03-02-2012, 06:46 PM | #101 |
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Re: कतरनें
युवा पीढी को कैंसर के शिकार बना रहे हैं हुक्का पार्लर महानगरों और बडे शहरों में तेजी से फैल रहे हुक्का पार्लर युवा पीढी को कैंसर का ग्रास बना रहे हैं। कैंसर विशेषज्ञों ने युवकों के बीच आधुनिक और मौज-मस्ती वाली जीवन शैली का पर्याय बन चुके हुक्का का पार्लरों के नियमन के लिये तत्काल कदम उठाने की मांग करते हुये कहा कि युवा पीढी में सिगरेट से कहीं अधिक हुक्का पीने और तंबाकू के अन्य उत्पादों के सेवन का प्रचलन बढ रहा है, जो सिगरेट से कम हानिकारक नहीं हैं और इसलिये सरकार को इस बारे में सम्पूर्ण नीति बनाने चाहिये ताकि तंबाकू के सभी उत्पादों के सेवन एवं धूम्रपान के सभी तरीकों पर रोक लग सके। कैंसर विशेषज्ञ एवं एशियन इंस्टीच्यूट आफ मेडिकल साइंसेस (एआईएमएस) के निदेशक डा. एन. के. पाण्डे ने कहा कि अगर तंबाकू के इस्तेमाल और धूम्रपान पर तत्काल सम्पूर्ण रोक नहीं लगायी गयी तब आने वाले समय में तंबाकू जनित कैंसर सबसे बडा हत्यारा साबित होगा। कैंसर विशेषज्ञों का कहना है कि सिगरेट के पैकेटों पर सचित्र चेतावनी छापने और फिल्मों में धूम्रपान के दृश्यों पर प्रतिबंध लगाने के लिये किये जा रहे आधे..अधूरे उपायों से तंबाकू जनिक कैंसर पर कोई लगाम लगने वाला नहीं है और इसके लिये सरकार को सभी तंबाकू उत्पादों के उपयोग को रोकने के लिए कडे कानून लाना चाहिए। एसोसिएशन आफ सर्जन्स आफ इंडिया (एएसआई) के पूर्व अध्यक्ष डा. पाणडे का कहना है कि हुक्का पीने वाले सोचते हैं कि हुक्का सिगरेट से कम हानिकारक है, लेकिन वास्तव में सिगरेट की तरह बल्कि कहीं अधिक स्वास्थय समस्याएं पैदा करता है। चिकित्सा अनुसंधानों में भी पाया गया है कि हुक्का कैंसर पैदा करता है और यह वास्तव में सिगरेट की तुलना में अधिक हानि पहुंचाता है। विश्व स्वास्थय संगठन डब्ल्यू एच ओ की एक रिपोर्ट में भी कहा गया है कि सिगरेट तुलना में हुक्का कहीं अधिक खतरनाक है। डा. पांडे का कहना है कि यह एक गलत धारणा है कि हुक्का पीना सिगरेट पीने की तुलना में अधिक सुरक्षित है क्योंकि हुक्के का धुंआ सांस के माध्यम से अंदर लेने से पहले पानी के द्वारा फिल्टर होता है। हाल के अध्ययनों में पाया गया है कि हुक्का पीने वाले सिगरेट पीने वालों की तुलना में वास्तव में अधिक निकोटिन सांस के द्वारा अंदर लेते हैं क्योंकि वे हुक्का के द्वारा अधिक मात्रा में धुंआ अंदर लेते हैं। युवा पीढी विलासितापूर्ण जीवन शैली की आदी हो रही है और शारीरिक रू प से सक्रि य नहीं है। उनके दैनिक कार्यक्र म में व्यायाम के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन तंबाकू के लिए काफी जगह है। तंबाकू में 300 कैंसर रसायन और 4000 हानिकारक रसायन होते हैं जो मुंह या गले के कैंसर को बढावा देते हैं। 'धूम्रपान' प्रदूषण और जीवन शैली में तेजी से हो रहे बदलाव जैसे कारणों से हमारे देश में कैंसर का प्रकोप बहुत तेजी से बढ रहा है। आंकडों के अनुसार हमारे देश में 30 लाख कैंसर के रोगी है और हर साल इसमें 8 लाख नये रोगी जुड जाते हैं और इस रोग के कारण हर साल साढे 5 लाख लोगों की मौत हो जाती है। कैंसर के 70 प्रतिशत से अधिक मामलों का पता तब चलता है जब रोग काफी बढ चुका होता है और इस कारण कैंसर रोगियों के जीवित रहने की संभावना कम होती है। डा. एन. के. पांडे ने कहा कि भारत में कैंसर की घटनाओं में वृद्धि के लिए शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, जीवन शैली में परिवर्तन और जनसांख्यिकीय प्रोफाइल में परिवर्तन मुख्य तौर पर जिम्मेदार है ऐसे में कैंसर की रोकथाम और कैंसर रोगियों की जिंदगी की गुणवत्ता में सुधर लाने पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। श्वसन चिकित्सा विशेषज्ञ डा. मानव मनचंदा ने कहा कि आजकल धूम्रपान को फैशन का पर्याय माना जाता रहा है, लेकिन यह न सिर्फ धूम्रपान करने वालों के स्वास्य के लिए खतरनाक है, बल्कि जो व्यक्ति अप्रत्यक्ष रू प से तंबाकू के धुएं को सांस के जरिए शरीर के अंदर ले लेते हैं, यह उनके स्वास्य के लिए भी उतना ही खतरनाक है। उन्होंने बताया कि एशियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेस की ओपीडी में आने वाले मरीजों में फेफडे के कैंसर के मामलों में 10 प्रतिशत और सीओपीडी (क्रोनिक आब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज) के मामलों में 20 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी। डा. मनचंदा के कहा कि फेफडे के कैंसर और सीओपीडी के मामलों में वृद्धि अप्रत्यक्ष धूम्रपान, एस्बेस्टस जैसे औद्योगिक कैंसरजन्य पदार्थों, हवा और वाहनों के प्रदूषण के कारण भी हो रही है। गुटका खाने के कारण मुंह के कैंसर के मामलों में भी वृद्धि हो रही है। हालांकि तंबाकू का इस्तेमाल आज के समय में बहुत बडी स्वास्य समस्या बन गयी है और इसलिये पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक प्रदूषण बढते स्तर और एस्बेस्टस के इस्तेमाल जैसे अन्य कारकों पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। डा. पांडे ने कहा कि कैंसर की रोकथाम में जागरू कता तथा बीमारी की जल्द पहचान अत्यंत महत्वपूर्ण है। रेडियेशन ओंकोलॉजी विशेषज्ञ डा. नीतू सिंघल का कहना है कि समय पर रोग की पहचान और शीघ्र उपचार इलाज और लंबे समय तक जीवित रहने की कुंजी है। आज जांच के आधुनिक और परिष्कृत उपकरणों की मदद से कैंसर की न सिर्फ बहुत शुरूआती अवस्था में ही पहचान की जा सकती है बल्कि कभी-कभी तो इसकी कैंसरपूर्व अवस्था में ही इसकी पहचान हो सकती है। कैंसर अचानक नहीं होता है बल्कि यह एक र्पंक्रिया है जो कई साल का समय लेती है। आधुनिक उपकरणों और विभिन्न प्रयोगशला जांच तकनीकों की मदद से कैंसर की शुरूआती अवस्था में ही पता लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि कैंसर की पहचान शीघ्र होने पर इलाज आसान हो जाता है।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 04-02-2012 at 04:00 PM. |
03-02-2012, 08:00 PM | #102 |
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Re: कतरनें
चार फरवरी को पं. भीमसेन जोशी की जयंती पर
20 वीं सदी के महान शास्त्रीय गायक बीसवीं सदी में भारतीय शास्त्रीय संगीत को नयी दिशा और अलहदा आयाम देने वालों में भीमसेन जोशी का नाम प्रमुख है और 1985 में तो वह ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ के जरिये घर-घर में पहचाने जाने लगे थे। तब से लेकर 26 साल बाद आज भी इस गाने के बोल और धुन पंडितजी की पहचान बने हुए हैं। संगीत शिक्षक और गायक पंडित मोहनदेव कहते हैं कि पंडित भीमसेन जोशी को बुलंद आवाज, सांसों पर बेजोड़ नियंत्रण, संगीत के प्रति संवेदनशीलता, जुनून और समझ के लिए जाना जाता था। उन्होंने सुधा कल्याण, मियां की तोड़ी, भीमपलासी, दरबारी, मुल्तानी और रामकली जैसे अनगिनत राग छेड़ संगीत के हर मंच पर संगीतप्रमियों का दिल जीता। पंडित मोहनदेव ने कहा, ‘‘उनकी गायिकी पर केसरबाई केरकर, उस्ताद आमिर खान, बेगम अख्तर का गहरा प्रभाव था। वह अपनी गायिकी में सरगम और तिहाईयों का जमकर प्रयोग करते थे। उन्होंने हिन्दी, कन्नड़ और मराठी में ढेरों भजन गाए।’’ चार फरवरी, 1922 को कर्नाटक के गडग में जन्मे किराना घराने के प्रसिद्ध गायक भीमसेन जोशी का पिछले साल 88 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। इन 88 वर्षों में वह आने वाली पीढियों के लिए अपने संगीत की अनमोल विरासत की रचना करते रहे। वर्ष 1933 में जोशी ने अपने संगीत गुरू की तलाश में बीजापुर का अपना घर छोड़ दिया। वह तीन साल तक उत्तर भारत के दिल्ली, कोलकाता, ग्वालियर, लखनउ और रामपुर जैसे शहरों में घूमते रहे। जल्द ही उनके पिता ने जालंधर में उन्हें ढूंढ निकाला और उन्हें वापस घर ले गए। वर्ष 1941 में जोशी ने 19 साल की उम्र में मंच पर अपनी पहली प्रस्तुति दी। इसके दो साल बाद वह रेडियो कलाकार के तौर पर मुंबई में काम करने लगे। ‘हिन्दुस्तानी म्यूजिक टुडे’ किताब में लेखक दीपक एस राजा ने जोशी के लिए लिखा है कि जोशी 20वीं सदी के सबसे महान शास्त्रीय गायकों में से एक थे। उन्होंने हिन्दी, कन्नड़ और मराठी में खयाल, ठुमरी और भजन गायन से तीन पीढियों को आनंदित किया। उनकी अपनी अलग गायन शैली थी। राजा के अनुसार, ‘‘जोशी ने सवाई गंधर्व से गायिकी का प्रशिक्षण लिया था। उनके संगीत करियर में एक से बढकर एक बेजोड़ उपलब्धियां शामिल हैं। जोशी ग्रामोफोन कंपनी आॅफ इंडिया :एचएमवी: का प्लैटिनम पुरस्कार पाने वाले एकमात्र भारतीय शास्त्रीय संगीत गायक थे।’’ जोशी ने कई फिल्मों के लिए भी गाने गाए। उन्होंने ‘तानसेन’, ‘सुर संगम’, ‘बसंत बहार’ और ‘अनकही’ जैसी कई फिल्मों के लिए गायन भी किया। पंडितजी शराब पीने के शौकीन थे, लेकिन संगीत करियर पर इसका प्रभाव पड़ने पर 1979 में उन्होंने शराब का पूरी तरह से त्याग कर दिया। भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में दिए गए अविस्मरणीय योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और भारतरत्न जैसे सर्वोच्च नागरिक सम्मानों से सम्मानित किया गया।
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03-02-2012, 08:48 PM | #103 |
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Re: कतरनें
पुण्यतिथि 4 फरवरी पर विशेष
भगवान दादा की नृत्य शैली अपनाई है बिग बी ने अमिताभ बच्चन का प्रत्येक प्रशंसक उनकी नृत्य शैली का दीवाना रहा है, लेकिन उन्होने जिस शख्स भगवान दादा की नृत्य शैली अपनाकर अपने अभिनय में चार चांद लगाये उसे आज बहुत कम लोग जानते हैं। भगवान दादा का मूल नाम भगवान आभाजी पल्लव था। फिल्मों से जुड़ी कोई भी चीज उनसे अछूती नहीं रही। वह ऐसे हँसमुख इंसान थे, जिनकी उपस्थिति मात्र से माहौल खुशनुमा हो उठता था। हंसते-हंसाते रहने की प्रवृत्ति को उन्होने अपने अभिनय, निर्माण और निर्देशन में भी बखूबी उकेरा। भगवान दादा का यह अंदाज आज भी उनके चहेतों की यादों में तरोताजा है। भगवान दादा का जन्म वर्ष 1913 में मुंबई के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता एक मिल कर्मचारी थे। बचपन से ही भगवान दादा का रूझान फिल्मों की ओर था। वह अभिनेता बनना चाहते थे। शुरूआती दौर में भगवान दादा ने श्रमिक के तौर पर काम किया। भगवान दादा ने अपने फिल्मी करियर के शुरूआती दौर में बतौर अभिनेता मूक फिल्मों में काम किया। इसके साथ ही उन्होंने फिल्म स्टूडियो में रहकर फिल्म निर्माण की तकनीक सीखनी शुरू कर दी। इस बीच उनकी मुलाकात स्टंट फिल्मों के नामी निर्देशक जी.पी. पवार से हुई और वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे। बतौर निर्देशक वर्ष 1938 प्रदर्शित फिल्म बहादुर किसान भगवान दादा के सिने कैरियर की पहली फिल्म थी, जिसमें उन्होंने जी.पी. पवार के साथ मिलकर निर्देशन किया था। इसके बाद दादा ने 'राजा गोपीचंद', 'बदला', 'सुखी जीवन', 'बहादुर' और 'दोस्ती' जैसी कई फिल्मों का निर्देशन किया, लेकिन ये सभी टिकट खिड़की पर विफल साबित हुईं। वर्ष 1942 में भगवान दादा ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया और जागृति पिक्चर्स की स्थापना की। इस बीच उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और कई फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया लेकिन इससे उन्हें कोई खास फायदा नही पहुंचा। वर्ष 1947 में भगवान दादा ने अपनी कंपनी जागृति स्टूडियो की स्थापना की। भगवान दादा की किस्मत का सितारा वर्ष 1951 में प्रदर्शित फिल्म 'अलबेला' से चमका। राज कपूर के कहने पर भगवान दादा ने फिल्म अलबेला का निर्माण और निर्देशन किया। बेहतरीन गीत-संगीत और अभिनय से सजी इस फिल्म की कामयाबी ने दादा को स्टार के रूप में स्थापित कर दिया। आज भी इस फिल्म के सदाबहार गीत दर्शकों और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। सी. रामचंद्र के संगीत निर्देशन में भगवान दादा पर फिल्माये गीत 'शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के' उन दिनों युवाओं के बीच गजब का क्रेज बन गया था। 'भोली सूरत दिल के खोटे नाम बड़े और दर्शन छोटे', 'शाम ढ़ले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो' भी श्रोतोओं के बीच बहुत ही लोकप्रिय हुए थे। फिल्म 'अलबेला' की सफलता के बाद भगवान दादा ने 'झमेला', 'रंगीला', 'भला आदमी', 'शोला जो भड़के' और 'हल्ला गुल्ला' जैसी फिल्मों का निर्देशन किया, लेकिन ये सारी फिल्म टिकट खिड़की पर विफल साबित हुईं, हालांकि इस बीच उनकी वर्ष 1956 में प्रदर्शित फिल्म भागम भाग हिट रही। वर्ष 1966 में प्रदर्शित फिल्म 'लाबेला' बतौर निर्देशक भगवान दादा के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुई। दुर्भाग्य से इस फिल्म को भी दर्शको ने बुरी तरह नकार दिया। फिल्म 'लाबेला' की विफलता के बाद बतौर निर्देशक भगवान दादा को फिल्मों में काम मिलना बंद हो गया और बतौर अभिनेता भी उन्हें काम मिलना बंद हो गया। परिवार की जरूरत को पूरा करने के लिये उन्हें अपना बंगला और कार बेचकर एक छोटे से चॉल में रहने के लिये विवश होना पड़ा। इसके बाद वह माहौल और फिल्मों के विषय की दिशा बदल जाने पर भगवान दादा चरित्र अभिनेता के रूप में काम करने लगे, लेकिन तब नौबत यहां तक आ गई कि जो निर्माता-निर्देशक पहले उनको लेकर फिल्म बनाने के लिए लालायित रहते थे, उन्होंने भी उनसे मुंह मोड़ लिया। इस स्थिति में उन्होंने अपना गुजारा चलाने के लिए फिल्मों में छोटी-छोटी मामूली भूमिकाएं करनी शुर कर दीं। बाद में हालात ऐसे हो गए कि भगवान दादा को फिल्मों में काम मिलना लगभग बंद हो गया। हालात की मार और वक्त के सितम से बुरी तरह टूट चुके हिन्दी फिल्मों के स्वर्णिम युग के अभिनेता भगवान दादा ने चार फरवरी 2002 को गुमनामी के अंधरे में रहते हुये इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
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04-02-2012, 06:50 PM | #104 |
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Re: कतरनें
पांच फरवरी को ईद-उल मिलाद-उन-नबी पर
पैगम्बर की शिक्षा, बच्चियों की पैदाइश है जन्नत में जाने का जरिया पैगम्बर हजरत मुहम्मद ने इस दुनिया को इंसानियन, ‘एकेश्वरवाद’ और समता का संदेश देने के साथ ही महिलाओं को आला मुकाम दिया है । उन्होंने बच्चियों की पैदाइश और उनकी परवरिश को ‘जन्नत में दाखिल होने का जरिया’ करार दिया। अल्लाह के रसूल कहे जाने वाले पैगम्बर का जन्म 12 रबीउल अव्वल (22 अप्रैल, 571 ) को मक्का में हुआ था। इस्लामी विद्वानों में उनके जन्मदिवस को लेकर मतभेद हैं, हालांकि वैश्विक स्तर पर आमतौर पर अरबी महीने रबीउल अव्वल की 12 तारीख को ही नबी की पैदाइश का दिन माना गया है। कई इस्लामी तारीखदानों के मुताबिक अरबी कैलेंडर की इसी तारीख को पैगम्बर का वफात (देहावसान) भी हुआ था। इस्लामी मामलों के जानकार और जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रोफेसर जुनैद हारिस कहते हैं, ‘‘पैगम्बर की पैदाइश की तारीख को लेकर मतभेद हैं, लेकिन ज्यादातर इस्लामी विद्वान इसे 12 रबी उल अव्वल ही मानते हैं। वफात भी इसी तारीख को हुआ था।’’ दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मुफ्ती मुकर्रम अहमद का भी मानना है कि पैगम्बर के जन्मदिवस को लेकर आमतौर पर सभी सहमत हैं कि 12 रबी उल अव्वल को ही हजरत मुहम्मद इस दुनिया में आए थे। हजरत मुहम्मद के मां का नाम आमिना (अमीना) और पिता का नाम अब्दुल्ला था। पैगम्बर का जन्म उस दौर में हुआ, जब अरब जगत में आडंबर, सामाजिक बुराइयों, महिलाओं के खिलाफ हिंसा और नवजात बच्चियों की हत्या का दौर था। उस वक्त लड़कियों की पैदाइश को एक सामाजिक शर्म और तौहीन माना जाता था। ऐसे में लोग बच्चियों की पैदा होते ही हत्या कर देते थे। अरब सरजमीं पर मौजूद इन बुराइयों के खिलाफ पैगम्बर ने आवाज उठाई तो उनकी राह में तरह-तरह की मुश्किलें पैदा की गईं, हालांकि अल्लाह के नबी आगे बढते चले गए। हारिस कहते हैं, ‘‘उस वक्त पैगम्बर ने नवजात बच्चियों की हत्या के खिलाफ अभियान छेड़ा। उन्होंने कहा कि बच्चियों का पैदा होना और उनकी सही ढंग से परवरिश करना जन्नत में जाने का जरिया है।’’ हजरत मुहम्मद को 40 साल की उम्र में खुदा ने नबी का ओहदा दिया और इसके बाद से ही उन पर पवित्र कुरान नाजिल (अवतरित) हुई। नबी का ओहदा मिलने से पहले ही वह अरब जगत में सामाजिक बदलाव और आडंबर के खिलाफ क्रांति की मशाल जला चुके थे। महज 25 साल की उम्र में 40 की विधवा खदीजा से निकाह करके उन्होंने सबसे बड़ा संदेश विधवा-विवाह का दिया था। उस वक्त के दौर में किसी महिला का विधवा होना एक बड़े गुनाह के तौर पर देखा जाता था। इंसानियत और ‘एकेश्वरवाद’ का संदेश देने वाले रसूल समाज में महिलाओं को सम्मान एवं अधिकार दिए जाने की हमेशा पैरोकारी करते रहे। मुफ्ती मुकर्रम इस्लामी तारीख के मुताबिक एक वाक्या बयां करते हुए कहते हैं, ‘‘हजरत आयशा (पैगम्बर की पत्नी) के पास एक गरीब महिला अपनी दो बेटियों के साथ मिलने आई। उन्होंने उस महिला को तीन खजूर दिए । उस महिला ने पहले एक-एक खजूर अपनी बेटियों को दिए और फिर आधा-आधा दोनों को दिया। उसने खुद कोई खजूर नहीं खाया।’’ मुकर्रम ने बताया, ‘‘जब पैगम्बर घर लौटे, तो हजरत आयशा ने उस महिला का वाकया सुनाया। इस पर नबी ने कहा कि जो इंसान इस दुनिया में बच्चियों की खुशी-खुशी और सही ढंग से परवरिस करेगा, वो जन्नत में उनके बराबर में बैठने का हकदार होगा।’’
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06-02-2012, 01:55 AM | #105 |
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Re: कतरनें
न डॉक्टर, न अस्पताल; मरीज करेगा अब खुद इलाज
नैनो टेक्नोलॉजी के जरिए कैंसर का हो सकेगा सफाया नैनो टेक्नोलॉजी की बदौलत आने वाले समय में कैंसर जैसे गंभीर बीमार के इलाज के लिए डॉक्टरों और अस्पतालों के चक्कर काटने की जरूरत नहीं रहेगी बल्कि मरीज दवाई की कम खुराक के जरिए बीमारी को खुद ही छू मंतर कर सकेगा। एशियन इंस्टीच्यूट आफ मेडिकल साइंसेस (एआईएमएस) के निदेशक डॉ. एन. के. पाण्डे ने विशव कैंसर दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में कैंसर के उपचार के क्षेत्र में विकसित हो रही नई तकनीकों का जिक्र करते हुए कहा कि भविष्य में जो तकनीकें विकसित होंगी उनकी मदद से मरीज खुद ही इस बीमारी का कई वर्ष पहले ही पता लगा सकेगा और नैनो औषधि की अत्यंत सूक्षम मात्रा के जरिए ही विकसित होने वाली कैंसर कोशिकाओं को समूल नष्ट कर सकेगा। एसोसिएशन आफ सर्जन्स आफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष डॉ. पाण्डे ने हालांकि कहा कि यह एक सपना है जिसे हकीकत में बदलने के लिए चिकित्सा वैज्ञानिक जुटे हुए हैं और चिकित्सा विज्ञान में देखे जाने वाले अधिकतर सपने हकीकत में जरूर बदलते हैं। उन्होंने कहा कि आज से कुछ वर्ष पूर्व किसी ने सोचा नहीं होगा कि रोबोट आपरेशन करने लगेंगे लेकिन आज यह हो रहा है। आज हालांकि नैनो टेक्नोलॉजी का पूर्ण विकास नहीं हुआ है लेकिन चिकित्सा विज्ञान के कई क्षेत्रों में इसका इस्तेमाल शुरू हो गया है। मिसाल के तौर पर र्पोंस्टेट कैंसर के निदान में नैनो मेडिसिन अहम भूमिका निभा रही हैं। मैगनेटिक नैनो पार्टिकल्स से कैंसर का पता लगाना आसान हो गया है। डॉ. पाण्डे ने बताया कि चिकित्सा क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव के लिए नैनो टेक्नोलॉजी के पूर्ण विकास पर वैज्ञानिकों का विशेष ध्यान है। शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में इससे बड़ा बदलाव होगा। साथ ही ऐसी तकनीक विकसित होगी जिससे क्षण भर में आपरेशन संभव होगा। नैनो टेक्नोलॉजी की कल्पना नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकशास्त्री रिचर्ड पी फिनमेन ने कई सालों पहले की थी। नैनो एक र्गींक शब्द है जिसका शब्दिक अर्थ है बौना। मीटर के पैमाने पर देखा जाए तो यह। मीटर का अरबवां भाग होता है। नैनो टेक्नोलॉजी वह अप्लाइड साइंस हैं, जिसमें 100 नैनोमीटर से छोटे पार्टिकल्स पर भी काम किया जाता है। इस तकनीक से आज दवाइयों से लेकर धातुओं तक में नए-नए प्रयोग देखने को मिल रहे हैं। इस तकनीक की कार्यक्षमता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बाल की मोटाई से हजार गुना पतली चीजें भी बनाई जा सकती है। साधारण रूप में समझा जाए तो मनुष्य के एक बाल की चौड़ाई 80000 नैनो मीटर होती है। सोच सकते हैं कि नैनो मीटर कितना छोटा होता होगा। इस तकनीक के जरिए सामान्य वस्तुओं और मशीनों की क्षमता कई लाख गुना तक बढ़ाई जा सकती है। नैनो स्केल पर किसी पदार्थ के परमाणुओं में जोड़-तोड़ करना, उन्हें पुनर्व्यवस्थित कर मनचाही आकार में ढालना ही नैनो टेक्नोलॉजी है। डॉ. पाण्डे ने कहा कि 21वीं सदी नैनो टेक्नोलॉजी की सेंचुरी होगी। कोई आश्चर्य नहीं कि इस तकनीक के जरिए कभी शक्कर के दाने के बराबर एक चिप में विश्व के समस्त पुस्तकालयों के किताबों की सभी जानकारियां समेटी जा सकेंगी। कैंसर जैसी बीमारियों की जांच में हुई प्रगति के बारे में मॉलीक्युलर पैथोलॉजी विशेषज्ञ डॉ. बी आर दास के मुताबिक आज बीमारियों की जांच के क्षेत्र में जो प्रगति हुई है उसकी बदौलत गंभीर से गंभीर बीमारियों का समयपूर्व पता लगाना आसान हो गया है। मिसाल के तौर पर मॉलीक्युलर पैथॉलॉजी के क्षेत्र में विकसित तकनीकों की बदौलत कई तरह के कैंसर का पता लगाने के लिए अब कष्टदायक बायोप्सी करने की जरूरत नहीं रहीं बल्कि रक्त के नमूने से ही यह जांच हो सकेगी। उन्होंने बताया कि आज मॉलीक्युलर डाग्नोटिक्स के जरिए कैंसर जैसी बीमारी के इलाज में अब कोई दवा देने से पहले ही यह पता चल सकता है कि वह दवा फायदा करेगी या नहीं।
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06-02-2012, 01:57 AM | #106 |
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Re: कतरनें
देसी वियाग्रा तैयार, अब बाजार में उतारने की तैयारी
* कीड़ा जड़ी का वानस्पतिक नाम काडिसेप्स साइनेसिस है। जमीन में धंसे इस कीड़े के सिर पर उगी फफूंद से बनती है दवा * यारसा गम्बू की भारतीय बाजार में कीमत नौ से ग्यारह लाख रुपए प्रति किलो देहरादून। उत्तराखंड के पहाड़ों पर पाए जाने वाली कीड़ा जड़ी या यारसा गम्बू से शक्तिवर्धक और कमोत्तेजक दवा तैयार कर ली गई है तथा अब इस देसी वियाग्रा को विश्व बाजार में उतारने की तैयारी की जा रही है। लम्बे समय से यारसा गम्बू पर शोध कर रहे डिफेंस इंस्टीच्यूट आफ बायो एनर्जी रिसर्च गोरा पडाव हल्द्वानी (डीआईबीआईआर) को इसका कल्चर तैयार करने में कामयाबी मिली है। यारसा गम्बू से प्रयोगशाला में देसी वियाग्रा तैयार करने की तकनीक विकसित कर संस्थान ने इसका पेटेंट करा लिया है। डीआईबीआईआर के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. प्रेम सिंह नेगी ने बताया कि पेटेंट मिलने के बाद संस्थान ने अपनी तकनीक दिल्ली की एक दवा निर्माता कंपनी बायोटेक इंटरनेशनल को हस्तान्तरित कर दी है। भारतीय वन अनुसंधान संस्थान के सेवानिवृत्त वनस्पति वैज्ञानिक डॉ. एच बी नैथानी के अनुसार यारसा गम्बू या कीड़ा जड़ी का वानस्पतिक नाम काडिसेप्स साइनेसिस है। इसका जमीन से धंसा भाग कीड़ा होता है और उसके सिर पर उगा फफूंद पादक में आ जाता है। तिब्बत में यारसा का अर्थ गर्मी का घास तथा गम्बू का अर्थ सर्दी का कीड़ा होता है। यारसा गम्बू से तैयार शक्तिवर्धक दवा का उपयोग खिलाड़ी करते हैं जिसका पता डोप टेस्ट में भी नहीं चल पाता है। इस दवा का मुख्य तत्व सेलेनिम होता है जो कैंसर, एड्स, क्षय रोग, दर्द और ल्यूकेमिया आदि कई बीमारियों के इलाज में काम आता है। यह कैंसर कोशिकाओं के विखंडन को नियंत्रित करता है। भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण विभाग के सेवानिवृत्त वनस्पति वैज्ञानिक सुरेन्द्र सिंह भरतवाल के अनुसार कीड़ा जड़ी समुद्र तल से 3000 मीटर से लेकर 6000 मीटर ऊंचाई तक के इलाकों में पाई जाती है। मई के बाद जैसे ही बर्फ पिघलने लगती है वैसे ही आठ टांगों वाला यह कीड़ा धरती में घुस जाता है और उसके सिर पर चोटी की तरह फफूंद निकल आता है। यह फफूंद जून या जुलाई में दिखाई देने लगता है और इसके बाद लोग इसे जमा करना शुरू कर देते हैं। यारसा गम्बू की भारतीय बाजार में कीमत नौ से ग्यारह लाख रुपए प्रति किलो है जबकि अंतर्राष्टñीय बाजार में यह 17 से 20 लाख रुपए प्रति किलो की दर पर उपलब्ध है। उत्तराखंड सरकार ने 2002 में एक आदेश जारी कर स्थानीय लोगों को ग्राम पंचायत और सहकारी संगठनों के माध्यम से इसके दोहन की अनुमति दी थी, लेकिन लोग इसे केवल राज्य वन निगम के माध्यम से ही बेच सकते थे।
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07-02-2012, 05:52 AM | #107 |
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Re: कतरनें
सात फरवरी को सेंड ए कार्ड टू योर फ्रेंड डे पर
मोबाइल, इंटरनेट से कम हुआ लोगों में ग्रीटिंग कार्ड भेजने का चलन क्या आपको याद है आपने कब अपने किसी खास दोस्त या पुराने मित्र को ग्रीटिंग कार्ड भेजा था। यदि नहीं तो आज का दिन इसके लिए एकदम सही है क्योंकि कार्ड न केवल रिश्तों को जोड़ने में अहम भूमिका निभाते हैं बल्कि इन्हें सालों साल तक तरोताजा भी रखते हैं। कई पश्चिमी देशों में सात फरवरी को ‘सेंड ए कार्ड टू योर फ्रेंड डे’ के रूप में मनाया जाता है। दरअसल आज के इंटरनेट और मोबाइल के युग में लोगों में ग्रीटिंग कार्ड या हाथ से बने कार्ड भेजने का चलन काफी कम हो गया है और इसकी जगह ई कार्ड ने ले ली है। एमएससी की छात्रा आकांक्षा शर्मा ने इस बारे में कहा कि स्कूल के दिनों में तो हम अपने दोस्तों को कार्ड भेजते थे लेकिन अब तो एसएमएस और फोन के जरिए ही बधाई आदि दे दी जाती है। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे याद है बचपन में हम अपने दोस्तों को दीपावली, जन्मदिन या अन्य किसी मौके पर कार्ड देते थे। मित्र अगर बहुत ही खास हो तो बाकायदा ड्राइंग शीट लाकर हाथ से बधाई संदेश लिखकर कार्ड बनाते थे। अपने पास ऐसा कोई कार्ड आने पर उसे सहेज कर रखते थे।’’ आकांक्षा ने कहा, ‘‘लेकिन अब तो फोन, मोबाइल और इंटरनेट का जमाना है। इसलिए कार्ड भेजने का चलन काफी कम हो गया है। बधाई आदि देने का काम अब एसएमएस और मोबाइल के जरिए ज्यादा आसान हो गया है। पेपर कार्ड की जगह ई कार्ड ने ले ली है।’’ इस बारे में इंजीनियरिंग के छात्र विनय रॉय ने कहा कि बदलती तकनीकी ने कार्ड भेजने के चलन को कम नहीं किया है बस इसका स्वरूप कुछ बदल दिया है। अब पेपर कार्ड की जगह ई कार्ड दोस्तों को याद करने का और उन्हें उनकी अहमियत जताने का जरिया बन गए हैं। उन्होंने कहा, ‘‘अब पेपर से बने ग्रीटिंग कार्ड की जगह ई कार्ड ने ले ली है और यह इसका अच्छा विकल्प भी हैं।’’ राहुल ने कहा, ‘‘ये बात अलग है कि एसएमएस या ई कार्ड में वो बात नहीं होती। दोस्तों के भेजे पुराने कार्ड मैंने आज भी सहेजकर रखे हैं जिन्हें देखकर बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं। ई कार्ड को सहेज कर नहीं रखा जा सकता।’’ आकांक्षा ने कहा, ‘‘कहीं न कहीं एसएमएस या ई कार्ड बदलते दौर की मजबूरी भी हैं। पहले अक्सर दोस्त साथ होते थे या आसपास के शहरों में ही रहते थे। लेकिन अब कुछ मित्र नौकरी या किसी अन्य कारण से देश के बाहर हैं। ऐसे में फोन या ईमेल के जरिए बधाई देना ज्यादा आसान हो जाता है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘हालांकि बाजार में मिलने वाले म्युजिकल ग्रीटिंग कार्ड जरूर काफी लोकप्रिय हैं और वेलेंटाइन डे जैसे अवसरों पर दोस्तों को इन्हें देने का मजा ही कुछ और है।’’
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12-02-2012, 03:55 AM | #108 |
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Re: कतरनें
जन्मदिवस 12 फरवरी पर विशेष
दर्शकों में सिहरन पैदा करने वाले खलनायक प्राण हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम काल माने जाने वाले 1950 और 60 के दशक में खलनायकी का पर्याय बने प्राण ने इस विधा को ऐसा आयाम दिया कि उनके परदे पर अवतरित होते ही दर्शकों में सिहरन पैदा होने लगती और सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाते उनके किरदार से नायक और नायिकाओं के कान खड़े हो जाते। खलनायकी की भूमिका का अलग मानक स्थापित करने वाले प्राण ने मनोज कुमार की चर्चित फिल्म उपकार में मलंग चाचा की चरित्र भूमिका की। इस सकारात्मक भूमिका को उन्होंने चुनौती के तौर पर लिया और इसमें खलनायकी के लिए ‘कुख्यात’ प्राण ने बेहतरीन भूमिका की। इस फिल्म का एक गाना ‘कसमें वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या’ आज भी खूब पसंद किया जाता है। उपकार की इस भूमिका के साथ ही उनकी छवि बदल गयी और वह चरित्र भूमिकाओं में नजर आने लगे। इन फिल्मों में जंजीर, बॉबी, अमर अकबर एंथनी, डॉन, दोस्ताना, कालिया, शराबी आदि शामिल हैं। 300 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय कर चुके प्राण दिल्ली के एक समृद्ध परिवार में पैदा हुए। पढाई में होशियार प्राण कृष्ण सिकंद यानी प्राण फोटोग्राफर बनना चाहते थे लेकिन संयोग ऐसा हुआ कि वह फिल्मो में आ गए और यहां उन्होंने लंबे समय तक अपने अभिनय का लोहा मनवाया। दर्जनों पुरस्कारों से सम्मानिम प्राण ने हर किरदार में नयी जान डाल दी। उम्र बढने के साथ ही उन्होंने फिल्मों में अभिनय कम कर दिया लेकिन संवाद अदायगी की उनकी विशिष्ट शैली अब भी याद की जाती है। उनकी शुरूआती फिल्में हों या बाद की, उनकी अदाकारी में दोहराव नहीं दिखता। उल्लेखीय है कि उन्होंने अभिनय का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था। लेकिन उनके अभिनय में इतनी विविधता रही है कि लोग फिदा हो जाते हैं। जब प्राण बतौर खलनायक प्रतिष्ठित हो चुके थे, उस दौर में उन्होंने कुछ फिल्मों में नायक और सहनायक की भूमिकाएं भी कीं। इन फिल्मों में राजकपूर की आह भी शामिल है जिसमें उन्होंने सकारात्मक भूमिका की थी। लेकिन आह को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली। प्राण ने ऐसी भूमिकाएं कीं जो फिल्मों का जरूरी हिस्सा लगती हैं। उन्होंने खलनायकी की भूमिका कर नायकों से ज्यादा नाम कमाया। प्राण ने दिलीप कुमार, राजकपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर, मनोज कुमार, अमिताभ बच्चन, सहित कई दिग्गज कलाकारों के साथ दर्जनों फिल्मों में काम किया और अपनी अभिनय प्रतिभा से तमाम कलाकारों के बीच अलग पहचान बनायी। कई फिल्मों में वह नायकों और अन्य सह कलाकारों पर भारी दिखे। उनकी चर्चित फिल्मों में खानदान, जिद्दी, बरसात की एक रात, आजाद, मुनीमजी, मधुमती, चोरी चोरी, जिस देश में गंगा बहती है, देवदास, तुमसा नहीं देखा, कश्मीर की कली आदि शामिल हैं। दिलचस्प है कि परदे पर तमाम तरह के किरदार में दिखने वाले प्राण निजी जीवन में अपने अच्छे व्यवहार के लिए पहचाने जाते रहे हैं। समाज सेवा से जुड़े प्राण एक फुटबाल क्लब से भी जुड़े रहे हैं।
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12-02-2012, 03:59 AM | #109 |
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Re: कतरनें
सदी के खलनायक हैं प्राण
भारतीय सिनेमा जगत में सदी के खलनायक प्राण एक ऐसे अभिनेता के रूप में याद किये जाते हैं, जिन्होंने बतौर खलनायक पचास से सत्तर के दशक के बीच फिल्म इंडस्ट्री पर एकछत्र राज किया। शब्दों को चबा-चबा कर बोलना, सिगरेट के धुंए से छल्ले बनाना और हर पल अपने चेहरे का भाव बदलने लाने वाले प्राण ने उस दौर में खलनायकी को नया आयाम दिया। प्राण के पर्दे पर आते ही दर्शको के बीच एक अजीब सी सिहरन हो जाती थी। उनकी यह विशेषता रही है कि उन्होंने जितनी भी फिल्मों में अभिनय किया, उनमें हर पात्र को एक अलग अंदाज में दर्शको के सामने पेश किया। प्राण का पूरा नाम प्राण कृष्ण सिकंद है। उनका जन्म वर्ष 1920 में दिल्ली में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता केवल कृष्ण सिकंद सरकारी ठेकेदार थे। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह दिल्ली की ए. दास कंपनी में स्टिल फोटोग्राफी सीखने लगे। इसी दौरान उन्हें कंपनी के काम से लाहौर जाने का मौका मिला । एक दिन पान की दुकान पर प्राण की मुलाकात लाहौर के मशहूर पटकथा लेखक वली मोहम्मद से हुई। वली मोहम्मद ने उन्हें पंजाबी फिल्म यमला जट में काम करने का प्रस्ताव दिया, जिसे प्राण ने स्वीकार कर लिया। वर्ष 1940 में प्रदर्शित फिल्म यमला जट टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई। इसके बाद प्राण को दलसुख पंचोली की एक पंजाबी फिल्म 'चौधरी' (1941) में बतौर खलनायक काम करने का अवसर मिला। बतौर नायक प्राण ने अपने करियर की शुरुआत वर्ष 1942 में प्रदर्शित फिल्म 'खानदान' से की जो बतौर अभिनेत्री नूरजहां की भी पहली फिल्म थी। इसके बाद प्राण ने सात-आठ फिल्मों में बतौर नायक काम किया, लेकिन तभी देश को बंटवारे की त्रासदी से गुजरना पड़ा और प्राण अपनी पत्नी शुक्ला और एक साल के बच्चे को लेकर मुंबई आ गए। मुंबई आने पर उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसी दौरान प्राण की मुलाकात उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो और अभिनेता श्याम से हुई, जिनकी मदद से उन्हें शाहिद लतीफ के निर्देशन में 1948 में बनी देव आनन्द और कामिनी कौशल अभिनीत 'जिद्दी' फिल्म में बतौर खलनायक के रूप में काम करने का अवसर मिला। फिल्म 'जिद्दी' की सफलता के बाद प्राण ने यह निश्चय किया कि वह खलनायकी को हीं अपने सिने करियर का आधार बनायेंगे और इसके बाद प्राण ने खलनायकी की लंबी पारी खेली और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। सत्तर के दशक में प्राण खलनायक की छवि से बाहर निकलकर चरित्र भूमिका पाने की कोशिश में लग गये। वर्ष 1967 में निर्माता-निर्देशक मनोज कुमार ने अपनी फिल्म 'उपकार' में प्राण को मलंग काका का एक ऐसा रोल दिया जो प्राण के सिने करियर में मील का पत्थर साबित हुआ। फिल्म 'उपकार' में प्राण ने मलंग काका के रोल को इतनी शिद्दत के साथ निभाया कि लोग प्राण के खलनायक होने की बात भूल गए। इस फिल्म के बाद प्राण के पास चरित्र भूमिका निभाने का तांता सा लग गया। इसके बाद उन्होंने सत्तर से नब्बे के दशक तक अपनी चरित्र भूमिकाओं से दर्शकों का मन मोहे रखा। प्राण को उनके दमदार अभिनय के लिए तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1967 में प्रदर्शित फिल्म 'उपकार' के लिए प्राण को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के लिए पहला पुरस्कार मिला। इसके बाद बाद 1970 में फिल्म 'आंसू बन गए फूल' और वर्ष 1973 में फिल्म 'बेईमान' के लिए भी प्राण को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन सबके साथ ही वर्ष 1997 में उन्हें लाइफ टाइम एचीवमेंट पुरस्कार से और 'सदी के खलनायक' से सम्मानित किया गया। फिल्म के क्षेत्र में उनके बहुमूल्य योगदान को देखते हुए उन्हें 2001 में पद्मभूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। प्राण की जीवनी पर 'टाइटल एंड प्राण' नामक किताब भी लिखी जा चुकी है। पुस्तक का यह टाइटल इसलिए रखा गया है, क्योंकि प्राण की अधिकतर फिल्मों में उनका नाम सभी कलाकारों के बाद 'एंड प्राण' लिखा हुआ आता था। कभी-कभी उनके नाम को इस तरह पेश किया जाता था 'अबोव आल प्राण'। प्राण ने अपने छह दशक लंबे सिने करियर में लगभग 350 फिल्मों में काम किया। उनके करियर की उल्लेखनीय फिल्मों में 'बडी बहन', 'आह', 'बिराज बहू', 'आजाद', 'हलाकू', 'मुनीमजी', 'मधुमती', 'छलिया', 'जिस देश में गंगा बहती है', 'हाफ टिकट', 'कश्मीर की कली', 'शहीद', 'दो बदन', 'राम और श्याम', 'उपकार', 'ब्रह्मचारी', 'जानी मेरा नाम', 'अधिकार', 'गुड्डी', 'परिचय', 'विक्टोरिया नम्बर 203', 'बॉबी', 'जंजीर', 'मजबूर', 'कसौटी', 'अमर अकबर एंथनी', 'डॉन', 'कालिया', 'शराबी', 'सनम बेवफा' और 'मृत्युदाता' आदि शामिल हैं। अपने जीवन के लगभग 90 बसंत देख चुके प्राण इस उम्र में टेलीविजन पर अपने पसंदीदा खेल, फुटबाल, हाकी और क्रिकेट के मैच देखकर तथा बागबानी, अध्ययन और अपने पालतू कुत्तों की देखभाल में समय बिताते हैं।
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13-02-2012, 02:10 AM | #110 |
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Re: कतरनें
13 फरवरी को जयंती के अवसर पर
स्वतंत्रता आंदोलन के साथ साहित्य के मोर्चे पर अहम योगदान रहा सरोजिनी नायडू का स्वतंत्रता अदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष ‘स्वर कोकिला’ सरोजिनी नायडू ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई बल्कि साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। गांधीवादी नेता एन वासुदेवन ने कहा कि सरोजिनी नायडू ने गांधीजी के साथ मिलकर स्वतंत्रता स्वतंत्रता आंदोलन में बढ-चढकर हिस्सा लिया। सरोजिनी नायडू ने गांधी जी के दांडी मार्च में भाग लिया और समुद्र से मुट्ठी भर नमक उठाकर नमक कानून तोड़ा। उन्होंने कहा कि प्यार से गांधीजी को मिकी माउस कहकर पुकारने वाली सरोजिनी नायडू ने सैकड़ों हजारों महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा। उन्होंने गांधीजी की तुलना ईसा मसीह, मोहम्मद पैगंबर साहब और महात्मा बुद्ध से की थी। उनका गांधी और नेहरू से घनिष्ठ संबंध था। तेरह फरवरी 1879 को जन्मी सरोजिनी नायडू बहुत ही मेधावी छात्र थीं और वह महज 12 साल की उम्र में मद्रास विश्वविद्यालय से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में शीर्ष पर रहीं। उनके वैज्ञानिक पिता अगोरनाथ चट्टोपाध्याय उन्हें गणितज्ञ या वैज्ञानिक बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी दिलचस्पी काव्य में थी। उन्होंने अंग्रेजी में कविताएं लिखनी शुरू कर दी। उनके काव्य कौशल से प्रभावित होकर हैदराबाद के निजाम ने उन्हें विदेश जाकर पढने के लिए छात्रवृत्ति दी। सरोजिनी नायडू ने किंग्स लंदन कॉलेज और गिरटन कालेज में अध्ययन किया। वहां समकालीन साहित्यिक हस्ताक्षर एडमंड गौस ने उन्हें भारतीय विषयों जैसे पर्वत, नदियां, मंदिर, आदि को कविताओं में व्यक्त करने की प्रेरणा दी। वासुदेवन कहते हैं कि नेहरू ने उनके बारे में कहा था कि उनका पूरा जीवन कविता और गीत था। पंद्रह साल की उम्र में वह डॉ गोविंदराजूलू नायडू से मिलीं और दोनों में प्यार हो गया। अध्ययन समाप्त करने के बाद 19 साल की उम्र में सरोजनी नायडू ने गोविंदराजूलू से अंतर-जातीय विवाह किया जो उस काल के लिए क्रांतिकारी कदम था। हालांकि पिता ने उनका पूरा समर्थन किया। वह 1905 में बंगाल विभाजन की पृष्ठभूमि में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ीं। वह गोपाल कृष्ण गोखले, रवींद्रनाथ टैगोर, मुहम्मद अली जिन्ना, एनी बेंसेंट, सी पी रामस्वामी अय्यर, गांधीजी एवं नेहरूजी के संपर्क में आयीं। उन्होंने देश में भ्रमण कर महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा। सन् 1925 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया और वह गांधीजी तथा अन्य नेताओं के साथ जेल गयीं। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वह गांधीजी के साथ 21 माह जेल में रहीं और गांधीजी के करीब आयीं। स्वतंत्रता के बाद वह उत्तर प्रदेश की गर्वनर बनीं। वह देश की पहली महिला गर्वनर थीं। हालांकि उनका कार्यकाल महज 18 माह का रहा। वह दो मार्च, 1949 को चल बसीं। उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियां ‘द गोल्डेन थ्रेशहोल्ड’, ‘द बर्ड आफ द टाइम’ और ‘द ब्रोकन विंग’ हैं।
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