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Old 03-07-2013, 01:18 PM   #101
rajnish manga
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(1)ग़ज़ल
श्री राम नाथ सिंह 'अदम गोंडवी'

मुक्तिका़मी चेतना अभ्यसर्थना इतिहास की
यहसमझदारों की दुनिया है विरोधाभास की।

यक्ष प्रश्नों मेंउलझकर रह गयी बूढी सदी
क्या प्रतीक्षा की घडीहै या हमारे प्यास की।

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी की आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगिनिया या गोलियां सल्फास की।

Last edited by dipu; 03-07-2013 at 03:46 PM.
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Old 03-07-2013, 01:19 PM   #102
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(2) ग़ज़ल
श्री राम नाथ सिंह 'अदम गोंडवी'



तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबीहै
मगर यह आंकडें झूठे हैं यह दावा किताबी है

लगीहै होड़ सी देखो अमीरी व गरीबी में
यहपूँजीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है ।

तुम्हारी मेज चांदीकी तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घरआज भी फूटी रकाबी है ।
(
अदम गोंडवी)

Last edited by dipu; 03-07-2013 at 03:46 PM.
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Old 03-07-2013, 03:47 PM   #103
dipu
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Old 04-07-2013, 11:13 PM   #104
rajnish manga
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नारी (आलेख)
(यह आलेखवर्ष 1991 में सर्वप्रथम किरोड़ीमल कालेज की पत्रिका में छपी और उसके बाद कई अन्यपत्र-पत्रिकाओं में इसने प्रवेश पाया थायह नारी के प्रति मेरे विचारों कि पुष्टि करता है और मुझे उनके उत्थान की ओर कार्य करने को प्रेरित करता है। मैं अपनी पूजनीया माँ को जी-जान से प्रेम करता हूँ और उनके सम्मान में यह आलेख समर्पित करता हूँ।)
जय हिंद । जय भारत।
नारी

न जाने कितने विचारक नारी केविषय में अपने-अपने विचार प्रामाणिकता अथवा बिना प्रमाण के ही समाज के सामने रख चुके हैं। वस्तुतः विचारकों के विचार प्रामाणिकता के बिना भी तर्क की कसौटी पर खरे उतरते हैं।

इस बारे में शास्त्रों में कहा गया है, ”तर्क्यतेऽनेनेति तर्कः प्रमाणम्अर्थात् जिसके द्वारा प्रमेय आदि के बारे में बताना उद्देश्य नहीं है। परन्तु इससे यह सिद्ध तो हो ही जाता है कि जहाँ प्रमाण की अपेक्षा है, वहाँ तर्क निराधार हो जाते हैं। किन्तु प्रमाण केवल प्रत्यक्ष हो, यह अनिवार्य नहीं है। अतः सब प्रकार के अनुमान आदि पर भी विचार करना पड़ता है।

एक बार महाकवि भर्तृहरि ने नारी केविषय में अपनी जिज्ञासाशांत करने के उद्देश्य से एक संन्यासी से पूछा, "महात्मन्, नारी क्या है ?"

संन्यासी ने हँसकर कहा - "राजन्, नारी में सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। श्रृंगार है उसमें, वैराग्य है, नीति भी ... वह गणिका है, पतिव्रता है, पत्नी है, माँ है, बहिन है, साथी है, आदिशक्ति है और म्लेच्छ भी ... क्या नहीं है।"

पुनः एक बार अत्यंत ज्ञानी राजा भोज ने माघ पंडित से अन्य प्रश्नों के क्रम में एक यहप्रश्न भी पूछा कि संसार में क्षमतावान् कौन है। तब महाज्ञानी पंडित माघ ने बताया कि इस चराचर जगत् में दो ही क्षमतावान् हैं - एक पृथ्वी और दूसरी नारी।

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Old 04-07-2013, 11:14 PM   #105
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परन्तु अनादिकाल से ही नारी एक अनबूझ पहेली रही है। एक ओर यह भर्तृहरि की पहली पत्नी अनंगसेना की तरह विश्वासघातिनी है तो दूसरी ओर दूसरी पत्नी पिंगला की तरह पति की मृत्यु का समाचारमात्र पाकर शरीर त्यागने वाली पतिव्रता स्त्री। एक तरफ प्रचण्ड काली विनाश का प्रतीक है तो दूसरी तरफ सौम्य सरस्वती शान्ति का। वस्तुतः देखा जाए तो अत्यन्त प्राचीन काल से ही नारी के विभिन्न रूपों की चर्चा होती रही है। वैदिक काल में नारी का परिवार में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान था। उस समयसृष्टि की रचना में नारी का प्रकृति के रूप में उल्लेख किया गया है। शतपथ ब्राह्मण आदि में स्त्री को अर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकारा गया है। महाभारत के आदि पर्व में कहा गया है - "जिनके पत्नियाँ हैं, वे ही धार्मिक संस्कार सम्पन्न कर सकते हैं। जो गृहस्थ हैं और जिनके पत्नियाँ हैं, वे ही सुखी रह सकते हैं।" अर्थात् कोई भी धार्मिक कार्य वअनुष्ठान दम्पतिके बिना पूर्ण नहीं होते थे। इसलिए तब नारी को हमेशा यथोचित आदर व सम्मान मिलता था, बल्कि उन्हें पूजनीय माना जाता था - "यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः"। अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहीं देवताओं का वास होता है। यहाँ तक कि वैशाली की नगरवधू आम्रपाली को भी उतनी ही श्रद्धा मिलती थी, जितनी अन्य नारियों को। परन्तु, तत्कालीन समय में नारी की क्या गति है, यह सर्वविदित है। वस्तुतः यह स्थिति भी कुछ हद तक हमारे पूर्वजों की ही देन है। ब्राह्मण काल में ही या यों कहें कि जब शासन-तंत्र पर ब्राह्मणों का बोलबाला था, नारी की इस स्थिति की नींव रखी जा चुकी थी। वह नींव इतनी गहरी और मजबूत रखी गई थी कि आज तक उसमें दरार नहीं आ सकी।

सर्वप्रथम हमें इस बात को मानकर चलना होगा कि नारी एवंपुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। मंगलकारी शिव की परिकल्पना अर्द्धनारीश्वर के रूप में की गई है। अर्थात्पुरुष एवं नारी एक हीसृष्टि के दो उपादान हैं, जिनके सृजन-तत्त्व प्रमाणतः एक ही हैं। परन्तु, प्रकृति के नियम सर्वथा शाश्वतएवं कठोर हैं। उसकी व्यवस्था के अनुसार नारी एवं पुरुषके कार्य भिन्न-भिन्न एवं शारीरिक संरचना के अनुरूप हैं। यहीं पर पुरुष को अपने पुरुषत्वको उजागर करने का अवसर मिल गया और नारी बंधनयुक्त हो गई। यह बहुत बड़ा प्रश्नहै कि इसका कारक कौन है ? इस पर भी विवाद होता रहा है कि नारी का पुरुषसे प्रतियोगितात्मक भाव और पुरुषका नारी के प्रति दासत्व का भाव सर्वथा अनुचित एवं अप्राकृतिक है। लेकिन सच यही है कि आज नारी को अपने ही उत्थान के लिए इस पुरुष-प्रधान समाज से लोहा लेना पड़ रहा है। जबकि इतिहास इसका गवाह है कि वह न केवल पूजनीय थी, बल्कि किसी भी मायने में समाज के आधे से कम नहीं थी। यह एक प्राकृतिक सत्य है कि जीव अपनी कमजोरी छिपाता है और उस पर विजय पाने की कोशिशकरता है। आज का यह पुरुष समाज भी यही कर रहा है। जहाँ पूरकता का अनुभव होना चाहिए था वहीं प्रतियोगिता का अंदेशा एक कठिन सत्य बनकर उभर रहा है। दहेज-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-प्रथा जैसी अनेक जलती समस्याओं ने नारी को उद्वेलित करने का काम किया है। उसमें समर्थ बनने की ललक ने उसमें आत्मविश्वास कोउत्पन्नकिया है। ऐसे में उसे रोकना कठिन होगा। इस पुरुषसमाज को उसे अर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकार करना ही पड़ेगा। कदम से कदम मिलाकर चलना ही पड़ेगा क्योंकि प्रकृति के वरदान को झुठलाया नहीं जा सकता।

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Old 04-07-2013, 11:16 PM   #106
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परन्तु, क्या नारी की वर्तमान दशा सिर्फ पुरुषोंकी ही देन है ? जुल्म करने वाले और जुल्म सहने वाले दोनों ही जुल्म करने वालोंकेही हाथ मजबूत करते हैं। और इस तरह दोनों ही दोषीठहरते हैं। किसी भी समस्या का हल उसके मूल को जानकर उसके उन्मूलन में होता है। नारी को आज पुनरुत्थान की आवश्यकताहै। उसकी पंगुता को बैशाखी की जरूरत है, जो है उसका अपना आत्म-सम्मान, आत्मसंबल और जीवन को सही तरीके से जीने की ललक। सामाजिक बंधनरूपी गुलामी की जंजीर नारी का जेवर बन चुका है। उन्हें समझना होगा कि जेवर से शारीरिक सौन्दर्य अवश्य चमक उठे, किन्तु आन्तरिक सौन्दर्य कभी नहीं चमकता। इनसे पृथकता ही उनकी समस्या का हल है।

सर्वेक्षण किया जाए तो पता चलता है कि जितनी भीनिकृष्टपरम्परायें हैं जो नारियों को बंधनयुक्त बनाती हैं, उनकी संरक्षक परिवार की महिलायें ही हैं। एक बारगी पिता विधवा बेटी के मनोभावों को समझकर उसकी शादी की बात सोच भी सकता है, किन्तुबुज़ुर्गमहिलायें इसका विरोध हर प्रकार से करती नजर आती हैं।

"
तूने बेटा नहीं जना, तू कलंकिनी है" ऐसा कहने और ऐसे ही वुएक प्रकार के लाँछनों का ठेका सासों ने ले रखा है, जैसे बहू की इच्छा के अनुसार ही पुत्र अथवा पुत्री का जन्म संभव है। जब गड्ढा खोदने वाली स्त्रियाँ ही हैं तो पुरुषोंका काम आसान हो जाता है। उन्हें धकेल कर उस गड्ढे में गिरा देना। अन्यथा नारी और पुरुषतो एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। उनकी पूर्णता दोनों के योग में है। सीताराम शब्द भले ही दो शब्दों का युग्म हो, किन्तु उनका पृथकीकरण दोनों की महत्ता कम कर देता है। यदि गुलाब को डाली से अलग कर दिया जाय तो गुलाब और डाली की अलग-अलग कल्पना शायद ही की जा सकती है। नारी तो गुलाब है, जिसे देख-देखकर डाली अपनी मंजिल पर पहुँचती है। और पुरुषडाली है, उस प्रेरणा का पूजक और रक्षक। दोनोंको एक दूसरे पर गर्व होता है। दोनों में अनन्योन्याश्रय संबंध होता है।अत: विलग होकर कोई सुखी नहीं रह सकता। यथार्थ में डाली और गुलाब एक दूसरे के पूरक हैं, अन्यथा अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना ही झूठी हो जाएगी।

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Old 04-07-2013, 11:22 PM   #107
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किन्तु क्या नारी की कल्पना केवल युग्म के रूप में ही संभव है ? उसकी स्वतंत्र छवि की कल्पना क्यों नहीं ? दम्पति के रूप में, पत्नी के रूप में, बहिन और माँ के रूप में ही क्यों ? केवल एक नारी के रूप में क्यों नहीं ! यह सबसे बड़ा विषय है, जिस पर तर्क की कमी रही है। आज इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता है।

नगरीय व्यवस्था में नारी का यह रूप भी दर्शनीयहै। अब उसे किसीपुरुष की आवश्यकता संरक्षक के रूप में कदापि नहीं रही है।लेकिन ग्रामीण समाज अब भी वहीं है, जहाँ वह सदियों पहले था। सत्तर प्रतिशत ग्रामीण समाज आज भी नारी को यथोचित सम्मान देने से मुकरता है। आज हमें उन नारियों को सम्मान देने की आवश्यकता है, जो ये भी नहीं जानतीं कि पुरुषसे विलग होने पर भी नारीत्व को कोई क्षति नहीं होती है। शिक्षा एवं संस्कृति कुण्ठा को समाप्त करने के उपाय सुझाते हैं न कि उसमें बँधने के। समाज को, परिवार को, सरकार को, हम सबको और सबसे अधिक पुरुषोंयह प्रयास करना होगा कि हम आगे आने वाली पीढ़ी को किस प्रकार की संस्कृति देने को तैयार हैं। क्या हम सचमुच आधुनिक हैं अथवा केवल ढोंग कर रहे हैं ?

दरअसल नारी का दर्जा हमेशा ही सम्मान से युक्त है। इस दुःखद संसार का आस्वाद करने वाला नवजात शिशुभी प्रथम शब्द माँकहकर ही सम्बोधन करता है। माँके आँचल की ओट में एक नन्हा शिशुसंसार के सारे दुःखों को भूलकर अन्य सुखों में रमता है। वस्तुतः यह सारा संसार ही नवजात शिशुके समान है, जिस पर नारी रूपी ममता का आँचल फैला हुआ है। इसके बिना संसार का अस्तित्व ही अकल्पनीय है। अतः यह हम सबका कर्त्तव्य है कि हमें नारी को पुनः उसके उसी पद पर आसीन करवा दें, जिसकी वो अधिकारिणी है। वह समान है, महान् है, क्षमतावान् है, योग्य है। वह सब कुछ है। उससे प्रतियोगिता नहीं, मिलन और सौहार्द्र की आवश्यकता है।


विश्वजीत 'सपन'
(अंतरजाल से)
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Old 04-07-2013, 11:44 PM   #108
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चिंतन
जैसा आचरण राजा का वैसा ही प्रजा का
(लेखक: योगेन्द्र जोशी)

मैंने पहले भी महर्षि बाल्मीकिविरचित रामायण में उल्लिखित राम-जाबालि संवाद की चर्चा की थी । उल्लिखित प्रसंग में मुनि जाबालि श्रीराम को समझाते हैं कि उन्हें जनसमुदाय की आकांक्षाओं का सम्मान करते हुए उसकी अयोध्या वापसी की पार्थना मान लेनी चाहिये और तदनुरूप दिवंगत राजा को दिये अपने वचन भुला देना चाहिए । अपनी बात के समर्थन में उन्होंने कतिपय तर्क भी पेश किये थे । श्रीराम प्रतिवाद करते हुए कहते हैं कि वचन तोड़ने से स्वर्गीय राजा को कोई क्लेश नहीं पहुंचेगा इसे मान लें तो भी समाज के व्यापक हित में ऐसा करना सर्वथा हानिकर होगा । उनका तर्क थाः

कामवृत्तोऽन्वयं लोकः कृत्स्नः समुवर्तते ।
यद्वृत्ताः सन्ति राजानस्तद्वृत्ताः सन्ति हि प्रजाः ।।9।।

(
रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 109)

(यदि मैं आपकी बात मान लूं तो भी यह कहना ही होगा कि पहले तो मुझे स्वेच्छाचारी मान लिया जायेगा, फिरदेखा-देखी) समाज में सभी स्वेच्छाचारी हो जायेंगे । (ऐसा इसलिए कि) राजागण जैसा आचरण प्रस्तुत करते हैं प्रजा वैसा ही स्वयं भी करती है ।

उपरिकथित तथ्य वस्तुतः शाश्वत और सार्वत्रिक मूल्य का है । आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नाम से तो कोई राजा नहीं है, किंतु राजा के स्थान पर हमारे जनप्रतिनिधि हैं, पूरी शासकीय व्यवस्था को चलाने वाले हैं । कही गयी बात उनके संदर्भ में भी मान्य है । वे जैसा आचरण करेंगे वैसा ही शासित सामान्य लोग भी करेंगे । चूंकि अनुकरणीय दृष्टांत प्रस्तुत करने वाले जनप्रतिनिधि अब ढूढ़े नहीं मिलते, इसलिए सदाचारण का समाज में लोप हो रहा है । दुर्भाग्य से उच्च पद पर आसीन व्यक्ति अब इस बात की परवाह प्रायः नहीं करता कि उसके कृत्यों को लेकर सामान्य जनों के बीच उसकी क्या छबि बन रही है । काश, ऐसा हो पाता कि शासकीय व्यवस्था के शीर्षस्थ लोग आम आदमियों के लिए अनुकरणीय उदाहरण पेश करते !
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Old 07-07-2013, 11:42 PM   #109
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काश हर मस्ज़िद की खिड़की मंदिर में खुलती
लेखक: सत्यजीत चौधरी

6 दिसंबर, 1992 को जब विवादित ढांचा ढहाया गया, तब मैं जवान हो रहा था। बारहवीं में था। पिताजी उन दिनों बुलंदशहर में बतौर अध्यापक तैनात थे। हम सब उनके साथ ही रह रहे थे। दंगे भडक चुके थे। हमने छत पर चढïकर दूर मकानों से उठती लपटों की आंच महसूस की थी। मौत के खौफ से बिलबिलाते लोगों की चीखें सुनी थीं। हैवानियत का नंगा नाच देखा था। जयश्री रामऔर अल्लाह ओ अकबरके नारों में भले ही ईश्वर और अल्लाह का नाम हो, लेकिन तब उन्हें सुनकर रीढ़ों में बर्फ-सी जम जाती थी। पूरा देश जल रहा था। अखबार और रेडियो पर देशभर से आ रही खबरें बेचैन किए रहतीं। हमारे हलक से निवाले नहीं उतरते थे। तभी से छह दिसंबरमेरे दिमाग के किसी गोशे में नाग की तरह कुंडली मारकर बैठ गया था। कमबख्त तब से शायद हाईबरनेशन में पड था। इतने सालों बाद जब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ का फैसला सुनाने का ऐलान हुआ तो नाग कुलबुलाकर जाग गया। पिछले एक महीने से नाग और राज्य सरकार की तैयारियों ने बेचैन किए रखा। अयोध्या फैसले को लेकर उत्तर प्रदेश के एडीजी (लॉ एंड आर्डर) बृजलाल के प्रदेशभर में हुए तूफानी दौरों ने और संशय में डाल दिया। इसके बाद शुरू हुआ संयम की सीख का हमला। प्रदेश सरकारों से लेकर केंद्र सरकार, और संघ-भाजपा से लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, दारुल उलूम तक फैसले का सम्मान करने की घुट्टी पिलाते मिले। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया तो कुछ सुकून मिला, लेकिन चार दिन बाद ही जब सर्वोच्च अदालत ने मामला फिर हाईकोर्ट को लौटा दिया तो वही बेचैनी हावी हो गई।
मुजफ्फरनगरगर्भनाल की तरह मुझसे जुड़ा है। मम्मी-पापा और बच्चे वहीं रहते हैं। फैसले की घड़ीजैसे-जैसे नजदीक आती गई, जान सूखती चली गई। मैं दिल्ली में, बच्चे और मां-पिताजी वहां। मुजफ्फरनगर के कुछ मुस्लिम दोस्तों की टोह ली। वे भी हलकान मिले। हिंदुओं को टटोला, वहां भी बेचैनी का आलम। बस एक सवाल सबको मथे जा रहा था कि तीस सितंबरको क्या होगा। कुछ और लोगों से बात हुई तो पता चला कि पुलिस वाले गांव-गांव जाकर उन लोगों के बारे में जानकारियां इकट्ठा कर रहे हैं, जिनकी छह दिसंबर, 1992 के घटनाक्रम के बाद भड़के दंगों में भूमिका थी या जो इस बार भी शरारत कर सकते थे। इस दौरान एक-दो बार मुजफ्फरनगर के चक्कर भी लगा आया। लोग बेहद डरे-सहमे मिले। उन्हें लग रहा था कि तीस तारीख को फैसला आते ही न जाने क्या हो जाएगा। सबको एक ही फिक्र खाए जा रही थी कि छह दिसंबरन दोहरा दिया जाए। लोगों को लग रहा था कि शैतान का कुनबा फिर सड़कों पर निकल आएगा। पथराव होगा, आगजनी अंजाम दी जाएगी। अस्मतें लुटेंगी, खून बहेगा। इंसानियत को नंगा कर उसके साथ बलात्कार किया जाएगा।

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Old 07-07-2013, 11:43 PM   #110
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Default Re: इधर-उधर से

खैरतीस सितंबरभी आ गई। उस दिन मैं गाजियाबाद स्थित ‘एक कदम आगे’के कार्यालय में बैठा था। देश के लाखों लोगों की तरह मैं भी टीवी से चिपका था। खंडपीठ के निर्णय सुनाने के कुछ ही देर बाद हिंदू संगठनों के वकील और उनके कथित प्रतिनिधि न्यूज चैनलों पर नमूदार हो गए। उन्होंने फैसले की व्याख्या जिस अंदाज में शुरू की, उसने सभी को डराकर रख दिया। कई चैनल ऐसे भी थे, जिन्होंने समझदारी से काम लिया और फैसले की प्रमुख बातों को समझने के बाद ही मुंह खोला।। बहरकैफ, इस दौरान मैं लगातार मुजफ्फरनगर के लोगों के संपर्क में रहा। इस बीच, खबर आई की मुजफ्फरनगर जिले की हवाई निगरानी भी हो रही है। सुरक्षा प्रबंधों से साफ हो गया था कि शासन ने मुजफ्फरनगर जनपद को संवेदनशील जिलों में शायद सबसे ऊपर रखा था। राज्य सरकार कोई रिस्क नहीं लेना चाह रही थी।

मैं घबराकरइंटरनेटकी तरफ लपका। मेरी हैरत की इंतहा नहीं रही, जब मंने पाया कि ट्वीटर, फेसबुक और जीटॉक के अलावा ब्लाग्स पर जेनरेशन नेक्स्टअपना वर्डिक्ट दे रही थी, अमन, एकजुटता और भाईचारे का फैसला। एक भी ऐसा मैसेज नहीं मिला जो नफरत की बात कर रहा हो। पहले तो यकीन नहीं हुआ, फिर इस एहसास से सीना फूल गया कि देश का भविष्य उन हाथों में है, जो हिंदू या मुसलमान नहीं, बल्कि इंसान हैं। कह सकते हैं कि भविष्य का भारत महफूज हाथों में हैं। कई युवाओं ने फैसले पर ट्वीट किया था- न कोई जीता, न कोई हारा। आपने नफरत फैलाई नहीं कि आप बाहर।

कहीं पढ़ा था कि पुणे मेंघोरपड़ी गांवहै, जहां मस्जिद की खिड़की हिंदू मंदिर में खुलती है।अहले-सुन्नत जमात मस्जिद और काशी विशेश्वर मंदिर को अगर जुदा करती है, तो बस ईंट-गारे की बनी एक दीवार। एक और रोचक तथ्य इस दोनों पूजास्थलों के बारे में यह है कि जब बाबरी विध्वंस के बाद पूरे देश में दंगे भड़क रहे थे, पुणे में दोनों समुदाय के लोगों ने मिलकर मंदिर का निर्माण कर रहे थे। निर्माण के लिए पानी मस्जिद से लिया जाता था। याद आया कि ऐसी ही शानदार नजीर हम मुजफ्फरनगर वाले काफी पहले पेश कर चुके हैं। कांधला में जामा मस्जिद और लक्ष्मी नारायण मंदिर जमीन के एक ही टुकड़े पर खड़े होकर धर्म के कारोबारियोंको आईना दिखा रहे हैं। माना जाता है कि मस्जिद 1391 में बनी थी। ब्रिटिश शासनकाल में मस्जिद के बगल में खाली पड़ी जमीन को लेकर विवाद हो गया। हिंदुओं का कहना था कि उस स्थान पर मंदिर था। मामला किसी अदालत में नहीं गया। दोनों फिरकों के लोगों ने बैठकर विवाद का निपटारा कर दिया। तब मस्जिद के इंचार्ज मौलाना महमूद बख्श कंधेलवी ने जमीन का वह टुकडा हिंदुओं को सौंप दिया। वहां आज लक्ष्मी नारारण मंदिर शान से खड़ा है। मंदिर में आरती होती है और मस्जिद से आजान की आवाज बुलंद होती है। सह-अस्तित्व की इससे बेहतर मिसाल और क्या होगी। यह है हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियत की मिसाल।
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