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Old 16-11-2012, 07:01 AM   #101
amol
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

बालि तुरन्त निकल आया। सुगरीव के डींग मारने पर आज उसे बड़ा क्रोध आया। उसने निश्चय कर लिया था कि आज इसे जीवित न छोडूंगा। दोनों फिर उसी मैदान में आकर लड़ने लगे। बालि ने तनिक देर में सुगरीव को दे पटका और उसकी छाती पर सवार होकर चाहता था कि उसका सिर काट ले कि एकाएक किसी ओर से एक ऐसा तीर आकर उसके सीने में लगा कि तुरन्त नीचे गिर पड़ा। सीने से रुधिर की धारा बहने लगी। उसके समझ में न आया कि यह तीर किसने मारा! उसके राज्य में तो कोई ऐसा पुरुष न था, जिसके तीर में इतना बल होता।
वह इसी असमंजस में पड़ा चिल्ला रहा था कि राम और लक्ष्मण धनुष और बाण लिये सामने आ खड़े हुए। बालि समझ गया कि रामचन्द्र ने ही उसे तीर मारा है। बोला— क्यों महाराज! मैंने तो सुना था कि तुम बड़े धमार्त्मा और वीर हो। क्या तुम्हारे देश में इसी को वीरता कहते हैं कि किसी आदमी पर छिपकर वार किया जाय! मैंने तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा था ! रामचन्द्र ने उत्तर दिया—मैंने तुम्हें इसलिए नहीं मारा कि तुम मेरे शत्रु हो, किन्तु इसलिए कि तुमने अपने वंश पर अत्याचार किया है और सुगरीव की पत्नी को अपने घर में रख लिया। ऐसे आदमी का बध करना पाप नहीं है। तुम्हें अपने सगे भाई के साथ ऐसा दुव्र्यवहार नहीं करना चाहिए था। तुम समझते हो कि राजा स्वतन्त्र है, वह जो चाहे, कर सकता है। यह तुम्हारी भूल है। राजा उसी समय तक स्वतंत्र है, जब तक वह सज्जनता और न्याय के मार्ग पर चलता है। जब वह नेकी के रास्ते से हट जाय, तो परत्येक मनुष्य का, जो पयार्प्त बल रखता हो, उसे दण्ड देने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त सुगरीव मेरा मित्र है, और मित्र का शत्रु मेरा शत्रु है। मेरा कर्तव्य था कि मैं अपने मित्र की सहायता करता।
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Old 16-11-2012, 07:02 AM   #102
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

बालि को घातक घाव लगा था। जब उसे विश्वास हो गया कि अब मैं कुछ क्षणों का और मेहमान हूं, तो उसने अपने पुत्र अंगद को बुलाकर सिपुर्द किया और बोला—सुगरीव! अब मैं इस संसार से बिदा हो रहा हूं। इस अनाथ लड़के को अपना पुत्र समझना। यही तुमसे मेरी अन्तिम विनती है। मैंने जो कुछ किया, उसका फल पाया। तुमसे मुझे कोई शिकायत नहीं। जब दो भाई लड़ते हैं, तो विनाश के सिवाय और फल क्या हो सकता है! बुराइयों को भूल जाओ। मेरे दुव्र्यवहारों का बदला इस अनाथ लड़के से न लेना। इसे ताने न देना। मेरी दशा से पाठ लो और सत्य के रास्ते से चलो। यह कहतेकहते बालि के पराण निकल गये। सुगरीव किष्किंधापुरी का राजा हुआ और अंगद राज्य का उत्तराधिकारी बनाया गया। तारा फिर सुगरीव की रानी हो गयी।
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Old 16-11-2012, 07:02 AM   #103
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

हनुमान

बरसात का मौसम आया। नदीनाले, झीलतालाब पानी से भर गये। मैदानों में हरियाली लहलहाने लगी। पहाड़ियों पर मोरों ने शोर मचाना परारम्भ किया। आकाश पर कालेकाले बादल मंडराने लगे। राम और लक्ष्मण ने सारी बरसात पहाड़ की गुफा में व्यतीत की। यहां तक कि बरसात गुजर गयी और जाड़ा आया। पहाड़ी नदियों की धारा धीमी पड़ गयी, कास के वृक्ष सफेद फूलों से लद गये। आकाश स्वच्छ और नीला हो गया। चांद का परकाश निखर गया। किन्तु सुगरीव ने अब तक सीता को ूंढ़ने का कोई परबन्ध न किया। न रामलक्ष्मण ही की कुछ सुध ली। एक समय तक विपत्तियां झेलने के पश्चात राज्य का सुख पाकर विलास में डूब गया। अपना वचन याद न रहा। अन्त में, रामचन्द्र ने परतीक्षा से तंग आकर एक दिन लक्ष्मण से कहा—देखते हो सुगरीव की कृतघ्नता! जब तक बालि न मरा था, तब तक तो रातदिन खुशामद किया करता था और जब राज मिल गया और किसी शत्रु का भय न रहा, तो हमारी ओर से बिल्कुल निशिंचत हो गया। तुम तनिक जाकर उसे एक बार याद तो दिला दो। यदि मान जाय तो शुभ, अन्यथा जिस बाण से बालि को मारा, उसी बाण से सुगरीव का अन्त कर दूंगा।
लक्ष्मण तुरन्त किष्किन्धा नगरी में परविष्ट हुए और सुगरीव के पास जाकर कहा— क्यों साहब ! सज्जनता और भलमंसी के यही अर्थ हैं कि जब तक अपना स्वार्थ था, तब तक तो रातदिन घेरे रहते थे और जब राज्य मिला तो सारे वायदे भूल बैठे? कुशल चाहते हो तो तुरन्त अपनी सेना को सीता की खोज में रवाना करो, अन्यथा फल अच्छा न होगा। जिन हाथों ने बालि का एक क्षण में अन्त कर दिया, उन्हें तुमको मारने में क्या देर लगती है। रास्ता देखतेदेखते हमारी आंखें थक गयीं, किन्तु तुम्हारी नींद न टूटी। तुम इतने शीलरहित और स्वार्थी हो? मैं तुम्हें एक मास का समय देता हूं। यदि इस अवधि के अन्दर सीताजी का कुछ पता न चल सका तो तुम्हारी कुशल नहीं। सुगरीव को मारे लज्जा के सिर उठाना कठिन हो गया। लक्ष्मण से अपनी भूलों की क्षमा मांगी और बोला—वीर लक्ष्मण ! मैं अत्यन्त लज्जित हूं कि अब तक अपना वचन न पूरा कर सका। श्री रामचन्द्र ने मुझ पर जो एहसान किया, उसे मरते दम तक न भूलूंगा। अब तक मैं राज्य की परेशानियों में फंसा हुआ था। अब दिल और जान से सीताजी की खोज करुंगा। मुझे विश्वास है कि एक महीने में मैं उनका पता लगा दूंगा।
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Old 16-11-2012, 07:02 AM   #104
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

यह कहकर वह लक्ष्मण के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर चला आया जहां राम और लक्ष्मण रहते थे। और यहीं से सीताजी की तलाश करने का परबन्ध करने लगा। विश्वासी और परीक्षायुक्त आदमियों को चुनचुन कर देश के हरेक हिस्से में भेजना शुरू किया। कोई पंजाब और कंधार की तरफ गया, कोई बंगाल की ओर, कोई हिमालय की ओर। हनुमान उन आदमियों में सबसे वीर और अनुभवी थे। उन्हें उसने दक्षिण की ओर भेजा। क्योंकि अनुमान था कि रावण सीता को लेकर लंका की ओर गया होगा। हनुमान की मदद के लिये अंगद, जामवंत, नील, नल इत्यादि वीरों को तैनात किया। रामचन्द्र हनुमान से बोले—मुझे आशा है कि सफलता का सेहरा तुम्हारे ही सिर रहेगा।
हनुमान से कहा—यदि आपका यह आशीवार्द है तो अवश्य सफल होऊंगा। आप मुझे कोई ऐसी निशानी दे दीजिये, जिसे दिखाकर मैं सीताजी को विश्वास दिला सकूं। रामचन्द्र ने अपनी अंगूठी निकालकर हनुमान को दे दी और बोले—यदि सीता से तुम्हारी मुलाकात हो, तो उन्हें समझाकर कहना कि राम और लक्ष्मण तुम्हें बहुत शीघर छुड़ाने आयेंगे। जिस परकार इतने दिन काटे हैं, उसी परकार थोड़े दिन और सबर करें। उनको खूब ाढ़स देना कि शोक न करें। यह समय का उलटफेर है। न इस तरह रहा, न उस तरह रहेगा। यदि ये विपत्तियां न झेलनी होतीं, तो हमारा वनवास ही क्यों होता। राज्य छोड़कर जंगलों में मारेमारे फिरते। हर हालत में ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिये, हम सब उसी की इच्छा के पुतले हैं।
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Old 16-11-2012, 07:02 AM   #105
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

हनुमान अंगूठी लेकर अपने सहायकों के साथ चले। किन्तु कई दिन के बाद जब लंका का कुछ ठीक पता न चला और रसद का सामान सबका-सब खर्च हो गया, तो अंगद और उनके कई साथी वापस चलने को तैयार हो गये। अंगद उनका नेता बन बैठा। यद्यपि वह सुगरीव की आज्ञा का पालन कर रहा था, पर अभी तक अपने पिता का शोक उसके दिल में ताजा था। एक दिन उसने कहा—भाइयो, मैं तो अब आगे नहीं जा सकता। न हमारे पास रसद है, न यही खबर है कि अभी लंका कितनी दूर है। इस परकार घासपात खाकर हम लोग कितने दिन रहेंगे? मुझे तो ऐसा परतीत होता है कि चाचा सुगरीव ने हमें इधर इसलिए भेजा है कि हम लोग भूखप्यास से मर जायं और उसे मेरी ओर से कोई खटका न रहे। इसके सिवाय उसका और अभिपराय नहीं। आप तो वहां आनन्द से बैठे राज कर रहे हैं और हमें मरने के लिए इधर भेज दिया है। वही रामचन्द्र तो हैं, जिन्होंने मेरे पिता को छल से कत्ल किया। मैं क्यों उनकी पत्नी की खोज में जान दूं? मैं तो अब किष्किन्धानगर जाता हूं और आप लोगों को भी यही सलाह देता हूं। और लोग तो अंगद के साथ लौटने पर लगभग परस्तुतसे हो गये; किन्तु हनुमान ने कहा—जिन लोगों को अपने वचन का ध्यान न हो वह लौट जायं। मैंने तो परण कर लिया है कि सीता जी का पता लगाये बिना न लौटूंगा, चाहे इस कोशिश में जान ही क्यों न देनी पड़े। पुरुषों की बात पराण के साथ है। वह जो वायदा करते हैं, उससे कभी पीछे नहीं हटते। हम रामचन्द्र के साथ अपने कर्तव्य का पालन न करके अपनी समस्त जाति को कलंकित नहीं कर सकते। आप लोग लक्ष्मण के क्राध से अभिज्ञ नहीं, मैं उनका क्रोध देख चुका हूं। यदि आप लोग वायदा न पूरा कर सके तो समझ लीजिये कि किष्किन्धा का राज्य नष्ट हो जायगा।
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Old 16-11-2012, 07:02 AM   #106
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हनुमान के समझाने का सबके ऊपर परभाव हुआ। अंगद ने देखा कि मैं अकेला ही रह जाता हूं; तो उसने भी विप्लव का विचार छोड़ दिया। एक बार फिर सबने मजबूत कमर बांधी और आगे ब़े। बेचारे दिन भर इधरउधर भटकते और रात को किसी गुफा में पड़े रहते थे। सीता जी का कुछ पता न चलता था। यहां तक कि भटकते हुए एक महीने के करीब गुजर गया। राजा सुगरीव ने चलते समय कह दिया था कि यदि तुम लोग एक महीने के अन्दर सीता जी का पता लगाकर न लौटोगे तो मैं किसी को जीवित न छोडूंगा। और यहां यह हाल था कि सीता जी की कुछ खबर ही नहीं। सबके-सब जीवन से निराश हो गये। समझ गये कि इसी बहाने से मरना था। इस तरह लौटकर मारे जाने से तो यह कहीं अच्छा है कि यहीं कहीं डूब मरें।
एक दिन विपत्ति के मारे यह बैठे सोच रहे थे कि किधर जायं कि उन्हें एक बूढ़ा साधु आता हुआ दिखायी दिया। बहुत दिनों के बाद इन लोगों को आदमी की सूरत दिखायी दी। सबने दौड़कर उसे घेर लिया और पूछने लगे—क्यों बाबा, तुमने कहीं रानी सीता को देखा है, कुछ बतला सकते हो, वह कहां हैं ? इस साधु का नाम सम्पाति था। वह उस जटायु का भाई था, जिसने सीताजी को रावण से छीन लेने की कोशिश में अपनी जान दे दी थी। दोनों भाई बहुत दिनों से अलगअलग रहते थे। बोला—हां भाई, सीता को लंका का राजा रावण अपने रथ पर ले गया है। कई सप्ताह हुए, मैंने सीता जी को रोते हुए रथ पर जाते देखा था। क्या करुं, बुढ़ापे से लाचार हूं, वरना रावण से अवश्य लड़ता। तब से इसी फिक्र में घूम रहा हूं, कि कोई मिल जाय तो उससे यह समाचार कह दूं। कौन जाने कब मृत्यु आ जाय। तुम लोग खूब मिले। अब मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया।
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Old 16-11-2012, 07:03 AM   #107
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हनुमान ने पूछा—लंका किधर है और यहां से कितनी दूर है, बाबा?
सम्पाति बोला—दक्षिण की ओर चले जाओ। वहां तुम्हें एक समुद्र मिलेगा। समुद्र के उस पार लंका है। यहां से कोई सौ कोस होगा।
यह समाचार सुनकर उस दल के लोग बहुत परसन्न हुए। जीवन की कुछ आशा हुई। उसी समय चाल तेज कर दी और दो दिनों में रातदिन चलकर सौ कोस की मंजिल पूरी कर दी। अब समुद्र उनके सामने लहरें मार रहा था। चारों ओर पानी ही पानी। जहां तक निगाह जाती, पानी ही पानी नज़र आता था। इन बेचारों ने इतना चौड़ा नद कहां देखा था। कई आदमी तो मारे भय के कांप उठे। न कोई नाव थी, न कोई डोंगी, समुद्र में जायं तो कैसे जायं। किसी की हिम्मत न पड़ती थी। नल और नील अच्छे इंजीनियर थे, मगर समुद्र में तैरने योग्य नाव बनाने के लिए न काई सामान था, न समय। इसके अलावा कोई युक्ति न थी कि उनमें से कोई समुद्र में तैरकर लंका में जाय और सीता जी की खबर लाये। अन्त में बू़े जामवन्त ने कहा—क्यों भाइयो, कब तक इस तरह समुद्र को सहमी हुई आंखों से देखते रहोगे ? तुममें कोई इतनी हिम्मत नहीं रखता कि समुद्र को तैर कर लंका तक जाय ?
अंगद ने कहा—मैं तैरकर जा तो सकता हूं, पर शायद लौटकर न आ सकूं।
नल ने कहा—मैं तैरकर जा सकता हूं, पर शायद लौटते वक्त आधी दूर आतओते बेदम हो जाऊं। नील बोला—जा तो मैं भी सकता हूं और शायद यहां तक लौट भी आऊं। मगर लंका में सीता जी का पता लगा सकूं, इसका मुझे विश्वास नहीं।
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Old 16-11-2012, 07:03 AM   #108
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इस तरह सबों ने अपनेअपने साहस और बल का अनुमान लगाया। किन्तु हनुमान जी अभी तक चुप बैठे थे। जामवन्त ने उनसे पूछा—तुम क्यों चुप हो, भगत जी? बोलते क्यों नहीं? कुछ तुमसे भी हो सकेगा ?
हनुमान ने कहा—मैं लंका तक तैरकर जा सकता हूं। तुम लोग यहीं बैठे हुए मेरी परतीक्षा करते रहना।
जामवन्त ने हंसकर कहा—इतना साहस होने पर भी तुम अब तक चुप बैठे थे।
हनुमान ने उत्तर दिया—केवल इसलिए कि मैं औरों को अपना गौरव और यश ब़ाने का मौका देना चाहता था। मैं बोल उठता तो शायद औरों को यह खेद होता कि हनुमान न होते तो मैं इस काम को पूरा करके राजा सुगरीव और राजा रामचन्द्र दोनों का प्यारा बन जाता। जब कोई तैयार न हुआ तो विवश होकर मुझे इस काम का बीड़ा उठाना पड़ा। आप लोग निश्चिन्त हो जायं। मुझे विश्वास है कि मैं बहुत शीघर सफल होकर वापस आऊंगा।
यह कहकर हनुमान जी समुद्र की ओर पुरुषोचित दृ़ पग उठाते हुए चले।
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Old 16-11-2012, 07:03 AM   #109
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लंका में हनुमान
रासकुमारी से लंका तक तैरकर जाना सरल काम न था। इस पर दरियाई जानवरों से भी सामना करना पड़ा। किन्तु वीर हनुमान ने हिम्मत न हारी। संध्या होतेहोते वह उस पार जा पहुंचे। देखा कि लंका का नगर एक पहाड़ की चोटी पर बसा हुआ है। उसके महल आसमान से बातें कर रहे हैं। सड़कें चौड़ी और साफ हैं। उन पर तरहतरह की सवारियां दौड़ रही हैं। पगपग पर सज्जित सिपाही खड़े पहरा दे रहे हैं। जिधर देखिये, हीरेजवाहर के ेर लगे हैं। शहर में एक भी गरीब आदमी नहीं दिखायी देता। किसीकिसी महल के कलश सोने के हैं, दीवारों पर ऐसी सुन्दर चित्रकारी की हुई है कि मालूम होता है कि सोने की हैं। ऐसा जनपूर्ण और श्रीपूर्ण नगर देखकर हनुमार चकरा गये। यहां सीताजी का पता लगाना लोहे के चने चबाना था। यह तो अब मालूम ही था कि सीता रावण के महल में होंगी। किन्तु महल में परवेश कैसे हो? मुख्य द्वार पर संतरियों का पहरा था। किसी से पूछते तो तुरन्त लोगों को उन पर सन्देह हो जाता। पकड़ लिये जाते। सोचने लगे, राजपरासाद के अन्दर कैसे घुसूं? एकाएक उन्हें एक बड़ा छतनार वृक्ष दिखायी दिया, जिसकी शाखाएं महल के अन्दर झुकी हुई थीं। हनुमान परसन्नता से उछल पड़़े। पहाड़ों में तो वे पैदा हुए थे। बचपन ही से पेड़ों पर च़ना, उचकना, कूदना सीखा था। इतनी फुरती से पेड़ों पर च़ते थे कि बन्दर भी देखकर शरमा जाय। पहरेदारों की आंख बचाकर तुरन्त उस पेड़ पर च़ गये और पत्तियों में छिपे बैठे रहे। जब आधी रात हो गयी और चारों ओर सन्नाटा छा गया, रावण भी अपने महल में आराम करने चला गया तो वह धीरे से एक डाल पकड़कर महल के अन्दर कूद पड़े।
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Old 16-11-2012, 07:03 AM   #110
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Default Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद

महल के अन्दर चमकदमक देखकर हनुमान की आंखों में चकाचौंध आ गयी। स्फटिक की पारदर्शी भूमि थी। उस पर फानूस की किरण पड़ती थी, तो वह दम्दम करने लगती थी। हनुमान ने दबेपांव महलों में घूमना शुरू किया। रावण को देखा, एक सोने के पलंग पर पड़ा सो रहा है। उसके कमरे से मिले हुए मन्दोदरी और दूसरी रानियों के कमरे हैं। मन्दोदरी का सौंदर्य देखकर हनुमान को सन्देह हुआ कि कहीं यही सीताजी न हों। किन्तु विचार आया, सीताजी इस परकार इत्र और जवाहर से लदी हुई भला मीठी नींद के मज़े ले सकती हैं? ऐसा संभव नहीं। यह सीताजी नहीं हो सकतीं। परत्येक महल में उन्होंने सुन्दर रानियों को मज़े से सोते पाया। कोई कोना ऐसा न बचा, जिसे उन्होंने न देखा हो। पर सीताजी का कहीं निशान नहीं। वह रंजोग़म से घुली हुई सीता कहीं दिखायी न दीं। हनुमान को संदेह हुआ कि कहीं रावण ने सीताजी को मार तो नहीं डाला! जीवित होतीं, तो कहां जातीं ?
हनुमान सारी रात असमंजस में पड़े रहे, जब सवेरा होने लगा और कौए बोलने लगे, तो वह उस पेड़ की डाल से बाहर निकल आये। मगर अब उन्हें किसी ऐसी जगह की ज़रूरत थी, जहां वह दिन भर छिप सकें। कल जब वह वहां आये तो शाम हो गयी थी। अंधेरे में किसी ने उन्हें देखा नहीं। मगर सुबह को उनका लिवास और रूपरंग देखकर निश्चय ही लोग भड़कते और उन्हें पकड़ लेते। इसलिए हनुमान किसी ऐसी जगह की तलाश करने लगे जहां वह छिपकर बैठ सकें। कल से कुछ खाया न था। भूख भी लगी हुई थी। बाग़ के सिवा और मु़त के फल कहां मिलते। यही सोचते चले जाते थे कि कुछ दूर पर एक घना बाग़ दिखायी दिया। अशोक के बड़ेबड़े पेड़ हरीहरी सुन्दर पत्तियों से लदे खड़े थे। हनुमान ने इसी बाग़ में भूख मिटाने और दिन काटने का निश्चय किया। बाग़ में पहुंचते ही एक पेड़ पर च़कर फल खाने लगे। एकाएक कई स्त्रियों की आवाजें सुनायी देने लगीं। हनुमान ने इधर निगाह दौड़ायी तो देखा कि परम सुन्दरी स्त्री मैलेकुचैले कपड़े पहने, सिर के बाल खोले, उदास बैठी भूमि की ओर ताक रही है और कई राक्षस स्त्रियां उसके समीप बैठी हुई उसे समझा रही हैं। हनुमान उस सुन्दरी को देखकर समझ गये कि यही सीताजी हैं। उनका पीला चेहरा, आंसुओं से भीगी हुई आंखें और चिन्तित मुख देखकर विश्वास हो गया। उनके जी में आया कि चलकर इस देवी के चरणों पर सिर रख दूं और सारा हाल कह सुनाऊं। वह दरख्त से उतरना ही चाहते थे कि रावण को बाग़ में आते देखकर रुक गये। रावण घमण्ड से अकड़ता हुआ सीता के पास जाकर बोला—सीता, देखो, कैसा सुहावना समय है, फूलों की सुगन्ध से मस्त होकर हवा झूम रही है! चिड़ियां गा रही हैं, फूलों पर भौंरे मंडरा रहे हैं। किन्तु तुम आज भी उसी परकार उदास और दुःखित बैठी हुई हो। तुम्हारे लिए जो मैंने बहुमूल्य जोड़े और आभूषण भेजे थे, उनकी ओर तुमने आंख उठाकर भी नहीं देखा। न सिर में तेल डाला, न इत्र मला। इसका क्या कारण है ? क्या अब भी तुम्हें मेरी दशा पर दया न आयी।
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