02-04-2011, 10:41 AM | #91 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
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02-04-2011, 10:42 AM | #92 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
वनवास के बारहवें वर्ष के पूरे होने पर पाण्डवों ने अब अपने अज्ञातवास के लिये मत्स्य देश के राजा विराट के यहाँ रहने की योजना बनाई। उन्होंने अपना वेश बदला और मत्स्य देश की ओर निकल पड़े। मार्ग के एक भयानक वन के भीतर के एक श्मशान में उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को छुपा कर रख दिया और उनके ऊपर मनुष्यों के मृत शवों तथा हड्डियों को रख दिया जिससे कि भय के कारण कोई वहाँ न आ पाये। उन्होंने अपने छद्*म नाम भी रख लिये – जो थे जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्वल। किन्तु ये नाम केवल मार्ग के लिये थे, मत्स्य देश में वे इन नामों को बदल कर दूसरे नाम रखने वाले थे। राजा विराट के दरबार में पहुँच कर युधिष्ठिर ने कहा, “हे राजन्! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम कंक है। मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ। आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।” विराट बोले, “कंक! तुम दर्शनीय पुरुष प्रतीत होते हो, मैं तुम्हें पाकर प्रसन्न हूँ। अतएव तुम सम्मान पूर्वक यहाँ रहो।”
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02-04-2011, 10:42 AM | #93 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
वनवास के बारहवें वर्ष के पूरे होने पर पाण्डवों ने अब अपने अज्ञातवास के लिये मत्स्य देश के राजा विराट के यहाँ रहने की योजना बनाई। उन्होंने अपना वेश बदला और मत्स्य देश की ओर निकल पड़े। मार्ग के एक भयानक वन के भीतर के एक श्मशान में उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को छुपा कर रख दिया और उनके ऊपर मनुष्यों के मृत शवों तथा हड्डियों को रख दिया जिससे कि भय के कारण कोई वहाँ न आ पाये। उन्होंने अपने छद्*म नाम भी रख लिये – जो थे जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्वल। किन्तु ये नाम केवल मार्ग के लिये थे, मत्स्य देश में वे इन नामों को बदल कर दूसरे नाम रखने वाले थे। राजा विराट के दरबार में पहुँच कर युधिष्ठिर ने कहा, “हे राजन्! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम कंक है। मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ। आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।” विराट बोले, “कंक! तुम दर्शनीय पुरुष प्रतीत होते हो, मैं तुम्हें पाकर प्रसन्न हूँ। अतएव तुम सम्मान पूर्वक यहाँ रहो।”
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02-04-2011, 10:42 AM | #94 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
सके बाद शेष पाण्डव राजा विराट के दरबार में पहुँचे और बोले, “हे राजाधिराज! हम सब पहले राजा युधिष्ठिर के सेवक थे। पाण्डवों के वनवास हो जाने पर हम आपके दरबार में सेवा के लिये उपस्थित हुये हैं। राजा विराट के द्वारा परिचय पूछने पर सर्वप्रथम हाथ में करछी-कढ़ाई लिये हुये भीमसेन बोले, “महाराज! आपका कल्याण हो। मेरा नाम बल्लभ है। मैं रसोई बनाने का कार्य उत्तम प्रकार से जानता हूँ। मैं महाराज युधिष्ठिर का रसोइया था।” सहदेव ने कहा, “महाराज! मेरा नाम तन्तिपाल है, मैं गाय-बछड़ों के नस्ल पहचानने में निपुण हूँ और मैं महाराज युधिष्ठिर के गौशाला की देखभाल किया करता था।” नकुल बोले, “हे मत्स्याधिपति! मेरा नाम ग्रान्थिक है, मैं अश्*व विद्या में निपुण हूँ। राजा युधिष्ठिर के यहाँ मेरा काम उनके अश्*वशाला की देखभाल करना था।” महाराज विराट ने उन सभी को अपनी सेवा में रख लिया।
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02-04-2011, 10:43 AM | #95 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
अन्त में उर्वशी के द्वारा दिये गये शापवश नपुंसक बने, हाथीदांत की चूड़ियाँ पहने तथा सिर पर चोटी गूँथे हुये अर्जुन बोले, “हे मत्स्यराज! मेरा नाम वृहन्नला है, मैं नृत्य-संगीत विद्या में निपुण हूँ। चूँकि मैं नपुंसक हूँ इसलिये महाराज युधिष्ठिर ने मुझे अपने अन्तःपुर की कन्यायों को नृत्य और संगीत सिखाने के लिये नियुक्*त किया था।” वृहन्नला के नृत्य-संगीत के प्रदर्शन पर मुग्ध होकर, उसकी नपुंसकता की जाँच करवाने के पश्*चात्, महाराज विराट ने उसे अपनी पुत्री उत्तरा की नृत्य-संगीत के शिक्षा के लिये नियुक्*त कर लिया। इधर द्रौपदी राजा विराट की पत्*नी सुदेष्णा के पास जाकर बोलीं, “महारानी! मेरा नाम सैरन्ध्री है। मैं पहले धर्मराज युधिष्ठिर की महारानी द्रौपदी की दासी का कार्य करती थी किन्तु उनके वनवास चले जाने के कारण मैं कार्यमुक्*त हो गई हूँ। अब आपकी सेवा की कामना लेकर आपके पास आई हूँ।” सैरन्ध्री के रूप, गुण तथा सौन्दर्य से प्रभावित होकर महारानी सुदेष्णा ने उसे अपनी मुख्य दासी के रूप में नियुक्*त कर लिया।इस प्रकार पाण्डवों ने मत्स्य देश के महाराज विराट की सेवा में नियुक्*त होकर अपने अज्ञातवास का आरम्भ किया।
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02-04-2011, 10:43 AM | #96 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
पाण्डवों की तीर्थयात्रा
दुःखी होकर उन्हीं के विषय में बातें कर रहे थे कि वहाँ पर लोमश ऋषि पधारे। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनका यथोचित आदर-सत्कार करके उच्चासन प्रदान किया। लोमश ऋषि बोले, “हे पाण्डवगण! आप लोग अर्जुन की चिन्ता छोड़ दीजिये। मैं अभी देवराज इन्द्र की नगरी अमरावती से आ रहा हूँ। अर्जुन वहाँ पर सुखपूर्वक निवास कर रहे हैं। उन्होंने भगवान शिव एवं अन्य देवताओं की कृपा से दिव्य तथा अलौकिक अस्त्र-शस्त्र तथा चित्रसेन से नृत्य-संगीत कला की शिक्षा भी प्राप्त कर लिया है। वे अब निवात और कवच नामक असुरों का वध करके ही यहाँ आयेंगे। देवराज इन्द्र ने आपके लिये यह संदेश भेजा है कि आप पाण्डवगण अब तीर्थयात्रा करके अपने आत्मबल में वृद्धि करें।
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02-04-2011, 10:43 AM | #97 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
देवराज इन्द्र के दिये गये संदेश के अनुसार युधिष्ठिर अपने भाइयों, पुरोहित धौम्य, लोमश ऋषि आदि को साथ ले कर तीर्थयात्रा के लिये चल पड़े। वे लोग नैमिषारण्य, कन्या-तीर्थ, अश्व-तीर्थ, गौ-तीर्थ आदि में दर्शन-स्नानादि करते हुये अगस्त्य ऋषि के आश्रम आ पहुँचे। लोमश ऋषि ने उस आश्रम की प्रशंसा करते हुये बताया, “हे धर्मराज! यह अगस्त्य मुनि एवं उनकी धर्मात्मा पत्नी लोपामुद्रा की पवित्र तपस्थली है। एक बार अगस्त्य मुनि यहाँ घूमते हुये पहुँचे तो उन्होंने एक गड्ढे में अपने पूर्वजों को उल्टे लटकते देखा। अगस्त्य मुनि के द्वारा उनके इस प्रकार से लटकने का कारण पूछने पर पूर्वजों ने बताया कि हे पुत्र! तुम्हारे निःसंतान होने के कारण हमें यह नरक कुण्ड मिला है। इसलिये शीघ्र अपना विवाह कर पुत्र उत्पन्न करो, जिससे हमारा उद्धार हो।
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02-04-2011, 10:44 AM | #98 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
देवराज इन्द्र के दिये गये संदेश के अनुसार युधिष्ठिर अपने भाइयों, पुरोहित धौम्य, लोमश ऋषि आदि को साथ ले कर तीर्थयात्रा के लिये चल पड़े। वे लोग नैमिषारण्य, कन्या-तीर्थ, अश्व-तीर्थ, गौ-तीर्थ आदि में दर्शन-स्नानादि करते हुये अगस्त्य ऋषि के आश्रम आ पहुँचे। लोमश ऋषि ने उस आश्रम की प्रशंसा करते हुये बताया, “हे धर्मराज! यह अगस्त्य मुनि एवं उनकी धर्मात्मा पत्नी लोपामुद्रा की पवित्र तपस्थली है। एक बार अगस्त्य मुनि यहाँ घूमते हुये पहुँचे तो उन्होंने एक गड्ढे में अपने पूर्वजों को उल्टे लटकते देखा। अगस्त्य मुनि के द्वारा उनके इस प्रकार से लटकने का कारण पूछने पर पूर्वजों ने बताया कि हे पुत्र! तुम्हारे निःसंतान होने के कारण हमें यह नरक कुण्ड मिला है। इसलिये शीघ्र अपना विवाह कर पुत्र उत्पन्न करो, जिससे हमारा उद्धार हो।
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02-04-2011, 10:44 AM | #99 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
पितृगणों की बात से दुःखी होकर अगस्त्य एक सुयोग्य पत्नी की खोज में निकले और विदर्भ देश की राजकुमारी लोपामुद्रा से विवाह कर लिया। जब अगस्त्य मुनि ने लोपामुद्रा के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर पुत्रोत्पत्ति की अभिलाषा से उसे अपने पास आने के लिये कहा तो लोपामुद्रा बोली कि हे स्वामी! मैं राजकुमारी हूँ इसलिये आपका मेरे साथ समागम भी राजोचित ढंग से होना चाहिये। पहले आप धन की व्यवस्था कर के मेरे और स्वयं के लिये सुन्दर वस्त्र तथा स्वर्णाभूषण ले कर आइये। अपनी पत्नी की वाणी से प्रभावित होकर अगस्त्य मुनि धन माँगने के लिये राजा श्रुतर्वा, व्रघ्नश्व तथा इक्ष्वाकु वंशी त्रसदृस्यु के पास गये किन्तु सभी राजाओं का कोष खाली होने के कारण उन राजाओं क्षमाप्रार्थना करते हुये ने अगस्त्य मुनि को धन देने में असमर्थता प्रकट कर दिया। निराश होकर अगस्त्य मुनि इल्वल नामक दैत्य के पास पहुँचे। इल्वल दैत्य ने प्रसन्नता के सा उन्हें मुँहमाँगा धन प्रदान कर दिया। धन प्राप्त करके अगस्त्य मुनि ने अपनी पत्नी की इच्छापूर्ति की और दृढस्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया। कालान्तर में यह तीर्थस्थान अगस्त्याश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी तीर्थस्थान में स्नान करके परशुराम ने अपना तेज पुनः प्राप्त किया था। इसलिये हे युधिष्ठिर! यहाँ स्नान करके आप दुर्योधन के द्वारा छीने गये अपने तेज को पुनः प्राप्त कीजिये।”
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02-04-2011, 10:45 AM | #100 |
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Re: !! महाभारत कथा !!
लोमश ऋषि के आदेशानुसार वहाँ स्नान-पूजा आदि करके युधिष्ठिर ने लोमश ऋषि से पूछा, “हे प्रभो! कृपा करके यह बताइये कि परशुराम निस्तेज कैसे हुये थे?” लोमश ऋषि ने उत्तर दिया, “धर्मराज! दशरथनन्दन श्री राम जब शिव जी के धनुष को तोड़कर सीता जी से विवाह कर अपने पिता, भाइयों, बारातीगण आदि के साथ अयोध्या लौट रहे थे तो एक बड़े जोरों की आँधी आई जिससे वृक्ष पृथ्वी पर गिरने लगे।
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