08-09-2014, 11:27 PM | #91 |
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
बैशाख महीने का शुरूआती दिन थे आज इस माह के सबसे अधिक गर्म दिन था और लोग बेचैनी से अपने घर के बाहर बैठ गर्मी से निवटने के लिए हाथ पंखा झल रहे थे। बीस रूपये में पांच रूपया बस भाड़ा के रूप में खर्च हो चुके थे। तभी मन में आया कि आज तक रीना को कोई उपहार नहीं दिया सो एक मनीहारी की दुकान में चला गया। क्या पता क्या उपहार हो, सो दुकानदार के इशारे पर ही ही बारह रूपये का हार खरीद लिया। मुझको तो यह बहुत ही खूबसूरत लग रहा है। पन्द्रह में से बारह मैंने खर्च कर दिये। मेरे लिए यह अनमोल है पता नही उसके लिए इसका क्या महत्व होगा। >>>
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
08-09-2014, 11:28 PM | #92 |
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
पैदल ही चल दिया। एक दो धंटे का रास्ता हे, ऐसा लोगों ने बता दिया था। सूदूर गांव होने की वजह से वहां गाड़ी जाती है पर एक-आध। सुबह गांव से लोगों को लेकर एक जीप बाजार आती है और शाम को वह गांव लौटती है। सो इससे अच्छा तो पैदल ही रहेगा। दस या ग्यारह बज रहे होंगे। सूरज देवत का क्रोध गर्मी के रूप में घरती पर प्रकट हो रही थी। लग रहा था जैसे वे सब कुछ भष्म करना चाह रहे हो, घोर कलयुग जो है।
रास्ता भी पथरीला था। यह पूरा इलाका पहाड़ी है। एक तरफ दूर तक फैला हुआ पहाड़ दिखता तो दूसरी ओर मैदन। खेत। कुछ दूर जाने के बाद ही एहसास होने लगा की मेरा जाने का फैसला गलत है। कारण यह कि रास्ते में एक भी आदमी कहीं नजर नहीं आया और एक आध गांव जो मिले उसमें भी कोई बाहर नहीं था। खैर, दिवानापन जो न कराये। चला जा रहा था। इस बीच दो गांव पार कर चूका था। गर्मी के मारे बुरा हाल था। जोर से प्यास लगी थी पर कहीं चापाकल या कुंआ नजर नहीं आया और संकोच से किसी घर में जाकर पानी पीने का साहस न कर सका। जाने की सोंचता तो मन कहता पता नहीं क्या क्या सवाल करेगें। कहां से आए हो, कहां जाना है। गांव में अभी महानगरों की कुप्रवृति नहीं आई है और जब भी कोई अनजान चेहरा दिखता तो लोग पूछ ही लेते है। >>>
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08-09-2014, 11:29 PM | #93 |
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
कहां जइभो बउआ। कहां घर हो। बगैरह बगैरह। खैर गर्मी और थकान से शरीर बेहाल हो गया और अब कहीं सुस्ताना चाहता था पर रास्ते में कहीं पीने का पानी तक नहीं। खैर अगले गांव के मुहाने पर ही एक कुंआ दिख गया। महिलाऐं पानी भर रही थी। मैं साहस करके पानी पीने के लिए चला गया।
तनी पानी पितिए हल। हां बैउआ, ला पिओ। कह कर एक महिला बाल्टी से पानी उड़ेलने लगी और मैं दोनो हथेली को जोड़कर चुड़ुआ बनाया और बाल्टी के नीचे मूंह लगा दिया। भर अछाह पानी पिया और फिर चल दिया। गांव से निकलने ही वाला था कि एक बूढ़ा व्यक्ति दिख गए। कहां जाना है बउआ। जी बाबा, कुरौनी, केतना दूर है। बस अगला गांव उहे हो। राहत हुई। थोड़ी दूर बढ़ा ही था कि टन्न.............. लगा की शरीर में एक करंट सा दौड़ गया। ‘‘माय गे’’ दर्द से चिल्लाते हुए मैं वहीं गिर पड़ा। किसी चीज ने काट लिया । तभी देखा की एक लाल रंग की बिरनी उड़ी। ओह तो इसी ने अपनी करामत दिखाई। दर्द से बेहाल था। बिरनी ने पैर में ही डंक मारा था और जलन से हाल बेहाल हो गया। ओह भोला, क्या यह परीक्षा है। मन ही मन यह सवाल ही पहली बार उठा। पर उस विरान और पराई सी जगह में रोता भी तो क्या होता? फिर भी आंख से आंसू निकल रहे थे। चलो वापस चले। पर कहां, इस दिवानेपन के दर्द से ज्यादा तकलीफदेह बिरनी का दर्द नहीं हो सकता। चल पड़ा मंज़िल की ओर। >>>
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08-09-2014, 11:35 PM | #94 |
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
जिंदगी की नाव जब मझधार में फंसती है तो नावीक को पतबार का ही सहारा होता है और पतबार की एक एक धाप उसे मंजिल के करीब ले जाती है। मैं भी चला जा रहा था अपनी मंजील की ओर। दर्द को दबाए हुए। किसी तरह मैं गांव पहूंच गया। फिर किसी तरह रीना का घर पूछते पूछते मैं वहां पहूंचा। आवाज देने के बाद एक बुढ़ी महिला निकली और पूछने लगी।
‘‘की बात है बउआ, केकरा खोजो हो।’’ ‘‘कुछ बात नै है ममा, बस रास्ता भुला गेलिऐ हे] सोंचलिए कोई चिन्हल मिल जाए। रीनमा के नानी घर इहे है।’’ ‘‘हां बउआ। पहचानो हो।’’ हां मामा, पहचानबे करो हिओ। हमरे गांव के है।’’ ‘‘अगे रीनमा............... जोर से आवाज लगाई। इतनी देर में देखा की उसके घर में खुसुरू-फुसुरू शुरू हो गई और हलचल भी बढ़ गई। पर रीना इंतजार हो, तुरंत दौड़ी आई जैसे उसे मेरे आने का उसके चेहरे पर खुशी की परछाई क्षणभर के लिए बैशाख के बादलों की तरह आई और चली गई। ‘‘पहचानों ही रीना।’’ नानी ने पूछा। ‘‘हां नानी, गांव के ही है।’’ ‘‘की नाम है हो।’’ ‘‘प्रमोद।’’ उसने मेरा गलत नाम बताया जिसका कारण मैं तत्काल समझ गया। इतना कहते के साथ ही उसने हाथ जोड़ लिया और उदास चेहरे के साथ मुझे यहां से चले जाने का इशारा करने लगी। ‘‘ यहां कहां अइलहीं हें, पगला गेलहीं हें की। तोरा नै पता हौ की रीनमा की चीज है। घरती इ पटी से उ पटी हो जइतै पर रीनमा नै बदलतै।’’बात चीत के हल्के से फासले के बीच में ही उसने हौले से अपने हौसले का फरमान सुना दिया। साथ ही यहां से चले जाने की बात भी कही। >>>
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11-09-2014, 10:28 PM | #95 |
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
तभी दो-तीन लोग वहां आ धमके। उनके चेहरे के भाव बता रहे थे की हालात कुछ ठीक नहीं हैं।
‘‘की बात है। के है रीना।’’ ‘‘कुछ नै मामू गांव के आदमी है, प्रमोदबा। बगल के गांब जा रहलै हल तब इधर आ गेलै।’’ ‘‘ठीक है तों जो अंदर। उन्होनों कुछ कड़े शब्दों में यह आदेश दिया और रीना चली गई। ‘‘कहां जाहीं हो।’’ ‘‘बगल के गांव।’’ ‘‘काहे ले।’’ ‘‘फुआ है।’’ ‘‘यहां काहे ले अइलहीं।’’ मैं थोड़ी देर के लिए चुप रह गया। मेरे पास यहां आने का कोई ठोस कारण नहीं था। फिर क्या था। एक आदमी में झट से मेरा कालर पकड़ लिया और एक झापड़ रख दिया। चटाक। ‘‘साला बाबा बनों हीं, हमरा पता है कि तों कहां अइलहीं हें। बब्लूआ नाम हौ न तोर।’’ ‘‘अरे अरे ई की करो हो।’’ नानी ने तुरंत उसे रोकते हुए कहा और उसने मुझे छोड़ दिया। सभी मुझे गुस्से से देख रहे थे। मैं दृढ़ता से अपना नाम बब्लु नहीं होने पर अड़ गया। फिर भी तीनों ने मुझे तुरंत वहां से चले जाने को कहा और साथ ही यह भी कहा कि यदि बब्लु होने का पहचान हो गयी तो तुम्हारी लाश ही यहां से जाएगी। उधर देखा की एक खिड़की से रीना हाथ जोड़ कर मुझे यहां से चले जाने का ईशारा कर रही है और कुछ क्षण के बाद वह प्रकट होकर विरोध भी दर्ज कराने लगी। >>>
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11-09-2014, 10:33 PM | #96 |
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
‘‘काहो मामू काहे मारो हो। ई बब्लुआ नै है नाम गेन्हैबहो की अपन।’’
‘‘तों चुप रह।’’ ‘‘चुप काहे रहबै, गांव में केतना बदनामी होतई।’’ उसके तीखे तेबर के बाद लोग थोड़ा सहमें और मैं वहां से ससर गया। मैं समझ गया कि यहां तक मेरे प्रेम अगन की लौ पहूंच चुकी है। मैं वहां से निकल गया पर गांव के बाहर जैसे ही पहूंचा की देखा वही लोग रास्ते में आगे खड़े है। मैं चुपचाप चला जा रहा था। ‘‘अरे अरे रूक साला।’’ इतना कहते ही एक ने मुझे पकड़ लिया और लात मुक्के से सभी चालू हो गए। मैं बस अरे-अरे की करो हो, की करो हो, कहता रह गया। कुछ देर के बाद वे रूके और फिर से मेरे नाम का सत्यापन करने लगे। पर मैं अड़ गया। नहीं मेरा नाम बब्लु नहीं है। तभी एक ने कहा ‘‘चल हो एकरा नदिया में काट के फेंक दिए।’’ ‘‘हे भोला।’’ जीवन का अन्त नजर आने लगा। दर्द से बेहाल मैंने साहस से काम लिया और बोला- ‘‘तों जे समझ के मार रहलो है उ हम नै हीए। बब्लुआ हमर नाम नै है बब्लुआ तो पटना में है, छोबो महिना से और हमरा तों मार रहलो हैं।’’ ‘‘बाबा बनों हो साला, पता है हमरा तों ही बब्लुआ हीं, पटना से आवे में केतना देर लगो है। औ तों यहां कहां आइलहीं हल बताउ नै तो आज तोर अंत लिखल हो।’’ >>>
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11-09-2014, 10:36 PM | #97 |
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
एक नैजवान युवक के चेहरे पर काफी गुस्सा था तभी एक आदमी ने अपने गमछी से मेरा हाथ बांध दिया।
‘‘बाबुजी आ रहलखुन हें उ तोरा पहचानों हखुन, तोर कुल गरमिया ठंढा हो जइतउ।’’ देखा की तीन चार लोग लाठी भाल लेकर चले आ रहे है मेरी तरफ। पता नहीं क्यों इस समय जबकि मेरी मौत मेरे सामने दिख रही थी मुझे डर नहीं लग रहा था। एक अजीब सा शकून और साहस था अंदर कहीं। जो होना हो सो हो। कोई जैसे कह रहा हो, प्रेम को पाने के लिए जान को दांव पर लगाना ही पड़ता है और जान भी चली गई तो क्या? लैला-मजनूं की तरह नाम तो होगा ही। एक अजीब सी कशिश, एक अजीब सा पागलपन जहां मौत भी डरा न सकी हो। शायद इसी को प्यार कहते है या पागलपन...... जिंदगी कभी स्याह फूलों की तरह सामने आती है और आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा था। दूर, दूसरे गांव में आज पिट रहा था और सामने मौत नजर आ रही थी। खैर, जब दो तीन अन्य लोग सामने आए तो उसमे एक ने सीधा कहा - ‘‘छोड़ दहीं हो, बाबूजी बजार गेल हखीन, आज नै लौटथिन।’’ मेरी जान में जान आई। और मुझे छोड़ दिया गया। दिन भर थका देने वाली यात्रा, बिरनी काटने का दर्द और प्रेमिका के परिजनों से हुई पिटाई, कुल मिलाकर मेरी हालत उस आवारा कुत्ते की तरह हो गई थी जिसे गांव के बच्चों ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा हो। >>>
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13-09-2014, 09:27 PM | #98 |
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
वहां से निकलते निकलते अंधेरा हो गया था पर मैं चला जा रहा था। रास्ते से गुजरते हुए मिलने वाली दूसरी गांव में एक घर के पास जा कर रूका और पीने के लिए पानी मांगी। सहज ही पानी मिल गई और फिर सवालों की गांव सुलभ सहज प्रवृति की वजह से जबाब भी देना पड़ा। कहां घर हो, कहां जाना हो आदि। वहां से निकलकर चलते चलते आखिर कर शहर की रौशनी दिख गई। जान में जान आई। रात बहुत अधिक हो चुकी थी और इसका अंदाजा सुनसान रास्तों से अथवा जगह जगह भौंकने वाले कुत्तों की झुन्ड से लग जाता। रात अधिक हो चुकी थी और घर वापस जाना संभव नहीं था सो रेलवे स्टेशन पर चला गया और मच्छरों को मारते भगाते रात गुजार दी।
बरबीघा-बरबीघा जीप वालों की आवाज सुन सुबह-सुबह ही आंख लगी थी और वह भी खुल गई। अभी अंधेरा ही था पर जाने के लिए जीप तैयार थी, मैं भी उसमें जाकर बैठ गया। बैठने से पहले मेरे पास तीन-चार रूपये ही है इसकी जानकारी मैंने चालक को दे दी थी और सुबह-सुबह कम भाड़ा मिलने से वह थोड़ अनमना ढंग से पेश भी आया पर चेहरा पहचाना हुआ था दोनों का। वह भी मुझे चेहरे से पहचाना था और मैं भी। चला आया घर।। कई सवाल-कहां गेलहीं हल। कहां हलहीं। पर इस घटना में मुझे गहरा झकझोर दिया था। मुझे लगा की अब निर्णय करना ही होगा। रीना को पाना है या छोड़ना। जिंदगी आसान नहीं होती और कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ेगा। मेरे पास खोने के लिए कुछ था तो वह था मेरा अपना भविष्य, मेरा सपना। इसी द्वंद में डूबा गुमसुम रहने लगा। बेचैन। >>>
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13-09-2014, 09:28 PM | #99 |
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
शाम का समय था और मैं अकेले ही कॉलेज की तरफ टहलने के लिए निकल गया था और जब लौटा तो देखा की रीना के घर के आगे भीड़ लगी हुई हैं। मींया साहब भरो हखीन, मींया साहब। रीना की भाभी को मींया साहब भरते थे। मींया साहब, मुसलमान भूत। उत्सुकता बस मैं भी देखने लगा। गब्बे बली के बाल सिनेमाई आंदाज में चेहरे के आगे बिखरे हुए थे और रह रह और वह उसे नचा देती।
ही ही ही................गुडुम... हिस्स.........। अजीब अजीब तरह के आवाज निकालती। कोई उसके चेहरे पर पानी देता तो कोई उसके द्वारा की गई फरमाईस को पूरा करता। गांव में मींया साहब भरने का मतलब है सबसे शक्तिशाली भूत जो किसी का कुछ बिगारता नहीं था बल्कि मनोकामना पूरा करता था। लोग उसकी पूजा अर्चना में लग गए। जिसको जो समझ में आया, उसी तरीके से। हुक्का लाओ हुक्का.... भूत ने फरमाईस की और लोग दौड़ गए, हुक्का जिसे गुड़गुड़ीया भी कहते लाने के लिए। यह तंबाकू पीने का एक ग्रामीण तरीका था। नीचे एक छोटी से टंकी में पानी होती और एक पाइप के सहारे उपर जल रही आग पर तंबाकू। मुस्लमान है देखों हो हुक्का के जादे शौकीन उहे होबो है। >>>
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13-09-2014, 09:29 PM | #100 |
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Re: एक लम्बी प्रेम कहानी
तभी अचानक जो हुआ वह चौंकाने वाला था। मेहमान, मेहमान कहकर वह चिल्लाने लगी वह भी मुझे देखकर। मैं डर गया।
‘‘मेहमान, हमर मेहमान’’ कहकर वह अचानक उठी और मेरी ओर बढ़कर मेरा कलाई पकड़ लिया। तभी लोग दौडे और उसके कब्जे से मेरा हाथ छुड़ाया, मैं वहां से भाग खड़ा हुआ। मेहमान गांव में दामाद को कहते है और उसने इसी हैसियत से मेरी कलाई पकड़ ली थी। गब्बेबली को भक्तीनी की संज्ञा दे दी गई थी और लोग बाद में भी उससे अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए आया करते। पर आज अचानक उसके मुंह से निकले मेहमान शब्द ने गांव में हंगामा मचा दिया। इसका अंदाजा मुझे तब हुआ जब शाम की बैठकी में चर्चा का विषय मैं ही था। मैं वहीं से गुजर रहा था कि आवाज आई। ‘‘अब, जब मिंया साहब कह देलखिन तो केकरो रोकला से रूकतै।’’ ‘‘बोलो तो, बैसे तो उ हमेशा एकर विरोध में रहो है पर आज अचानक मेहमान कहे लगलै।’’ ‘‘ हां हो, पर अर्जून दा मानथींन तब तो, वहां तो नौकरी के धमड़ है और बब्लुआ निधुरीया।’’ (निधुरिया-जिसके पास जमीन नहीं हो।) ‘‘हां हो तब तो गरीब के दुनिया में बास करे के हक नै है। फेर सुराज दा बाला भी खेता सब ऐकरे होतै और पढ़े मे मन लगैबे करो है, ऐकर पर ध्यान दे देथिन त की होतई।’’ >>>
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