15-05-2011, 08:15 PM | #101 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
अम्मा ने समझाया, तुमसे उसका विवाह हुआ है बेटी जान, घूंघट उठाने में कोई ऐब नहीं. उसकी जिद पूरी कर दो. मुग़ल बचे की आन रह जायेगी.तुम्हारी दुनिया संवर जायेगी गोदी में फूल बरसेंगे. अल्लाह रसूल का हुक्म पूरा होगा. गोरी बी सर झुकाए सुनती रहीं कच्ची कली सात साल में क़यामत ढहा देनेवाली दोशीजा (युवती) बन चुकी थी. हुस्न और जवानी का एक तूफ़ान था जो तन-मन से फूटा निकलता था. औरत काले मियां की सबसे बड़ी कमजोरी थी. उनके सबके सब सोच-विचार इस नुक्ते पर मरकूज (केंद्रित) थे. मगर उनकी कसम एक करोंदार लोहे के गोले की तरह उनके कंठ में फंसी हुयी थी. उनकी हवस के सात सालों ने आंखमिचौली खेली थी. उन्होंने बीसिओं घूंघट नोच डाले. रंडीबाजी, लौंडेबाजी, बटेरबाजी, कबूतरबाजी मतलब कोई बाजी नहीं छोड़ी थी. मगर गोरी बी के घूंघट की चोट दिल में पंजे गाडे रही जो सात साल सहलाने के बाद घाव बन चुकी थी. इस बार उन्हें यकीन था कि उनकी कसम पूरी होगी. गोरी बी ऐसी अकल की कोरी नहीं कि जीने का यह आखिरी मौका भी गँवा दे. दो उँगलियों से हल्का-फुल्का आँचल ही तो सरकाना है. कोई पहाड तो नहीं ढोना.
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15-05-2011, 08:20 PM | #102 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
"घूंघट उठाओ," काले मियां ने नरमी से कहना चाह, मगर मुग़लवी दबदबा फ़तेह रहा.
गोरी बेगम गरूर से तमतमाई सन्नाटे में बैठी रही. "आखिरी बार हुक्म देता हूँ. घूंघट उठा दो, वरना इसी तरह पड़ी सड जाओगी. अब जो गया, फिर न आऊंगा." मारे गुस्से के गोरी बी लाल भभूका हो गयीं. काश उनके सुलगते हुए चेहरे से एक शोला लपकता और वो मनहूस घूंघट जल कर ख़ाक हो जाता! बीच कमरे में खड़े काले मियां कौडियाले सांप की तरह झूमते रहे. फिर जूते बगल में दबाए पांयीबाग में उतर गए. जमाना बीत गया. अब तो पांयीबाग कंहा? उधर पिछवाड़े लकडियों की टाल लग गयी. बस दो जामुन के पेड रह गए थे और एक कद्दावर बरगद. बेले-चमेली की झाडियाँ, गुलाबों के झुण्ड, शहतूत और अनार के दरख़्त पेड कब के लुट-पिट चुके.
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15-05-2011, 08:26 PM | #103 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
जब तक माँ जिन्दा रहीं, गोरी बी को संभाले रही. उनके बाद वह ड्यूटी गोरी बी ने खुद संभल ली. हर जुमेरात को मेहँदी पीस कर पाबन्दी से लगातीं, दुपट्टा रंग चुन कर गोटा टांकती और जब तक ससुराल जिन्दा रही, हर त्यौहार पर सलाम करने जाती रहीं.
अब की तो काले मियां गायब ही हो गए. बरसों उनका सुराग न मिला. माँ-बाप रो-रोकर अंधे हो गए. वह न जाने किन जंगलो की खाक छानते फिरे. कभी दरगाहों में उनका पता मिलता, कभी किसी मंदिर की सीढियों पर पड़े पाए जाते. गोरी बी के सुनहले बालों में चांदी फूल गयी. मौत की झाडू काम करती रही. आस-पास की जमीने और मकान कौडियों के मोल बिकते गए, कुछ पर नए लोग जबरदस्ती बस गए. कुंजरे-कसाई आन बसे. पुराने महल ढहकर नयी दुनिया की नीव पड़ने लगी. परचून की दुकान, डिस्पेंसरी, एक मरगिल्ला-सा जनरल स्टोर भी उग आया, जहाँ अल्युमिनियम की पतिलियाँ और लिप्टन की चाय की पुडियों के हार लटकने लगे.
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15-05-2011, 08:33 PM | #104 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
एक अधमुई मुट्ठी की दौलत रिस-रिसकर बिखर रही थी, कुछ जानदार उँगलियाँ समटने में लगी थीं. जो कल तक पलंग की अदवाईन पर बैठते थे, झुक-झुककर सलाम करते थे, आज साथ उठाना-बैठना भी अपनी शान के खिलाफ समझने लगे.
गोरी बी का जेवर आहिस्ता-आहिस्ता लालाजी की तिजोरी में पहुँच गया. दीवारें ढह रही थीं. छज्जे झूल रहे थे बचे-खुचे मुग़ल बच्चे अफीम का अंटा निगल कर पतंगों के पेंच लड़ा रहे थे. तीतर-बटेर साधा रहे थे और कबूतरों की दुमों के पर गिन कर हलकान हो रहे थे. लफ्ज "मिर्जा" जो कभी शान और दबदबे की निशानी समझा जाता था मजाक बन रहा था. गोरी बी कोल्हू के अंधे बैल की तरह जिंदगी के छकरे में जुटी धुरी पर घूमें जा रही थी. उनकी नीली आँखों में सूनेपन ने डेरा डाल दिया था. उनके लिए तरह-तरह की कहानियां मशहूर थीं कि उनके ऊपर जिन्नो का बादशाह आशिक था. ज्योंही काले मियां उनके घूंघट को हाथ लगते चाट तलवार सूत कर खड़ा हो जाता. हर जुमेरात को आधीरात की जमात के बाद वजीफा पढ़ती तो सारा आंगन कौडीयाले साँपों से भर जाता. फिर सुनहरी मुकुट वाला नागराज अजगर पर सवार हो कर आता है. गोरी बी की पाट की धुन पर सर धुनता है. पौ फटते ही सब सिधार जाते हैं. जब हम किस्से सुनते तो कलेजे उछल कर हलक में फँस जाते. और रात को साँपों की फुन्कारे सुन कर उठते और चीखें मारने लगते. गोरी बी ने सारी उम्र कैसे कैसे नाग खिलाएं होंगे, कैसे अकेली नामुराद जिंदगी का बोझ ढोया होगा? उनके रसीलें होंठो को कभी किसी ने नहीं चूमा. उन्होंने अपने जिस्म की पुकार को क्या जवाब दिया होगा? अच्छा होता ये कहानी यही खत्म हो जाती. किस्मत मुस्करा रही थी.
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15-05-2011, 08:51 PM | #105 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
पूरे चालीस बरस बाद काले मियां अचानक आप ही आ धमके. उन्हें किस्म-किस्म की लाइलाज बीमारियाँ लग चुकी थी. पोर-पोर सड रही थी. रोम-रोम रिस रहा था. बदबू के मरे नाक सडी जाती थी. मगर आँखों में हसरते जाग रही थी जिनके सहारे जान सीने में अटकी हुयी थी.
"गोरी बी से कहो मुश्कील आसान कर जाये." एक कम साठ बरस की दुलहन ने रूठे हुए दूल्हा को मनाने की तैय्यारियाँ शुरू कर दी. मेंहदी घोल कर हाथ-पैरों में रची. पानी गर्म करके पिंडा पाक किया. सुहाग का चिकटा हुआ तेल सफ़ेद लटों में बसाया. संदूक खोल कर घर-भर टपकता-झड़ता शादी का जोड़ा निकाल कर पहना और इधर काले मियां दम तोड़ते रहे. जब गोरी बी शर्माती-लजाती धीरे-धीरे कदम उठती उनके सिरहाने पहुंची तो झिलंगे पलंग पर चीकट तकिये और गूदड बिस्तर पर पड़े हुए काले मियां की मुर्दा हड्डियों में जिंदगी की लहर दौड गयी. मलकूल-मौत (यमदूत) से जूझते हुए काले मियां ने हुकुम दिया. "गोरी बी, घूंघट उठाओ!" गोरी बी के हाथ उठे लेकिन घूंघट तक पहुँचने से पहले गिर गए. काले मियां दम तोड़ चुके थे. वो बड़े सुकून से उकडू बैठ गयी. सुहाग कि चूडियाँ ठंडी की और रंडापे का सफ़ेद आँचल माथे पर खींच लिया. ---------------------xxxxxxxxxx-------------------------
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22-05-2011, 07:13 PM | #106 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
नन्ही सी जान
" तो आप फिर अब क्या होगा?" "अल्लाह जाने क्या होगा! मुझे तो सुबह से डर लग रहा है." निजहत ने कंघी में से उलझे हुए बाल निकलकर ऊँगली पर लपेटने शुरू किये. दिमागी उलझन की वजह से उसके हाथ कमजोर हो कर काँप रहे थे और बालों का गुच्छा फिसला जाता था. " अब्बा सुनेंगे तो बस अंधेर हो जायेगा. खुदा करे, उन्हें न मालूम हो. मुझे उनके गुस्से से तो डर ही लगता है." "तुम समझती हो, यह बात छिपी रहेगी? अम्मी को तो कल ही शक हुआ था कि दाल में कुछ काला है. पर वह सौदे के दाम देने में लग गयीं और शायद फिर भूल गयीं. और आज तो..." " हाँ आपा, छिपानेवाली बात तो नहीं. मैं तो कहती हूँ, जब रसूलन के अब्बा को खबर होगी, तब क्या होगा? खुदा कसम भूत है वह तो.. मार ही डालेगा....हमेशा ऐसे ही मारता है कि..." "और उसने किसी को बताया भी तो नहीं. कैसी पक्की है! पिछली बार जब दीन मुहम्मद का किस्सा हुआ था, तो भी चुपके से खला के यहाँ भाग गयी... भाई जान दोनों को निकालने को कहते थे." बाल ज़माने के लिए वह ऊपर से महीन दाने की कंघी फेरने लगी. "हाँ, और उस बेचारे की इतनी-सी तो तनखाह है. भाई जान पुलिस में देने को कहते थे, और देख लेना, अबकी वह छोड़ने वाले नहीं. बहन, हद हो गयी, मालूम है अब्बा जान का गुस्सा!" "तो आपा, वह पुलिस में दे देंगे?" सलमा की आवाज बेकाबू हो गयी. "और नहीं, तो फिर क्या?" "फिर, फिर क्या होगा?... बेचारी रसूलन...आप...पुलिस के नाम से तो मेरा भी जी डरता है." "डरने की बात ही है..." पुलिस किसी की नहीं होती...वह तुम्हे याद है, नन्हू की बहू ने हंसली चुराई थी, तो दोनों गए थे जेलखाने." "हथकडिया डाल के ले जाते हैं...क्यों, आपा?" "हथकडियां और बेडियाँ" "लोहे की होती है न?" "हाँ, पक्के फौलादी लोहे की." "फिर कैसे उतरती होगी, मर जाते होंगे, तभी उतरती होंगी. क्या करेगी, बेचारी रसूलन?"
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22-05-2011, 07:16 PM | #107 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
"और क्या, बेचारी...भई मजाक थोड़े ही है...और तुमने देखा, उसने गाड़ा किस सफाई से बेचारे को. हिम्मत तो देखो, हमें भी न बताया. अरे, उसने तो किसी को बताया ही नहीं."
"कैसी बेरहम है...हाँ बेचारा बच्चा...उसका जी भी न दुखा...नन्ही सी जान!" "क्या मुश्किल से जान निकली होगी!" "मुश्किल से क्या निकली होगी. एक ऊँगली के इशारे से बेचारा खत्म हो गया होगा." "चलो, जरा उससे पूछे, कैसे मारा उसने?" दोनों डरी, सिमटी आँख बचाती, तलुओं से जूतियाँ चिपकाए गोदाम की ओर चलीं, जहाँ अनाज की गोल के पास टाट पर रसूलन पड़ी हुयी थी. पास ही दो-तीन नन्ही-नन्ही चुहियां गिरा-पड़ा अनाज और मिर्च के दाने लेने के लिए डरी-डरी घूम रही थीं. दोनों को देखकर ऐसे भागीं, जैसे वे मार ही तो देतीं. गो आनेवालियों के दिल चुहियों से भी ज्यादा बोदे थे. थोड़ी देर तक वे रसूलन के पीले चेहरे और पपड़ी जमे होंठ को देखती रहीं. रसूलन नौकरानी थी, पर वे बचपन से दोस्त ही रहीं. और वैसे थोड़ी-बहुत रसूलन ही मजे में थी. वह पर्दा नहीं करती थी और मजे से दुपट्टा फेंककर आम के पेड़ तले कूदा करती. ये दोनों, जब से इनके मामू रामपुर से आये थे, परदे में रहती थीं और गुलाब सगर्वाली नानी ने आकर सबको मोटी कलफदार मलमल की ओढनीयां बना दी थीं और घर से बाहर कदम रखना जुर्म था. यह रसूलन ही थी, जो उनपर तरसकर खाकर दो चार कोयल-मारी अम्बियाँ उन्हें भी खिड़की से दे देती थी, जहाँ वे परकटे तोतों की तरह टुकुर-टुकुर देखा करती थीं और मामू की मूंछ की नोक भी दिख जाये तो वे गडाप से पीछे कूद पड़ती थीं... और अब रसूलन पर यह विपदा पड़ी थी.
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22-05-2011, 07:20 PM | #108 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
"रसूलन! ....ए रसूलन! कैसा है जी?"
"जी!" रसूलन ने जैसे आह खींचकर कहा, " अच्छी हूँ, निजहत बी." "क्या बुखार तेज है...और दर्द अब भी है या गया?" "हाँ निजहत बी. सलमा बी..." "अरे भई फिर कुछ कर न. कह दे माँ से कि हकीम साहब के यहाँ से ला दे कोई दवा." "नहीं, बीबी..मार डालेगी माँ तो...वैसे ही गुस्से में रहती है...और अब तो और भी..." "हाँ! गरीब लड़की! मरती हो,तो कोई दवा लाकर न दे...हद है जुल्म की! सलमा की आँखे भर आईं. " मगर कब तक छिपाएगी...मिट्टी भी तो ठीक से नहीं डाली तूने." "क्या?" तो क्या सब को मालूम हो गया था? रसूलन और भी पीली पड़ गयी. उसके सुरमई गाल मिट्टी के रंग के हो गए. "अब तो बस हम से मत बनो. हमें सब मालूम है." "हैं? आपको..निजहत बी, आपने कहाँ देखा?" वह कांपकर उठने लगी. "और क्या, हमें कल ही मालूम हो गया था और हम पिछवाड़े जाकर देख आये. मैं और सलमा गए थे." "हाँ..हमने देख लिया!" सलमा जल्दी से बोली कि कहीं वह पीछे न रह जाये और रसूलन समझे सबकुछ आपा ही देख सकती हैं. "शी! इतने जोर से न बोलो..." दोनों खुद ही डरकर सिमटने लगीं. "हम और आप कल गए थे शाम को. फिर हमने ढूँढा, तो मेहँदी के पास हमें शक हुआ. फिर कमीज का कोना दिखाई दिया..जिसके चिथड़ों में लपेटा है तूने." "हाँ, दीन मुहम्मद की फटी हुयी कमीज...ओह! मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए.... बेचारे की गर्दन टेढ़ी हो गयी थी." निजहत ने जिबह की हुयी मुर्गी की तरह गर्दन अकडाई. "फिर...फिर सलमा बी... फिर आप ने कह दिया होगा सबसे...हाय! मेरे मालिक!मेरी माँ!" "हम ऐसे छिछोरे नहीं है, रसूलन...तेरी शिकायत कैसे कर देते...और फिर जबकि हमें मालूम है कि तू अकेली कसूरवार नहीं..यह दीन मुहम्मद..." "उस बदमाश का मेरे सामने नाम न लीजिए...बीबी.."
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22-05-2011, 07:22 PM | #109 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
"हम तो कितनी दफा कह चुके तुझे, उस कुत्ते से न बोला कर, हमेशा तुझे जलील कराता है...मगर..." अच्छा बीबी, अब उस मुए से बोलूँ, तो रसूलन नहीं, भंगन की जनी...बस..तो अब आप कह देंगी सब से, और जो सरकार को मालूम हो गया, तो खैर नहीं. हाय मेरे अल्लाह!...मैं तो मर ही जाऊं..." एक तो अँधेरा, दूसरे निडर चुहियां, फिर रसूलन मरने की धमकी दे! निजहत की उँगलियों की पोरीं ठंडी पड़ गयीं और सलमा की आँखों में मिर्चें लगने लगी. "कैसी बातें करती है, रसूलन!" सलमा की नाक जल उठी. "क्या करूँ, बीबी, जी करता है, अपना गला घोंट लूं." और वह जी छोड़कर सिसकियाँ भरने लगी. "हैं-हैं! रसूलन! क्या बात अपने मुँह से निकालती हो!खुदा सबका मददगार है. वही सबकी मुसीबत दूर करता है, मुझे तो उस नामुराद दीन मुहम्मद पर गुस्सा आ रहा है. जैसे उसका तो कुछ कुसूर ही नहीं. " निजहत ने कहा. " हाँ भई, लडको को कौन कुछ कहता है. दीन मुहम्मद कुछ भी कर दे, भाई जान हिमायती, अब्बा जान तरफदार. और बेचारी रसूलन!..ख्याल से मेरा कलेजा कटा जाता है. याद है, आपा पिछली दफा किया ग़दर मचा था. और रसूलन की माँ भी गरीब क्या करे? सच कहती है अम्मी. लड़कियां जन्म से खोटा नसीब ले कर आती है."
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22-05-2011, 07:26 PM | #110 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
सलमा के गालो पर सचमुच आंसुओं की लकीरें बहने लगीं. तीनो के गले भर आये और निजहत की नाक में चींटियाँ सी रेंगने लगी, मानो किसी ने पानी चढा दिया हो. तीनो चुहियां भी शायद भी भूल से मिर्च का दाना चबा गयीं. आंसू-भरी उदास आँखों से, दूर बैठी सिसकारी भारती रही. आँखे,भूरी मूंछे बजरी में भुट्टे के बालों की तरह काँप रही थीं.
"मेरी निजहत बी, बताइए अब मैं क्या करूं? मुझे तो दादी बी की पिटारी से जरा-सी अफीम ला दीजिए. सचमुच खाकर सो ही रहूँ." रसूलन निचला होंठ काटने लगी. "नहीं, रसूलन, ख़ुदकुशी हराम है. अब तो बात, मालूम होता है दब-दबा गयी और किसी को पता भी न चलेगा और तू अच्छी हो जायेगी." सलमा बोली. "क्या करू अच्छी हो कर, इस रात-दिन की जूतियों से तो मौत भली." "मगर मैं पूछती हूँ.. यह तूने कैसे मारा..ऐ है, जरा सा था..." निजहत का आखिर को जी न माना. "मैंने?...बीबी आप...हो-हो..हो-हो!" रसूलन बीमार कुतिया की तरह रोने लगी. "चुप रहो, आपा! तुम तो बेचारी का दिल दुख रही हो. मत रो रसूलन!" सलमा आगे खिसक आई. "चलो अम्मी आ रही है." निजहत और सलमा दरवाजे के पीछे दुबक गयी. अम्मी लोटा लिए निकल चली गयी. "ठहरो,बीबी, कहोगी तो नहीं किसी से?" रसूलन ने गिडगिडाकर सलमा के पजामे की मोरी पकड़ ली. "नहीं..अरे छोड़...अरे.." दोनों स्तब्ध रह गयी. चुहियां पीपों के पीछे भाग गयीं.
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