01-12-2012, 08:40 AM | #101 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
01-12-2012, 08:42 AM | #102 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जो तुम कहो कि अपने स्वप्ने में भी अपनी सृष्टि देखते हो तो हे भगवन्! हमको जो स्वप्ना आता है उसको हम अपने स्वप्न के प्रमाद से देखते हैं और तुमने जाग्रत् होकर देखा तो कैसे देखा? मुनीश्वर बोले, हे बधिक! प्रथम जो मैंने देखा था सो आपको विस्मरण करके उसके हृदय में जगत् देखा था- और दूसरी बार जो देखा था सो आपको जानकर जगत् देखा था सो क्या वस्तु है सुनो | हे बधिक! जो वस्तु कारण से होती है सो सत्य होती है और जो कारण बिना भासती है सो मिथ्या होती है | मुझको जो सृष्टि उसके स्वप्न में भासी थी सो कारण बिना थी, क्योंकि कारण दो प्रकार का होता है-एक निमित्त कारण, जैसे घट का कारण कुलाल होता है और दूसरा समवायकारण, जैसे घट मृत्तिका का होता है | जो दोनों कारणों से उत्पन्न हो वह कारण कहाता है पर आत्मा तो दोनों प्रकार से जगत् का कारण नहीं, वह अद्वैत है इससे निमित्त कारण नहीं और समवायकारण भी इससे नहीं कि अपने स्वरूप से अन्यथा भाव नहीं हुआ |
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01-12-2012, 08:42 AM | #103 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे मृत्तिका के परिणाम से घट होता है तैसे ही आत्मा का परिणाम जगत् नहीं | आत्मा अच्युत है | वह जगत् कारण बिना भासि आया था इससे भ्रममात्र ही था | हे वधिक! वस्तु वही होती है तो जगत् की भ्रान्ति आत्मा में भासी सो जगत् आत्म रूप हुआ | जब सृष्टि फुरी न थी तब अद्वैत आत्मसत्ता थी उसमें संवेदन फुरने से जगत् हुए की नाईं उदय हुआ सो क्या हुआ- जैसे सूर्य की किरणों में जल भासता है सो किरण ही जलरूप भासती है, तैसे ही यह जगत् आत्मा का आभास है सो आत्मा ही जगद््रूप हो भासता है | वहाँ न कोई शरीर था, न कोई हृदय था, न पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश था और न उत्पत्ति और प्रलय थी न और कोई था, केवल चिन्मात्ररूप ही था | हे वधिक! ज्ञानदृष्टि से हमको तो सच्चिदानन्द ही भासता है जो शुद्ध और सर्वदुःखों से रहित परमानन्द है, और जगत् भी वही रूप है | तुम
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01-12-2012, 08:42 AM | #104 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
सरीखे को जो जगत् शब्द अर्थरूप भासता है सो आत्मा में कुछ हुआ नहीं केवल चिन्मात्र सत्ता है | सर्वदा हमको आत्मरूप ही भासता है | जो तू चाहे कि मुझको भी चिन्मात्र ही भासे तो सर्वकल्पना मन से त्यागकर उसके पीछे जो शेष रहेगा वह आत्मसत्ता है और सबका अनुभवरूप वही है और प्रत्यक्ष शुद्ध, सर्वदा स्वभावसत्ता में स्थित है और अमर है | तुम भी उस स्वभाव में स्थित हो रहो | हे वधिक! आत्मसत्ता परमसूक्ष्म है जिसमें आकाश भी स्थूल है- जैसे सूक्ष्म अणु से पर्वत स्थूल होता है, तैसे ही आत्मा से आकाश भी स्थूल है | आत्मा में यही सूक्ष्मता है कि आत्मत्वमात्र है जिसमें कोई उत्थान नहीं केवल निर्मल स्वभावसत्ता और निराभास है उसी में यह जगत् भासता है इससे वही रूप है |
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01-12-2012, 08:43 AM | #105 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे काल में क्षण, पल, घड़ी, पहर, दिन, मास वर्ष और युगसंज्ञा होती है सो काल ही है, तैसे ही एक ही आत्मा में अनेक नामरूप जगत् होता है | जैसे एक बीज में पत्र, टहनी, फूल फल नाम होते हैं तैसे ही एक आत्मा में अनेक नामरूप जगत् होता है सो आत्मा से कुछ भिन्न वस्तु नहीं सब आत्मास्वरूप है और जो आत्मा से भिन्न भासे उसे भ्रममात्र जानो जैसे संकल्पपुर होता है तैसे ही यह जगत् है | हे वधिक! आत्मा में जगत् कुछ बना नहीं | वही आत्मा तेरा अपना आप अनुभवरूप है और परमशुद्ध है | उसमे न जन्म है न मृत्यु है और चिदाकाश अपना आप है जो तेरा आप अनुभवरूप शुद्ध सत्ता है-उसको नमस्कार है | हे वधिक! तू उसमें स्थित हो रह तब तेरे दुःख नष्ट हो जावेंगे | यह जगत् अज्ञानी को सत्य भासता है और ज्ञानवान् को सदा आकाशरूप भासता है |
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01-12-2012, 08:43 AM | #106 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे एक पुरुष सोया है और एक जागता है तो जो सोया है उसको स्वप्ने में महल आदिक जगत् भासता है और जो जाग्रत् है उसको आकाशरूप है, तैसे ही अज्ञानी को जगत् भासता है और ज्ञानवान् को आत्मरूप है | वधिक बोला, हे मुनीश्वर कितने कहते हैं कि यह जीव कर्म से होता है और कितने कहते हैं कि कर्मबिना उत्पन्न होता है तो इन दोनों में सत्य क्या है? मुनीश्वर बोले, हे वधिक! आदि जो परमात्मा से ब्रह्मादिक फुरे हैं सो कर्म से नहीं हुए वे कर्म बिना ही उत्पन्न हुए हैं और उन्हें न कहीं जन्म है और न कर्म है | वे ब्रह्मस्वरूप ही हैं और उनका शरीर भी ज्ञानरूप है | वे और अवस्था को नहीं प्राप्त होते सर्वदा उनको अधिष्ठान आत्मा में अहंप्रतीति है | हे वधिक! सृष्टि आदि जो ब्रह्मादिक फुरे हैं वे ब्रह्म से भिन्न नहीं और जो अनन्त जीव फुरे हैं और जिसका आदि ही आत्मपद से प्रकट होना हुआ है वे भी ब्रह्मरूप हैं ब्रह्मसे कुछ भिन्न नहीं- आदि सबका ब्रह्मचेतन स्वयंभू हैं परन्तु ब्रह्मा विष्णु रुद्रादिक को अविद्या ने स्पर्श नहीं किया वे विद्यारूप हैं और दूसरे जीव अविद्या के वश से प्रमाद करके परतन्त्र हुए हैं और कर्म करके कर्म के वश हुए हैं और संसार में शरीर धारते हैं |
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01-12-2012, 08:43 AM | #107 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जब उनको आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है तब वे कर्म के बन्धन से मुक्त होकर आत्मपद को पाते हैं | हे वधिक! आदि जो सृष्टि हुई है सो कर्म बिना उपजती है और पीछे अज्ञान के वश से कर्म के अनुसार जन्म-मरण देखते हैं | जैसे स्वप्ने की सृष्टि आदि कर्म बिना उत्पन्न होती है और पीछे कर्म से उत्पन्न होती भासती है, तैसे ही यह जगत् है | आदि जीव कर्म बिना उपजे हैं और पीछे कर्म के अनुसार जन्म पाते हैं |ब्रह्मादिक के शरीर शुद्ध ज्ञानरूप हैं | ईश्वर में जीवभाव दृष्टि आता है पर उस काल में भी ब्रह्म ही स्वरूप है, क्योंकि उनके कर्म कोई नहीं केवल आत्मा ही उनको भासता है- आत्मा से भिन्न कुछ नहीं | जैसे स्वप्ने में दृष्टा ही दृश्यरूप होता है और नाना प्रकार के कर्म दृष्टि आते हैं परन्तु और कुछ हुआ नहीं तैसे ही जो कुछ जगत् भासता है सो सब चिन्मात्ररूप है और कुछ नहीं |
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01-12-2012, 08:43 AM | #108 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
सुख दुःख भी वही भासता है परन्तु अज्ञानी को जबतक जगत् प्रतीति होती है तबतक कर्मरूपी फाँसी से बँधा हुआ दुःख पाता है और जब स्वरूप में स्थित होगा तब कर्म के बन्धन से मुक्त होगा वास्तव में न कोई कर्म है और न किसी को बन्धन है | यह मिथ्या भ्रम है केवल आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है दूसरा कुछ हो तो कहूँ कि इस कर्म ने इसको बन्धन किया है | यह जगत् आत्मा में ऐसा है जैसे जल में तरंग होता है सो भिन्न कुछ नहीं | जल से तरंग उत्पन्न होता है सो किस कर्म से होता है और क्या उसका रूप है? जैसे वह जल ही रूप है, तैसे ही यह जगत् भी आत्मस्वरूप है-आत्मा से इतर कुछ नहीं जो कुछ कल्पना कीजिये सो अविद्यामात्र है | हे वधिक! जबतक यह संवित् बहिर्मुख फुरती है तबतक जगत् भासता है और कर्म होते दृष्टि आते हैं और जब संवित् अन्तर्मुख होगी तब न कोई जगत् रहेगा और न कोई कर्म दृष्टि आवेगा, तब सब आत्मसत्ता ही भासेगी |
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01-12-2012, 08:44 AM | #109 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे हमको सदा आत्मसत्ता भासती है, तैसे ही तुमको भी भासेगी | हे वधिक! जो ज्ञानवान् पुरुष है उनको जगत् आत्मत्व दिखाई देता है और जो अज्ञानी हैं उनको प्रमाद से द्वैतरूप भासता है इससे वह पदार्थों को सुखरूप जानकर पाने का यत्न करता है और सुख से सुखी और दुःख से द्वेष करता है पर परमानन्द जो आत्मपद है उसके पाने का यत्न नहीं करता | ज्ञानवान् सदा परमानन्द में स्थित है और सब जगत् उसको ब्रह्मस्वरूप भासता है | हे वधिक! सर्वजगत् जो तुझको दृष्टि आता है चिन्मात्रास्वरूप ब्रह्म है, न कोई स्वप्ना है, न कोई जाग्रत् है, न कोई कर्म है और न कोई अविद्या है सर्व ब्रह्मस्वरूप सदा अपने आपमें स्थित है-उसमें और कुछ नहीं जैसे जल में आवर्त स्थित होता है परन्तु जल से भिन्न कुछ नहीं होता, तैसे ही ब्रह्म में जगत् हुए की नाईं भासता है परन्तु ब्रह्म से भिन्न कुछ नहीं | सब जगत् ब्रह्मस्वरूप है तू विचार करके देख तब तेरे दुःख मिट जावेंगे | जबतक
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01-12-2012, 08:44 AM | #110 |
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Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
विचार करके स्वरूप को न पावेगा तबतक दुःख न मिटेगा | जब स्वरूप को पावेगा तब सब कर्म नष्ट हो जावेंगे | जितना विचार होता है उतना ही उतना सुख है जहाँ विचार उत्पन् होता है वहाँ अविद्या नष्ट हो जाती है | जैसे जहाँ प्रकाश होता है वहाँ अन्धकार नहीं रहता, तैसे ही जहाँ सत्य-असत्य का विचार उत्पन्न होता है वहाँ अविद्या का अभाव हो जाता है और फिर वह संसारचक्र में नहीं गिरता बल्कि परमपद को प्राप्त होता है | जिस ज्ञानवान् को यह पद प्राप्त हुआ है वह दुःखी नहीं होता |
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