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#1021 |
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#1022 |
Special Member
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हे रामजी! जो अज्ञानी शुभकर्म करता है तो शुभकर्म करता हुआ स्वर्ग को प्राप्त होता है और अशुभ कर्म करने से नरक को प्राप्त होता है | जो शुभकर्म को त्यागता है तो भी नरक को प्राप्त होता है, क्योंकि अनात्म में आत्म अभिमान है | इससे बुद्धि को निग्रह करो और इन्द्रियों से चेष्टा करो | देखने, सुनने, सूँघने को मैं तुम्हें नहीं बर्जता, यही कहता हूँ कि अनात्म में अभिमान को त्यागो | जब अनात्म अभिमान को त्यागोगे तब शान्तपद को प्राप्त होगे- और जहाँ तुम्हारा चित्त फुरेगा वहाँ आत्मा ही भासेगा-आत्मा से भिन्न कुछ न भासेगा | इससे चित्त को त्यागो-चित्त अहंभाव का नाम है-और आत्मपद में स्थित हो | जैसे विश्व की उत्पत्ति हुई है सो भी सुनो |
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#1023 |
Special Member
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शुद्धचैतन्यमात्र में चिदावलीरूप अहंतरंग फुरा है उस चिदावलीरूपी समुद्र में जीवरूपी तरंग उपजता है और जीवरूपी समुद्र में अहंकाररूपी तरंग भासित हुआ है | अहंकाररूपी समुद्र में बुद्धिरूपी तरंग उपजा है, बुद्धिरूपी समुद्र में चित्तरूपी तरंग भासी है और चित्तरूपी समुद्र में संकल्परूपी समुद्र में जगत््रूपी तरंग उपजा है और जगत््रूपी समुद्र में देहरूपी तरंग भासित हुआ है और उसके संयोग से दृश्य का ज्ञान हुआ है कि यह पदार्थ है, यह नहीं है, ये ऐसे हैं, उसी से देश, काल, दिशा सब हुए हैं | हे रामजी! निदान वे सब संकल्प से हो गये हैं सो आत्मा से भिन्नकुछ नहीं | केवल शान्तरूप एकरस आत्मा है उसमें नाना प्रकार के आचार रचे हैं जैसे स्वप्न की सृष्टि नाना प्रकार हो भासती है सो अपना ही अनुभव होता है तैसे ही इस जगत् को भी जानो, आत्मा सर्वदा एकरस, अद्वैत, शुद्ध, परम निर्वाण, अपने आपमें स्थित है और फुरने से नाना प्रकार की कल्पना उदय हुई है |
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#1024 |
Special Member
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हे रामजी! शुद्ध आत्मा में चिदेव संज्ञा भी संकल्प से हुई है-"चिदेवपञ्चभृतानि, चिदेव भुवनत्रयम" आत्मा निर्वाच्यपद है उसमें वानी का गम नहीं और शुद्ध शान्तरूप है | चिदेव जो फुरी है उस फुरने से संसार हुए की नाईं स्थित है | जैसे एक ही बीज ने वृक्ष, फूल, फल आदिक संज्ञा पाई है सो बीज से भिन्न कुछ नहीं और आत्मा बीज की नाईं भी नहीं संकल्प से ही नानासंज्ञा हुई और जगत् स्थित हुआ है तो भी आत्मा से कुछ भिन्न नहीं | जैसे वायु चलती है तो वायु है और ठहरती है तो भी वायु है, तैसे ही आत्मा में नानात्व कुछ नहीं केवल शुद्ध अद्वैत है | आत्मारूपी समुद्र में नाना प्रकार विश्वरूपी तरंग स्थित हैं | हे रामजी! आकार भी आत्मा से कुछ भिन्न नहीं, जो आत्मा से भिन्न भासे उसे मिथ्या जानो और मृगतृष्णा के जल की नाईं जानकर उसकी भावना त्यागो और स्वरूप की भावना करो |
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#1025 |
Special Member
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वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मेरे वचनों को धारो और हृदय में आस्तिक भावना करो | जब सर्वत्याग करोगे तब चित्त क्षीण हो जावेगा और जब चित्त क्षीण हुआ तब शान्ति होगी हे रामजी! काष्ठवत् मौन होकर हृदय में सबका त्याग करो | बाहर से कर्मों को करो पर अभिमान से रहित होकर अन्तर्मुख हो रहो | अन्तर्मुखी आत्मा में स्थित होने को कहते हैं | जब आत्मा में स्थित होगे तब विद्यमान दृश्य भी तुम्हे न भासेगा, क्योंकि तब सर्व आत्मा ही भासेगा | जो तुम्हारे पास भेरी के शब्द होंगे तो भी न सुन पड़ेंगे और जो सुगन्धि लोगे तो भी नहीं ली, निदान जो कुछ क्रिया करोगे सो तुम्हें स्पर्श न करेगी-आकाश की नाईं सबसे असंग रहोगे |
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#1026 |
Special Member
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हे रामजी! स्वरूप से भिन्न न देखना और आत्मा से भिन्न न फुरना, अन्धे गूँगे की नाईं और पत्थर की शिलावत् मौन हो रहो तब तुम्हारी चेष्टा यन्त्र की पुतलीवत् होगी | जैसे यन्त्र की पुतली तागे की सत्ता से चेष्टा करती है तैसे ही तुम्हारी नीति शक्ति से प्राणों की चेष्टा होगी | स्वाभाविक क्रिया में अभिमान से रहित होकर स्थित होना, जो अभिमान सहित चेष्टा करता है वह मूर्ख और असम्यक््दर्शी है और जो सम्यक््दर्शी है उसको अनात्म में अभिमान नहीं होता | हे रामजी! जिसको अनात्म अभिमान नहीं और जिसका चित्त दृश्य में लेपायमान नहीं होता वह सारी सृष्टि को संहार करे अथवा उत्पन्न करे उसको कुछ बन्धन नहीं होता, क्योंकि वह सब कर्म अभिलाषा से रहित करता है |
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#1027 |
Special Member
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हे रामजी! समाधि में स्थित हो और जाग्रत की नाईं सब कर्म करो | तुममें सब कर्म दृष्टि भी आवें तो भी उनमें सुषुप्त की नाईं कोई फुरना न करे | अपने स्वरूप की समाधि रहे | समाधि भी तब कहिये कि कोई दूसरा हो जो इसमें स्थित हो व इसका त्याग करे | हे रामजी! जहाँ एक शब्द और दो शब्द भी नहीं कह सकते वह अद्वितीयात्मा परमार्थसत्ता है, उसमें चित्त ने नाना प्रकार के विकार कल्पे हैं-ज्ञानी को एकरस भासता है | ज्ञानी को ज्ञानी जानता है | जैसे सर्प के खोज को सर्प ही जानता है, तैसे ही ज्ञानी को एकरस आत्मा ही भासता है सो ज्ञानी जानता हैं |
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#1028 |
Special Member
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मूर्खको संकल्प से नाना प्रकार का जगत् भासता है इससे संकल्प को त्यागकर अपने प्रकृत आचार में बिचरो | जैसे उन्मत्त और बालक की चेष्टा स्वाभाविक होती है कि अंग हिलते हैं, तैसे ही अभिमान से रहित होकर चेष्टा करो | जैसे पत्थर की शिला जड़ होती है तैसे ही दृश्य की भावना से ऐसे रहित हो कि जड़ की नाईं कुछ न फुरे | जब ऐसे होगे तब शान्तपद को प्राप्त होगे | हे रामजी! चित्त के सम्बन्ध से क्षोभ उत्पन्न होता है | जैसे वसन्तऋतु में फूल उत्पन्न होते हैं तैसे ही चित्तरूपी वसन्त ऋतु में दुःखरूपी फूल उत्पन्न होते हैं जब तुम चित्त को शान्त करोगे तब परमपद को प्राप्त होगे जो सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल है | इससे तुम असंग हो रहो |
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#1029 |
Special Member
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जब तुम स्थूल से स्थूल होगे तब भी असंग रहोगे | ऐसे पद को पाकर काष्ठ पत्थर की नाईं मौन हो रहो | हे रामजी! दृश्य पदार्थ को त्यागकर जो दृष्टा जाननेवाला है उसमें स्थित हो | हे रामजी! इन्द्रियाँ तो अपने अपने विषय को ग्रहण करती हैं उनकी ओर तुम भावना मत करो कि यह सुन्दररूप है और इसकी प्राप्ति हो | भले के प्राप्त होने की भावना मत करो, इसके जाननेवाला जो आत्मा है उसी में स्थित रहो जो पुरुष दृष्टा में स्थित होता है वह गोपद की नाईं संसार समुद्र को लाँघ जाता है | हे रामजी! जो पदार्थ दृष्टि आते हैं उनमें अपनी अपनी सृष्टि है सो संकल्प मात्र ही है और अपने अपने संकल्प में स्थित है पर सर्वसंकल्प आत्मा के आश्रय हैं जैसे सब पदार्थ आकाश में स्थित हैं तैसे ही सब संकल्प की सृष्टि आत्मा के आश्रय है एक के संकल्प को दूसरा नहीं जानता-सृष्टि अपनी अपनी है |
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#1030 |
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जैसे समुद्र में जितने बुद्बुदे हैं उनको जल से एकता है और आकार से एकता नहीं, तैसे ही स्वरूप से एकता है, और संकल्पसृष्टि अपनी-अपनी है | जो पुरुष ऐसे चिन्तता है कि मैं उसकी सृष्टि को जानूँ तब जानता है | हे रामजी! आत्मा कल्पवृक्ष है, उसमे जैसी कोई भावना करता है तैसी ही सिद्धि होती है | जब ऐसी ही भावना करके जीव स्वरूप में लगता है कि सब सृष्टि मुझे भासे तो भावना से भासि आती है | ज्ञानी ऐसी भावना नहीं करता क्योंकि आत्मा से भिन्न वह कोई पदार्थ नहीं जानता और जानता है कि स्वरूप से सबकी एकता है पर संकल्परूप से एकता नहीं होती |जैसे तरंगों की एकता नहीं पर जल की एकता है और जो एक तरंग दूसरे के साथ मिल जाता है तो उससे एकता होती है, तैसे ही एक का संकल्प भावना से दूसरे के साथ मिलता है, इससे ज्ञानी जानता है संकल्प रूप आकार नहीं मिलते और स्वरूप से सबकी एकता है |
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