीं। चलतेचलते सूरत डूब गया। राम को अब किसी बात की सुधि न थी, किन्तु लक्ष्मण को यह विचार हो रहा था कि रात कहां काटी जाय। न कोई गांव दिखायी देता था, न किसी ऋषि का आश्रम। इसी चिंता में थे कि सामने वृक्षों के एक कुंज में एक झोंपड़ी दिखायी दी। दोनों आदमी उस झोंपड़ी की ओर चले। यह झोंपड़ी एक भीलनी की थी जिसका नाम शबरी था। उसे जो ज्ञात हुआ कि यह दोनों भाई अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र हैं, तो मारे खुशी के फूली न समायी, बोली—धन्य मेरे भाग्य कि आप मेरी झोंपड़ी तक आये। आपके चरणों से मेरी झोंपड़ी पवित्र हो गयी। रात भर यहीं विश्राम कीजिए। यह कहकर वह जंगल में गयी और ताजे फल तोड़ लायी। कुछ जंगली बेर थे, कुछ करौंदे, कुछ शरीफे। शबरी खूब रसीले, पके हुए फल ही चुन रही थी। इस भय से कि कोई खट्टा न निकल जाय, वह परायः फलों को कुतरकर उनका स्वाद ले लेती। भीलनी क्या जानती थी कि जूठी चीज खाने के योग्य नहीं रहती। इस परकार वह एक टोकरी फलों से भर लायी और खाने के लिए अनुरोध करने लगी। इस समय दुःख के मारे उनका जी कुछ खाने को तो न चाहता था, किन्तु शबरी का सत्कार स्वीकार था। यह कितने परेम से जंगल से फल लायी है, इसका विचार तो करना ही पड़ेगा। जब फल खाने आरम्भ किये तो कोईकोई कुतरे हुए दिखायी दिये, किन्तु दोनों भाइयों ने फलों को और भी परेम के साथ खाया, मानो वह जूठे थे, किन्तु उनमें परेम का रस भरा हुआ था। दोनों भाई बैठे फल खा रहे थे और शबरी खड़ी पंखा झल रही थी। उसे यह डर लगा हुआ था कि कहीं मेरे फल खट्टे या कच्चे न निकल जायं, तो ये लोग भूखे रह जायंगे। शायद मुझे घुड़कियां भी दें। राजा हैं ही, क्या ठिकाना। किन्तु जब उन लोगों ने खूब बखानबखान कर फल खाये, तो उसे मानो स्वर्ग का ठेका मिल गया।
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Old 16-11-2012, 06:59 AM   #94
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दोनों भाइयों ने रात वहीं व्यतीत की। परातः शबरी से विदा होकर आगे ब़े।
उधर रावण रथ को भगाता हुआ पंपासर पहाड़ के निकट पहुंचा, तो सीताजी ने देखा कि पहाड़ पर कई बन्दरों कीसी सूरत वाले आदमी बैठे हुए हैं। सीताजी ने विचार किया कि रामचन्द्र मुझे ढूंढ़ते हुए अवश्य इधर आवेंगे। इसलिए उन्होंने अपने कई आभूषण और चादर रथ के नीचे डाल दिये कि संभवतः इन लोगों की दृष्टि इन चीजों पर पड़ जाय और वह रामचन्द्र को मेरा पता बता सकें। आगे चलकर तुमको मालूम होगा कि सीताजी की इस कुशलता से रामचन्द्र को उनका पता लगाने में बड़ी सहायता मिली।
लंका पहुंचकर रावण ने सीताजी को अपने महल, बाग, खजाने, सेनायें सब दिखायीं। वह समझता था कि मेरे ऐश्वर्य और धन को देखकर सीताजी लालच में पड़ जायंगी। उसका महल कितना सुन्दर था, उपवन कितने नयनाभिराम थे, सेनायें कितनी असंख्य और नयेनये अस्त्रशस्त्रों से कितनी सजी हुई थीं, कोष कितना असीम था, उसमें कितने हीरेजवाहर भरे हुए थे! किन्तु सीताजी पर इस सेना का भी कुछ परभाव न हुआ। उन्हें विश्वास था कि रामचन्द्र के बाणों के सामने यह सेनायें कदापि न ठहर सकेंगी। जब रावण ने देखा कि सीताजी ने मेरे इस ठाटबाट की तिनके बराबर भी परवा न की तो बोला—तुम्हें अब भी मेरे बल का अनुमान नहीं हुआ? क्या तुम अब भी समझती हो कि रामचन्द्र तुम्हें मेरे हाथों से छुड़ा ले जायेंगे ? इस विचार को मन से निकाल डालो। सीता जी ने घृणा की दृष्टि से उसकी ओर देखकर कहा—इस विचार को मैं हृदय से किसी परकार नहीं निकाल सकती। रामचन्द्र अवश्य मुझे ले जायेंगे और तुझे इस दुष्टता और नीचता का मजा भी चखायेंगे। तेरी सारी सेना, सारा धन, सारे अस्त्रशस्त्र धरे रह जायेंगे। उनके बाण मृत्यु के बाण हैं। तू उनसे न बच सकेगा। वह आन की आन में तेरी यह सोने की लङ्का राख और काली कर देंगे। तेरे वंश में कोई दीपक जलाने वाला भी न रह जायगा। यदि तुझे अपने जीवन से कुछ परेम हो, तो मुझे उनके पास पहुंचा दे और उनके चरणों पर नमरता से गिरकर अपनी धृष्टता की क्षमा मांग ले। वह बड़े दयालु हैं। तुझे क्षमा कर देंगे। किन्तु यदि तू अपनी दुष्टता से बाज न आया तो तेरा सत्यानाश हो जायगा।
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Old 16-11-2012, 06:59 AM   #95
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

रावण क्रोध से जल उठा। महल के समीप ही अशोकवाटिका नाम का एक उपवन था, रावण ने सीताजी को उसी में ठहरा दिया और कई राक्षसी स्त्रियों को इसलिए नियुक्त किया कि वह सीता को सतायें और हर परकार का कष्ट पहुंचाकर इन्हें उसकी ओर आकृष्ट करने के लिए विवश करें; अवसर पाकर उसकी परशंसा से भी सीताजी को आकर्षित करें। यह परबन्ध करके वह तो चला गया, किन्तु राक्षसी स्त्रियां थोड़े ही दिनों में सीताजी की नेकी और सज्जनता और पति का सच्चा परेम देखकर उनसे परेम करने लग गयीं और उन्हें कष्ट पहुंचाने के बदले हर तरह का आराम देने लगीं। वह सीताजी को आश्वासन भी देती रहती थीं। हां, जब रावण आ जाता तो उसे दिखाने के लिए सीता पर दोचार घुड़कियां जमा देती थीं।
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Old 16-11-2012, 07:00 AM   #96
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सीता जी की खोज

राम और लक्ष्मण सीता की खोज में पर्वत और वनों की खाक छानते चले जाते थे कि सामने ऋष्यमूक पहाड़ दिखायी दिया। उसकी चोटी पर सुगरीव अपने कुछ निष्ठावान साथियों के साथ रहा करता था। यह मनुष्य किष्किन्धानगर के राजा बालि का छोटा भाई था। बालि ने एक बात पर असन्तुष्ट होकर उसे राज्य से निकाल दिया था और उसकी पत्नी तारा को छीन लिया था। सुगरीव भागकर इस पहाड़ पर चला आया और यद्यपि वह छिपकर रहता था, फिर भी उसे यह शंका बनी रहती थी कि कहीं बालि उसका पता न लगा ले और उसे मारने के लिए किसी को भेज न दे। उसने राम और लक्ष्मण को धनुष और बाण लिये जाते देखा, तो पराण सूख गये। विचार आया कि हो न हो बालि ने इन दोनों वीर युवकों को मुझे मारने के लिये भेजा है। अपने आज्ञाकारी मित्र हनुमान से बोला—भाई, मुझे तो इन दोनों आदमियों से भय लगता है। बालि ने इन्हें मुझे मारने के लिए भेजा है। अब बताओ, कहां जाकर छिपूं ? हनुमान सुगरीव के सच्चे हितैषी थे। इस निर्धनता में और सब साथियों ने सुगरीव से मुंह मोड़ लिया था। उसकी बात भी न पूछते थे, किन्तु हनुमान बड़े बुद्धिमान थे और जानते थे कि सच्चा मित्र वही है, जो संकट में साथ दे। अच्छे दिनों में तो शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। उन्होंने सुगरीव को समझाया—आप इतना डरते क्यों हैं। मुझे इन दोनों आदमियों के चेहरे से मालूम होता है कि यह बहुत सज्जन और दयालु हैं। मैं अभी उनके पास जाकर उनका हालचाल पूछता हूं। यह कहकर हनुमान ने एक बराह्मण का भेष बनाया, माथे पर तिलक लगाया, जनेऊ पहना, पोथी बगल में दबायी और लाठी टेकते हुए रामचन्द्र के पास जाकर बोले—आप लोग यहां कहां से आ रहे हैं? मुझे तो ऐसा परतीत होता है कि आप लोग परदेशी हैं और सम्भवतः आपका कोई साथी खो गया है।
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Old 16-11-2012, 07:00 AM   #97
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रामचन्द्र ने कहा—हां, देवताजी! आपका विचार ठीक है। हम लोग परदेशी हैं। दुर्भाग्य के मारे अयोध्या का राज्य छोड़कर यहां वनों में भटक रहे हैं। उस पर नयी विपत्ति यह पड़ी कि कोई मेरी पत्नी सीता को उठा ले गया। उसकी खोज में इधर आ निकले। देखें, अभी कहांकहां ठोकरें खानी पड़ती हैं।
हनुमान ने सहानुभूतिपूर्ण भाव से कहा—महाराज, घबड़ाने की कोई बात नहीं है। आप अयोध्या के राजकुमार हैं, तो हम लोग आपके सेवक हैं। मेरे साथ पहाड़ पर चलिये। यहां राजा सुगरीव रहते हैं। उन्हें बालि ने किष्किन्धापुरी से निकाल दिया है। बड़े ही नेक और सज्जन पुरुष हैं, यदि उनसे आपकी मित्रता हो गयी, तो फिर बड़ी ही सरलता से आपका काम निकल जायगा। वह चारों तरफ अपने आदमी भेजकर पता लगायेंगे और ज्योंही पता मिला, अपनी विशाल सेना लेकर महारानी जी को छुड़ा लायेंगे। उन्हें आप अपना सेवक समझिये।
राम ने लक्ष्मण से कहा—मुझे तो यह आदमी हृदय से निष्कपट और सज्जन मालूम होता है। इसके साथ जाने में कोई हर्ज नहीं मालूम होता। कौन जाने, सुगरीव ही से हमारा काम निकले। चलो, तनिक सुगरीव से भी मिल लें।
दोनों भाई हनुमान के साथ पहाड़ पर पहुंचे। सुगरीव ने दौड़कर उनकी अभ्यर्थना की और लाकर अपने बराबर सिंहासन पर बैठाया। हनुमान ने कहा—आज बड़ा शुभ दिन है कि अयोध्या के धमार्त्मा राजा राम किष्किन्धापुरी के राजा सुगरीव के अतिथि हुए हैं। आज दोनों मिलकर इतने बलवान हो जायंगे कि कोई सामना न कर सकेगा। आपकी दशा एकसी है और आप दोनों को एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता है। राजा सुगरीव महारानी सीता की खोज करेंगे और महाराज रामचन्द्र बालि को मारकर सुगरीव को राजा बनायेंगे और रानी तारा को वापस दिला देंगे। इसलिए आप दोनों अग्नि को साक्षी बना कर परण कीजिये कि सदा एक दूसरे की सहायता करते रहेंगे, चाहे उसमें कितना ही संकट हो।
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Old 16-11-2012, 07:01 AM   #98
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आग जलायी गयी। राम और सुगरीव उसके सामने बैठे और एक दूसरे की सहायता करने का निश्चय और परण किया। फिर बात होने लगी। सुगरीव ने पूछा—आपको ज्ञात है कि सीताजी को कौन उठा ले गया? यदि उसका नाम ज्ञात हो जाय, तो सम्भवतः मैं सीताजी का सरलता से पता लगा सकूं।
राम ने कहा—यह तो जटायु से ज्ञात हो गया है, भाई ! वह लंका के राजा रावण की दुष्टता है। उसी ने हम लोगों को छलकर सीता को हर लिया और अपने रथ पर बिठाकर ले गया।
अब सुगरीव को उन आभूषणों की याद आयी, जो सीता जी ने रथ पर से नीचे फेंके थे। उसने उन आभूषणों को मंगवाकर रामचन्द्र के सामने रख दिया और बोला—आप इन आभूषणों को देखकर पहचानिये कि यह महारानी सीता के तो नहीं हैं? कुछ समय हुआ, एक दिन एक रथ इधर से जा रहा था। किसी स्त्री ने उस पर से यह गहने फेंक दिये थे। मुझे तो परतीत होता है, वह सीता जी ही थीं। रावण उन्हें लिये चला जाता था। जब कुछ वश न चला, तो उन्होंने यह आभूषण गिरा दिये कि शायद आप इधर आयें और हम लोग आपको उनका पता बता सकें।
आभूषणों को देखकर रामचन्द्र की आंखों से आंसू गिरने लगे। एक दिन वह था, कि यह गहने सीता जी के तन पर शोभा देते थे। आज यह इस परकार मारेमारे फिर रहे हैं। मारे दुःख के वह इन गहनों को देख न सके, मुंह फेरकर लक्ष्मण से कहा—भैया, तनिक देखो तो, यह तुम्हारी भाभी के आभूषण हैं। लक्ष्मण ने कहा—भाई साहब, इस गले के हार और हाथों के कंगन के विषय में तो मैं कुछ निवेदन नहीं कर सकता, क्योंकि मैंने कभी भाभी के चेहरे की ओर देखने का साहस नहीं किया। हां, पांव के बिछुए और पायजेब भाभी ही के हैं। मैं उनके चरणों को छूते समय परतिदिन इन चीजों को देखता रहा हूं। निस्संदेह यह चीजें देवी जी ही की हैं।
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Old 16-11-2012, 07:01 AM   #99
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सुगरीव बोला—तब तो इसमें संदेह नहीं की दक्षिण कि ओर ही सीता का पता लगेगा। आप जितने शीघर मुझे राज्य दिला दें, उतने ही शीघर मैं आदमियों को ऊपर भेजने का परबन्ध करुं। किन्तु यह समझ लीजिये कि बालि अत्यन्त बलवान पुरुष है और युद्ध के कौशल भी खूब जानता है। मुझे यह संष्तोा कैसे होगा कि आप उस पर विजय पा सकेंगे? वह एक बाण से तीन वृक्षों को एक ही साथ छेद डालता है।
पर्वत के नीचे सात वृक्ष एक ही पंक्ति में लगे हुए थे। रामचन्द्र ने बाण को धनुष पर लगाकर छोड़ा, तो वह सातों वृक्षों को पार करता हुआ फिर तरकश में आ गया। रामचन्द्र का यह कौशल देखकर सुगरीव को विश्वास हो गया कि यह बालि को मार सकेंगे। दूसरे दिन उसने हथियार साजे और बड़ी वीरता से बालि के सामने जाकर बोला— ओ अत्याचारी ! निकल आ ! आज मेरी और तेरी अन्तिम बार मुठभेड़ हो जाय। तूने मुझे अकरण ही राज्य से निकाल दिया है। आज तुझे उसका मजा चखाऊंगा।
बालि ने कई बार सुगरीव को पछाड़ दिया था। पर हर बार तारा के सिफारिश करने पर उसे छोड़ दिया था। यह ललकार सुनकर क्रोध से लाल हो गया और बोला—मालूम होता है, तेरा काल आ गया है। क्यों व्यर्थ अपनी जान का दुश्मन हुआ है? जा, चोरों की तरह पहाड़ों पर छिपकर बैठ। तेरे रक्त से क्या हाथ रंगूं।
तारा ने बालि को अकेले में बुलाकर कहा—मैंने सुना है कि सुगरीव ने अयोधया के राजा रामचन्द्र से मित्रता कर ली है। वह बड़े वीर हैं तुम उसका थोड़ाबहुत भाग देकर राजी कर लो। इस समय लड़ना उचित नहीं। किन्तु बालि अपने बल के अभिमान में अन्धा हो रहा था। बोला—सुगरीव एक नहीं, सौ राजाओं को अपनी सहायता के लिये बुला लाये, मैं लेशमात्र परवाह नहीं करता। जब मैंने रावण की कुछ हकीकत नहीं समझी, तो रामचन्द्र की क्या हस्ती है। मैंने समझा दिया है, किन्तु वह मुझे लड़ने पर विवश करेगा तो उसका दुर्भाग्य। अबकी मार ही डालूंगा। सदैव के लिए झगड़े का अन्त कर दूंगा।
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Old 16-11-2012, 07:01 AM   #100
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बालि जब बाहर आया तो देखा, सुगरीव अभी तक खड़ा ललकार रहा है। तब उससे सहन न हो सका। अपनी गदा उठा ली और सुगरीव पर झपटा। सुगरीव पीछे हटता हुआ बालि को उस स्थान तक लाया, जहां रामचन्द्र धनुष बाण लिये घात में बैठे थे। उसे आशा थी कि अब रामचन्द्र बाण छोड़कर बालि का अन्त कर देंगे। किन्तु जब कोई बाण न आया, और बालि उस पर वार करता ही गया, तब तो सुगरीव जान लेकर भागा और पर्वत की एक गुफा में छिप गया। बालि ने भागे हुए शत्रु का पीछा करना अपनी मयार्दा के विरुद्ध समझकर मूंछों पर ताव देते हुए घर का रास्ता लिया।
थोड़ी देर के पश्चात जब रामचन्द्र सुगरीव के पास आये, तो वह बिगड़कर बोला— वाह साहब वाह! आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। मुझसे तो कहा कि मैं पेड़ की आड़ से बालि को मार गिराऊंगा, और तीर के नाम एक तिनका भी न छोड़ा! जब आप बालि से इतना डरते थे, तो मुझे लड़ने के लिए भेजा ही क्यों था? मैं तो बड़े आनन्द से यहां छिपा बैठा था। मैं न जानता था कि आप वचन से इतना मुंह मोड़ने वाले हैं। भाग न आता, तो उसने आज मुझे मार ही डाला था।
राम ने लज्जित होकर कहा—सुगरीव, मैं अपने वचन को भूला न था और न बालि से डर ही रहा था। बात यह थी कि तुम दोनों भाई सूरतसकल में इतना मिलतेजुलते हो कि मैं दूर से पहचान ही न सका कि तुम कौन हो और कौन बालि। डरता था कि मारुं तो बालि को और तीर लग जाय तुम्हें। बस, इतनीसी बात थी। कल तुम एक माला गले में पहनकर फिर उससे लड़ो। इस परकार मैं तुम्हें पहचान जाऊंगा और एक बाण में बालि का अन्त कर दूंगा। दूसरे दिन सुगरीव ने फिर जाकर बालि को ललकारा—कल मैंने तुम्हें बड़ा भाई समझकर छोड़ दिया था, अन्यथा चाहता तो चटनी कर डालता। मुझे आशा थी कि तू मेरे इस व्यवहार से कुछ नरम होगा और मेरे आधे राज्य के साथ मेरी पत्नी को मुझे वापस कर देगा, किन्तु तूने मेरे व्यवहार का कुछ आदर न किया। इसलिए आज मैं फिर लड़ने आया हूं। आज फैसला ही करके छोडूंगा।
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