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Old 01-12-2012, 04:39 PM   #1001
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जब अपने आपको देखोगे तब संशय मिट जावेंगे | जैसे जब प्रलयकाल का जल चढ़ता है तब सर्व जलमय हो जाता है-कुछ भिन्न नहीं होता, तैसे ही अपने स्वरूप को जब तुम देखोगे तब तुमको सब आत्मा ही भासेगा-आत्मा से भिन्न कुछ न दृष्ट आवेगा | हे रामजी! आत्मा एक रस है, सम्यक््दर्शन से ज्यों का त्यों भासेगा और असम्यक् दर्शन से और का और भासेगा | जैसे रस्सी को यथार्थ न देखिये तो सर्पभ्रम होता है और भयवान् होता है और जब ज्यों की त्यों रस्सी जानी तब सर्पभ्रम निवृत्त हो जाता है तैसे ही आत्मा के न जाने से जीव संसारी होता है, भयभीत होता है, आपको जन्मता मरता मानता है और सर्वविकार देह के आत्मा में जानता है पर आत्मा को जानता है तब सब भ्रम निवृत्त हो जाते हैं |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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Old 01-12-2012, 04:39 PM   #1002
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जैसे नेत्रों से तारे दीखते हैं और जब नेत्र मूँद लो तो उनका आकार अन्तः करण में भासता है, क्योंकि उनकी सत्यता हृदय में होती है-पर जब हृदय से उनकी सत्यता उठ जाती है तब फिर नहीं भासते, तैसे ही चित्त के भ्रम से संसार हुआ है उसको मिथ्या जानो | हे रामजी! फुरने में जो दृढ़भावना हुई है जो ही सत्य होकर मिथ्या संसार हुआ है, जब चित्त का त्याग करोगे तब संसार की सत्यता जाती रहेगी |
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Old 01-12-2012, 04:39 PM   #1003
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रामजी बोले हे भगवन् आपने जो कहा कि यह विश्व कल्पनामात्र है सो मैंने जाना कि इसी प्रकार-कुछ सत्य नहीं जैसे राजा लवण, इन्द्र ब्राह्मण के पुत्र और शुक्र की कलना जब फुरने से दृढ़ हुई तब उन्हें फुरनरूप विश्व सत्य होकर स्थित हुआ और भासने लगा | हे भगवन्! यह मैं जानता हूँ कि विश्व फुरनेमात्र है पर जब फुरना मिट जाता है तो उसके पीछे जो शान्ति रूप शेष रहता है सो कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अब तुम सम्यक् बोधवान् हुए हो और जो जानने योग्य है वह तुमने जाना है | हे रामजी! अध्यात्म शास्त्र का यह सिद्धान्त है कि और सब दृश्य असंभव है एक चिद्घन ब्रह्म अपने आपमें स्थित है | हे रामजी! आत्मा शुद्ध, निर्मल और विद्या, अविद्या से रहित हैं और संसार का उसमें अत्यन्त अभाव है जो कुछ शब्द आदिक संज्ञा हैं वे भी फुरने में हैं आत्मा तो निर्वाच्यपद है उसकी समझा इतनी शास्त्रकारों ने कही हैं |
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Old 01-12-2012, 04:40 PM   #1004
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शून्यवादी तो उसी को शून्य कहते हैं, विज्ञानवादी विज्ञानरूप कहते हैं, उपासनेवाले उसी को ईश्वर कहते हैं, कोई कहते हैं आत्मा सर्व का कारण है वही शेष रहता है, कोई आत्मा को सर्व शक्त कहते हैं कोई कहते हैं कि आत्मा निःशक्त है और कोई साक्षी आत्मा और शक्ति को भिन्न मानते हैं | हे रामजी! जितने वाद हैं सो सर्व ही कलना से हुए हैं और कलना को मानकर सब वाद उठाते है, वास्तव में कोई वाद नहीं आत्मा निर्वाच्यपद है | मेरा जो सिद्धान्त है वह भी सुनो | आत्मा सर्वकलना से अतीत है |
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Old 01-12-2012, 04:40 PM   #1005
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जैसे पवन स्पन्द शक्ति से फुरता है और निस्पन्द से ठहर जाता है, क्योंकि स्पन्द भी पवन है और निस्पन्द भी पवन है इतर कुछ नहीं, तैसे ही आत्मा शुद्ध अद्वैतरूप है और कलना भी आत्मा के आश्रय फुरती है आत्मा से भिन्न नहीं | और जो भिन्न प्रतीत होती है उसको मिथ्या जानकर और अपने निर्विकार स्वरूप में स्थित रहो | जब तुम आत्मस्वरूप में स्थित होगे तब जितने शास्त्रों के भिन्न भिन्न मतवाद हैं सो कोई न रहेंगे केवल अपना आप स्वच्छ आत्मा ही भासेगा | हे रामजी! उस निर्विकल्पपद को पाकर तुम शान्तिमान् हुए हो और असत् की नाईं स्थित हुए हो, क्योंकि द्वैतकलना नहीं फुरती |
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हे रामजी! आत्मा, ब्रह्मआदिक शब्द भी उपदेश निमित्त कहे हैं पर आत्मा शब्द से अतीत हैं और सर्व जगत् आत्मस्वरूप है और संसाररूप विकार आत्मा में असम्यक् दर्शन से भासते हैं जैसे शून्य आकाश में तरुवरे मोतीवत् भासते हैं सो अविदित हैं तैसे ही आत्मा में जगत् द्वैत अविदित भासता है | इससे जगत् द्वैत की वासना त्यागकर निर्विकल्प आत्मस्वरूप में स्थित रहो |
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रामजी ने पूछा, हे भगवन्! देह, इन्द्रियाँ और कलना में सार वस्तु क्या है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो कुछ यह अहं त्वं आदि जगत् दृश्य है सो सब चिन्मात्र है | जैसे समुद्र जल ही मात्र है तैसे ही जगत् है | मनसहित षट् इन्द्रियों से जो कुछ दृश्य भासता है सो भ्रममात्र है | हे रामजी! देह, इन्द्रियाँ आदि सब मिथ्या हैं, आत्मा में कोई नहीं चित्त के कल्पे हुए हैं और चित्त ही इनको देखता है | जैसे मरुस्थल में मृग को जलबुद्धि होती है तो जल के निमित्त दौड़कर दुःख पाता है, तैसे ही चित्तरूपी मृग आत्मरूपी मरुस्थल में देह इन्द्रियाँ विषयरूपी जल कल्पकर दौड़ता है और दुःख पाता है सो देह इन्द्रियाँ भ्रम करके भासते हैं |
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जैसे मूर्ख बालक परछाहीं में वैताल कल्पता है तैसे ही मूर्ख चित्त ने देह इन्द्रियादिक कल्पना की हैं | हे रामजी! आत्मा शुद्ध निर्विकार है उसमें चित्त ने भ्रम से विकार आरोपण किये हैं | जैसे भ्रान्ति दृष्टि से आकाश में दो चन्द्रमा भासते हैं , तैसे ही चित्त ने देह इन्द्रियाँ कल्पी हैं पर चित्त भी कुछ सत्य नहीं, आत्मा की सत्ता लेकर चेष्टा करता है | जैसे चुम्बक की सत्ता लेकर लोहा चेष्टा करता है तैसे ही निर्विकार आत्मा की सत्ता लेकर चित्त नाना प्रकारके विकार कल्पता है | इससे चित्त का त्याग करो जिससे तुम्हारा विकारजाल मिट जावे |
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हे रामजी देह इन्द्रियों में सार क्या है सो सुनो | कुछ संसार है उसका सार देह है, क्योंकि सब देह के सम्बन्धी है | जब देह मिट जाता है तब सम्बन्धी भी नहीं रहते | देह का सार इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों का सार प्राण हैं, प्राणों का सार मन है और मन का सार वृद्धि है | बुद्धि का सार अहंकार है, अहंकार का सार जीव है, जीव का सार चिदावली है-चिदावली वासना संयुक्त चेतना को कहते हैं-और चिदावली का सार चित्त से रहित शुद्ध चैतन्य है जिसमें सर्व विकल्प की लय है और जो शुद्ध निर्मल और चिन्मात्र ब्रह्म आत्मा है उसमें कोई उत्थान नहीं |
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हे रामजी! चिदावली पर्यन्त सबको त्यागकर इनका जो सार चैतन्य आत्मा है उसमें स्थित हो | विश्व कलना-मात्र है, आत्मा में कुछ नहीं, संकल्प की दृढ़ता से सत् की नाईं भासता है | पहिले भी शुक्र और लवण राजा और इन्द्र के पुत्रों का वृत्तान्त कहा है कि संकल्प से उन्हें जगत् दृढ़ होकर भासि आया था सो वास्तव में कुछ नहीं था, तैसे ही यह विश्व भी चित्त के फुरने में स्थित हैं | असम्यक््दृष्टि से अद्वैत आत्मा में दृश्य भासता है | जैसे सूर्य की किरणों में जल भासता है तैसे ही आत्मा में अहंकार आदिक अज्ञान से दृश्य भासते हैं | इससे इनको त्यागकर अपने वास्तव स्वरूप में स्थित हो | हे रामजी! एक गढ़ तुमसे कहता हूँ जिसमें किसी शत्रु की गम नहीं उसमें स्थित हो |
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